सोमवार, 31 मार्च 2008
आया समय मासूमों को तराशने का....
डा. महेश परिमल
परीक्षाओं का दौर समाप्त हो गया. अब बच्चे खाली हो गए. जो धनिक वर्ग से हैं, उन्होंने तो पहले से ही अपने यात्रा विवरण तैयार कर लिए हाेंगे, कई लोग तो निकल भी पड़े होंगे, यात्रा के लिए कहीं ठंडे स्थानों पर. पर जो सामान्य वर्ग के हैं, वे क्या करें. पढ़ाई से कुछ महीने के लिए मुक्ति मिल गई. अब क्या करें. अतएव अब बच्चे अपने साथियों के साथ खेलने में ही काफी समय व्यतीत कर रहे हैं. पास-पड़ोस में जाना, आसपास के बाग-बगीचों में जाना, ये क्रियाकलाप अब रोज ही होने लगे हैं.
उस दिन पड़ोस के बच्चे मेरे घर आ गए. शैतानी तो बच्चों का जन्म सिध्द अधिकार है. यह सोचकर सभी हमारे घर पर ही खेलने लगे. बाहर तेज धूप के कारण निकला नहीं जा रहा था, सो सबने मिलकर घर के अंदर ही क्रिकेट खेलने का मन बना लिया. धीरे-धीरे ही सही, पर क्रिकेट जमने लगा. इस बीच एक बच्चे ने जो छक्का मारा कि बॉल सीधे टीवी पर लगी. टीवी फूट गया. अब बच्चों की तो बोलती ही बंद हो गई. शाम को जब हम दोनों ऑफिस से लौटे, तो पता चला कि हमारा टीवी नाकाम हो गया है. पहले तो हमने अपने बच्चों से पूछा. उन्होंने अपनी गलती स्वीकारी और यह वचन दिया कि अब कभी घर के अंदर क्रिकेट नहीं खेलेंगे. फिर हमने पड़ोसी के बच्चों से बात की. कोई हल नहीं निकला. बाद में जिस बच्चे के छक्के से टीवी फूटा था, उससे बात की. उसका कहना था कि उसने तो धीरे से ही मारा था, पर बॉल तेज थी, इसलिए वह सीधे टीवी पर पड़ी. तब हमने उससे पूछा- बेटे, क्या तुमने अपने घर के अंदर कभी क्रिकेट खेला है? उसने ना में उ?ार दिया. तब हमने उससे पूछा कि क्या कभी तुम्हारे हाथ से घर की कोई खास चीज टूटी है. इस बार भी उसने ना में ही उ?ार दिया. तब मैंने उससे कहा कि अब पहले अपने घर का टीवी तोड़कर आओ, फिर मेरे घर का टीवी तोड़ना. उसके बाद से उन बच्चों का घर आना ही बंद हो गया. ऐसा ही होता है. बच्चे अपने पिता का मोबाइल तो छूते तक नहीं, पर दूसरों के घरों में जाकर वहाँ के लोगों का मोबाइल लेकर गेम खेलना शुरू कर देते हैं. यह नहीं हो पाया, तो उनका कंप्यूटर ही चालू कर लिया और लगे गेम खेलने. बच्चे तो सामने वाले की पीड़ा नहीं समझते, यह ठीक है, पर क्या उनके पालक इसे समझने की कोशिश करते हैं?
ऐसा ही होता है पडाेसी अपने बच्चों को दूसरों के घरों में भेजकर दोपहर की नींद का आनंद लेते हैं, या फिर टीवी देखने में मशगूल हो जाते हैं. उन्हें चिंता ही नहीं रहती कि बच्चे दूसरों के घरों में जाकर आखिर कर क्या रहे हैं. जिन घरों में माता-पिता दोनों ही काम पर जाते हाें, उन घरों की स्थिति काफी विकट हो जाती है. उन घरों के बच्चे साथ पाने के लिए पड़ोसियों के बच्चों को अपने घर में आने देते हैं. जहाँ बच्चे जमा हुए कि शैतानियाँ शुरू. फिर तो घर में रखी चीजें टूटती-फूटती ही रहती हैं. कभी अपने ही बच्चों से तो कभी पड़ोस के बच्चों से. अपने बच्चों से फिर भी कुछ कहा जा सकता है, पर पड़ोस के बच्चों से क्या कहा जाए?
यह एक आम समस्या है, जिससे आज पालक जूझ रहे हैं. इसका समाधान तो यही है कि अपने बच्चों को नियंत्रण में रखा जाए, पर कैसे? हमने तो अपने बच्चों को यही संस्कार दिए कि दूसरों के घरों में जाकर संयम बरता जाए, फिर चाहे वह व्यवहार में हो या फिर खेल में. पर दूसरों के बच्चों को अपने घर में हमारी अनुपस्थिति में घर पर आना कैसे रोका जाए? इसका आशय यही है कि बच्चे जो अपने घर में नहीं कर पाते, अक्सर वे दूसरों के घरों में करते हैं. पड़ोसी के बच्चे चूँकि अपने घर में शैतानियों का प्रदर्शन कम ही करते हैं, अतएव उन्हें यह विश्वास भी नहीं हो सकता कि उनका बच्चा किसी के घर जाकर उनका टीवी तोड़ सकता है. उनके लिए तो उनका बच्चा सबसे सीधा बच्चा है, जो कभी शैतानी नहीं करता. उनकी इस धारणा को झुठलाया भी नहीं जा सकता. अपने बच्चों के बारे में धारणा बनाने में पालकों से अच्छा हितैषी भला कौन होता है.
