शुक्रवार, 7 मार्च 2008
विभाजित होती एकाकार नारी
डॉ. महेश परिमल
कुछ वर्ष पहले पाकिस्तानी संसद में नारी कॊ लेकर कुछ ऍसी टिप्पणियाँ की गई थी जिससे नारी की अिस्मता पर ही सवाल उठ खडा हुआ. पाकिस्तानी सांसदों(पाक सांसदों नहीं)के लिए महिला सांसद केवल एक 'स्वीट डिश' है. उनका यह भी मानना है कि सदन में वे सभी चोर दरवाजे से क्यों घुसती हैं? यदि उनमें दम-खम है, तो उन्हें चुनाव जीतकर आना चाहिए. इनका यह दावा है कि सदन की शोभा बढ़ाने वाली महिलाएँ 100-200 वोट हासिल करने की कुब्बत नहीं रखती. ये है पाकिस्तान में महिलाओं की स्थिति का एक चित्रण. हमें खुश नहीं होना चाहिए. हमारे देश में भी महिलाओं की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है. यह सच है कि महिलाओं को लेकर इस तरह के ओछे बयान हमारे संस्कारों में नहीं हैें, पर वास्तविकता यह है कि महिलाओं पर छींटाकसी करने में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता.
महिलाओं को लेकर हमारे देश में आज तक सही सोच नहीं बन पाई है. यह विडम्बना है कि जिस सदन में सांसदों के वेतन और सुविधाओं जैसे विधेयक मिनटों में बिना विचार के पारित हो जाते हों, उसी सदन में महीनों बाद भी महिला आरक्षण विधेयक अब तक पारित नहीं हो पाया. वह विधेयक भी महिलाओं की स्थिति बताता हुआ लटक गया है. आश्चर्य यह है कि उस विधेयक का न तो कोई समर्थन कर रहा है और न ही कोई विरोध. सत्तारूढ़ दल भी इसे दिल से संसद में नहीं रख पा रहा है. दूसरी ओर विपक्ष भी इसे तहेदिल से स्वीकार नहीं कर पा रहा है. महिला आरक्षक विधेयक पारित ही नहीं हो पाए, यह पुरुष बहुल सांसदों की चाहत है. मात्र चार प्रतिशत महिला सांसद भला क्या कर पाएँगी?
मेरा मानना है कि यदि विधेयक पारित हो भी जाए, तो भी महिलाओं की स्थिति में एकदम से सुधार आ ही जाएगा, यह सोचना ंगलत है. पंचायतीराज में महिला सरपंचों की हालत सभी देख रहे हैं. महिला के सरपंच बनते ही उसके पति का रूतबा बढ़ जाता है. उसकी साख में एकदम से इजाफा हो जाता है. महिला सरपंच के सारे काम उनके पति द्वारा ही संपादित हो रहे हैं. इस काम में पत्नी का सहयोग करना अलग बात है, पर पूरे काम करते हुए सरपंच की बैठकों में भाग लेना और जिम्मेदारीपूर्ण कार्यों में भी दखल रखना अलग बात है. महिला सरपंच केवल कागजों पर हस्ताक्षर करने तक ही सीमित रह गई है. क्या यही है आरक्षण का सम्मान?
उस महिला सरपंच के लिए कितनी महिलाएँ आगे आईं, जिसने तमाम दबाओं के चलते सरपंची छोड़कर पटवारी बनना कुबूल किया. वह सुरक्षा चाहती थी, जीवन निर्वाह के लिए धन चाहती थी. यह सब उसने शिक्षित होने के बाद चाहा, उसने क्या ंगलत किया? क्या एक महिला संगठन ने आगे बढ़कर पैरवी की? कितनी महिलाएँ जज, वकील, पुलिस अधिकारी और आई.ए.एस. हैं, किसी ने एक कदम भी आगे बढ़ाया? पुरुषों पर निर्भर रहने वाली महिला जब अधिकारों से सम्पन्न होती है, तब वह उसी का एक हिस्सा बनकर पुरुषों का साथ देना शुरू कर देती है. फिर कोई मतलब नहीं रह जाता उसे समाज की अन्य महिलाओं से.
