बुधवार, 12 मार्च 2008

मानव क्लोन : विलक्षणता के खतरे


प्रमोद भार्गव
हाल ही में कैलीफोर्निया से क्लोन पद्धति के जरिए 5 इंसानी भ्रूण तैयार करने की खबर आई है। हालांकि इस खबर पर इसलिए आश्चर्य करने की जरूरत नहीं है क्योंकि इसके पूर्व फरवरी 1997 में डॉली नामक भेड़ का क्लोन और 2003 में गाय, भैंस, खच्चर, चूहे और मुर्गों के क्लोन तैयार कर दिए गए हैं। फिर भी मानवतावादियों के दबाव के चलते अमेरिका ने दावा किया है कि इन भ्रूणों को नष्ट कर दिया गया है बावजूद इसके यह आशंका तो बनी हुई है कि कालांतर में मनुष्य का हमशक्ल क्लोन अस्तित्व में आकर मानव सभ्यता के लिए दुरूपयोग का एक बड़ा कारण बन सकता है। यही नहीं यदि ऐसा संभव हो जाता है तो मानव जाति की प्रकृतिजन्य विविधता और विलक्षण्ता भी खत्म हो जाएगी और क्लोन पूंजीपतियों का एक हथियार भर बनकर रह जाएगा।
क्लोनिंग के जरिए मनुष्य का निर्माण करने की कोशिश पूरी मानव जाति की स्वाभाविक विलक्षणता खत्म कर देने की एक क्रूर साजिश है। हालांकि अमेरिका ने मानव क्लोन तैयार करने की कार्रवाईयों को जघन्य अपराध घोषित कर दिया है और दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने परस्पर इसकी नैतिकता और औचित्य पर सवाल उठाते हुए एक बहस ही छेड़ दी है, लेकिन इसके बावजूद इटली, ब्रिटेन और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने 2001 में ही समुद्र में डेरा डालकर मानव क्लोन तैयार करने पर आमादा हो गए थे। उन्हें उम्मीद थी कि सन 2005 तक पृथ्वी पर वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित पहला मनुष्य अवतरित हो जाएगा। 2005 में तो नहीं लेकिन अब 2007 के अंत में वैज्ञानिकों ने यह करिश्मा कर दिखाया। इस मनुष्य की विडम्बना या कमजोरी यह होगी कि उसकी शक्ल हुबहू उस व्यक्ति जैसी होगी, जिसका वह क्लोन होगा। उसकी शारीरिक विलक्षणता खत्म हो जाएगी और सबसे बड़ी चिंताजनक बात यह है कि उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होगी और इस कारण वह संभवत: ज्यादा नहीं जी सकेगा।
शायद इसीलिए क्लोन पद्धति से डॉली नाम की भेड़ तैयार करने वाले पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक डॉ. इयान विल्मट को एक बयान जारी कर कहना पड़ा था कि जानवरों को तैयार करने वाली क्लोन तकनीक से मनुष्य तैयार किया गया तो इसके खतरनाक परिणाम सामने आएंगे। क्लोन से मानव तैयार करने के लिए कई अमानुषिक प्रयास करने होंगे, क्योंकि भेड़ को ही तैयार करने में उन्हें 270 प्रयास करने पड़े थे।
कुछ इसी प्रकार का बयान मैसाचुसेट्स इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नोलॉजी के प्रमुख वैज्ञानिक रूडोल्फ जोनिश का है: 'क्लोन से तैयार भेड़, गाय, सुअर बटेर और चूहों की जीवित रहने की दर सिर्फ एक से पांच फीसदी है। ऐसे जीवों में अनेक दोष होते हैं, जिससे ये लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाते। प्राकृतिक रूप से संतानोत्पत्ति में जेनेटिक मेटीरियल का विलक्षण व स्वाभाविक संयोग होता है, इसलिए एक ही मां-बाप की संतानें गुण-दोष में एकदम अलग होती हैं। सामान्य जीवों में रोग प्रतिरोधक क्षमता भी जबरदस्त होती है।'