ये परीक्षा के बाद की एक गंभीर समस्या है. जो बच्चे अपने घर पर शैतानियाँ नहीं कर पाते, वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन बाहर करते हैं. कभी किसी पार्क में खेलते हुए उनकी बॉल पास के किसी घर में गिरती है, कभी खिड़की का शीशा तोड़ती है, कभी किसी को चोट पहुँचाती है. इन दिनों उनके व्यवहार में एक उच्छृंखलता देखी जा सकती है. माना कि ये मौसम उनके खेल का है, शरारत का है, मौज-मस्ती का है, लेकिन इसे पालकों की लापरवाही का मौसम तो कतई नहीं कहा जा सकता. इतना कहा जा सकता है कि वे इन दिनों बच्चों के प्रति थोड़े से उदार अवश्य हो जाते हैं. बच्चे उनकी इसी उदारता का लाभ उठाते हैं, जो उनकी शरारतों के रूप में सामने आती है.
यदि इसका समाधान तलाशने की कोशिश की जाए, तो यह बात सामने आती है कि आखिर बच्चे इन छुट्टियों में करें क्या? बच्चों का टाइम-टेबल उनकी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए यदि पालक स्वयं ही तैयार करें, तो इस दिशा में एक अच्छा कदम माना जा सकता है. पालक स्वयं परखें कि उनका बच्चा किस कार्य में अधिक दिलचस्पी दिखाता है. उसकी इस रुचि के अनुसार उसे किसी क्लास में भेजा जा सकता है. जहाँ वह अपनी रुचि को एक नया आकार देगा. हम सब जानते हैं कि बच्चा कितना भी शैतान क्यों न हो, उसमें कुछ तो ऐसा होता ही है, जिससे वह थोड़ा सा अलग होता है. पालक बस उसकी इसी विशेषता को ध्यान में रखें और उसे कहीं व्यस्त कर दें.
बच्चा यदि रोज ही कहीं खेलने जा रहा है, तो उस पर नजर रखें. वह क्या करता है, कहाँ जाता है, उसके मित्र कैसे हैं, किस तरह का खेल खेल रहे हैं, कहीं कोई उन्हें भरमा तो नहीं रहा है, जहाँ उसका समय अधिक गुजर रहा है, उससे किसी को कोई आप?ाि तो नहीं है? उसकी तमाम गतिविधियों पर उससे रोज ही चर्चा करें, ताकि बच्चे को इस बात का थोड़ा सा ही सही पर पालक का डर रहे. घर में यदि बड़ी होती बिटिया है,तो उसका विशेष ध्यान रखें. कोशिश करें कि उसका दोपहर का समय घर पर ही गुजरे. यदि वह बाहर जाती है, तो उसके पहनावे पर विशेष ध्यान दें.
टीवी और कंप्यूटर आज की खास जरूरतें हैं, इसके बिना प्रगति की बात तो हो ही नहीं सकती. पर यही समय है, जब बच्चों को पाठयक्रम की किताबों से दूर होकर ऐसी किताबों की ओर उन्मुख किया जाए, जो उसे नैतिक ज्ञान दे. केवल ज्ञान ही नहीं, जो उसकी कल्पनाओं को इंद्रधनुषी रंग दे. आज की कंप्यूटराइज्ड दुनिया में बच्चे तो क्या बड़े भी कल्पनाओं की दुनिया से बहुत दूर होते जा रहे हैं, बड़ों को तो बदला नहीं जा सकता, पर बच्चों को तो बदलने की शुरुआत की जा सकती है. बच्चों को कॉमिक्स का संसार दें, जिससे वे कविता, कहानी, नाटक, चित्रकला आदि अनेक विधाओं से रु-ब-रु हो सकें. ये वह संसार है, जहाँ बच्चों की कल्पनाएँ जन्म लेती हैं. आज वे कल्पना करना ही भूल गए हैं. उनकी कल्पनाओं को साकार रूप देते टीवी और कंप्यूटर जो आ गए हैं.
बच्चे कल के भविष्य हैं, उन्हें कल्पना करने का अवसर तो दें, फिर देखो उनकी कल्पनाएँ कहाँ किस तरह से सुदूर क्षेत्रों तक जाती है. पालक उन्हें आज की वायवीय दुनिया से दूर ले जाकर सच के धरातल पर भी टिकने का मौका दें, उनके काँधों को इतना मजबूत बना दें कि कल उन पर देश, समाज और परिवार का बोझ आ जाए, तो उसे वे सँभाल सकें. वायवीय संसार देकर उनके कांधों को कमजोर न बनाएँ, नहीं तो कल हमारा समाज ही बिना सहारे का हो जाएगा.
डा. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आप की बात ठीक हे,बच्चों को सही संस्कार ,दिये जाने चाहिये, लेकिन मेने देखा हे कई मां बाप पढे लिखे तो बहुत हे, लेकिन संस्कारो मे जीरो तो ऎसे मां बाप बच्चो को कया संस्कार देगे
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