पुरुषों की आपसी वैमनस्यता यदा-कदा सामने आ ही जाती है, पर महिलाओं के भीतर-ही-भीतर किसी महिला के लिए क्या पक रहा है, इसे कोई भी 'डिटेक्टिव एजेंसी' नहीं बता पाती. पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ सड़कों पर उतरने वाली महिलाएँ कभी किसी महिला अधिकारी या अन्य महिला के अत्याचार के खिलाफ सड़कों पर आईं हैं? एक कदम भी उठाया है? सास के व्यवहार पर घंटों तक बोलने वाली महिलाएँ तब कहां चलीं जाती हैं, जब कोई सास आगे बढ़कर बहू को बेटी से बढ़कर मानती है और उसे ममत्व देती है. क्या वह सास पुरस्कृत करने के काबिल नहीं है.
एक बार गौतम बुध्द के पास एक नि:संतान महिला आई, अपना दु:खड़ा रोते हुए उसने बुध्द से प्रार्थना की कि उसे संतानवती होने का वर दें. गौतम बुध्द ने उसे कुछ चने देते हुए कहा कि तुम इसे चबाते हुए वहाँ पर बैठो, मैं थोडे समय पश्चात तुम्हारे पास आता हूँ. महिला एक ओर बैठकर चने चबाने लगी. कुछ समय बाद वहाँ कुछ बच्चे खेलते हुए आए और उससे चना माँगेने लगे. महिला ने उन बच्चों को दुत्कारते हुए भगा दिया. कुछ क्षण पश्चात् गौतम बुध्द उस महिला के पास आए और कहने लगे कि पहले अपने भीतर बच्चों के लिए स्नेह पैदा करो, फिर संतान प्राप्ति की सोचो. जब तक तुम्हारे भीतर स्नेह की अजस्र धारा नहीं बहेगी, तब तक तुम्हें संतान की प्राप्ति नहीं होगी.
इसलिए महिलाएँ पुरुषों से बदला लेने के पहले अपने भीतर महिलाओं के लिए प्यार ढूँढ़े. उन्हें अपनापा दें. कलुषता, कटुता, घृणा का भाव छोड़कर कामवाली बाई से लेकर महिला अधिकारी से व्यवहार के दौरान भेदभाव न बरते. अपनी बहू, देवरानी और सास को भी वही अपनापन दे. तभी वह इन सबको लेकर पुरुषों के खिलाफ मोर्चा खोल पाएगी. आज की नारियों में एकजुटता नहीं है. उनकी इसी कमजोरी का फायदा पुरुष वर्ग उठा रहा है और उठाता रहेगा. नारी चेतना, नारी जागरण, महिला आरक्षण आदि नारे उसे कही नहीं ले जाएँगे. ये सब वायवीय और मायावी नारे हैं, जो हवा में उछलते रहते हैं.
समाज को सुधारने की पहल नारी स्वयं से करे. अच्छी पत्नी, अच्छी माँ, अच्छी सास, अच्छी डॉक्टर, अच्छी वकील, जज, अच्छी दाई बनकर दिखाए. फिर कल्पना करे कि नारी वर्ग उनका सहयोग करे. मंजाल है कि कोई पीछे हट जाए, इसके लिए पहले स्वयं को जागरुक बनाना होगा. तभी वह इतिहास रचने और दिशा देने के मार्ग को प्रशस्त कर सकती है.
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आपने सच ही कहा है । परंतु एक सच यह भी है कि ये सब वह नही करती क्यूं कि हमारे समाज के पुरुष उसके रास्ते में रुकावट हैं । वह सुरक्षा चाहती है यह भी सही है । वह vulnerable भी है
जवाब देंहटाएंकाबर आफत करत हस डाक्टर साहेब, भउजी ह गुसिया जही । हा हा हा
जवाब देंहटाएंबने लिखे मोर मरद मनखे के पीरा ये येहा अउ सोरा आना सहीं बात ।
आपकी टिप्पणियों के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद.
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