प्रकृति के नियमानुसार कोख में मानव शिशु शुक्राणु और डिंब के संयोग से आकार ग्रहण करता है। इन दोनों में नये जीवन का संचार करने के लिए जरूरी गुणसूत्र (क्रोमोजोम) आधी-आधी, अर्थात 23-23 की संख्या में होते हैं। ये परस्पर मिलकर एक पूरी संख्या 46 बनाते हैं और कोशिका का निर्माण करते हैं, जिसमें माता-पिता दोनों के आनुवांशिक गुण आते हैं। गुणसूत्रों को बनाने वाला महारसायन ही डी.एन.ए. कहलाता है। लाखों वर्षों से पीढ़ियों में चली आ रही इस विरासत को लेकर जो नई संतान पैदा होती है, उसमें माता-पिता से कुछ गुण भिन्न होते हैं, शक्ल भिन्न होती है, व्यक्तित्व भिन्न होता है और वह कुछ मौलिक ढंग से सोचती और करती है। वह अपने जन्मदाताओं की नकल भर नहीं होती। वह अपने अनगिनत पुरखों से कुछ-कुछ लेकर बनी एक अभूतपूर्व सृष्टि होती है। यही कारण है कि मानव जाति निरंतर विकासमान व गतिशील बनी हुई है।
प्रजनन की दूसरी तकनीक है, 'गुणसूत्र अंतरण'। भेड़ों, बंदरों, चूहा और गायों के क्लोन इसी तकनीक से तैयार किए गए हैं। शुक्राणु और डिंब के अलावा शरीर की प्रत्येक कोशिका में गुणसूत्रों के पूरे-पूरे सैट मौजूद होते हैं। ये हुबहू वैसे ही होते हैं, जैसा कभी उस व्यक्ति का भ्रूण रूप था। इस तरह से शरीर की प्रत्येक कोशिका में संपूर्ण मानव पैदा करने की सामग्री रहती है, मगर सभी कोशिकाओं की प्रजनन शक्ति को जैविक क्रियायें बेअसर बना देती हैं। इन्हें केवल अपना विशिष्ट अथवा निर्धारित कर्तव्य ही ध्यान रहता है। शरीर का हर अवयव इसी तरह अपने विशिष्ट कार्य में संलग़ रहता है।
गुणसूत्र अंतरण तकनीक के अंतर्गत कोई माइक्रोसर्जन या वैज्ञानिक शरीर की किसी कोशिका का केन्द्रक (न्यूक्लीयस) निकाल कर उसे बिना कोई हानि पहुंचाए उस डिंब में डाल देता है जिसका अपना केन्द्र या तो निकाल दिया गया हो या उसे निष्क्रिय बना दिया गया हो। यह इकाई कुछ समय पश्चात भ्रूण की तरह विभाजित होने लगती है और एक नये जीव को जन्म देती है। इस तरह से सृजित जीव कोशिकादाता की हुबहू कार्बन कॉपी होता है। इस तकनीक से नर व मादा दोनों की ही कार्बन कॉपियां तैयार की जा सकती हैं। इसी तरह से मानव क्लोन तैयार करने के दावे अरसे से किए जा रहे हैं।
ऐसा ही एक दावा 1979 में अमेरिका में छपी पुस्तक 'इन हिज इमेज द क्लोनिंग ऑफ ए मैन' में किया गया था। इस पुस्तक के लेखक विज्ञान पत्रकार डेविड एम रोरविक थे। इस किताब में दावा किया गया था कि अमेरिका में एक ऐसे बच्चे का जन्म हो चुका है जो अपने करोड़पति पिता की कोशिका से क्लोनिंग तकनीक द्वारा पैदा हुआ है। दरअसल यह करोड़पति व्यक्ति चाहता था कि उसकी संपत्ति की वारिस कोई सामान्य संतान न होकर ऐसी संतान हो जो ठीक उसी की प्रतिकृति हो। शक्ल सूरत में, अक्ल में और आचार व व्यवहार में भी। संतान का अपना कोई मौलिक व्यक्तित्व ही न हो।
पुस्तक के मुताबिक कैलिफोर्निया के एक अस्पताल में क्लोनिंग तकनीक से करोड़पति पिता का हमशक्ल पैदा करने की क्रिया को अंजाम दिया गया। इस भ्रूण को धारण करने के लिए 17 साल की एक अनाथ लड़की का चयन किया गया। लड़की इसलिए चुनी गई थी कि वह कालांतर में बच्चे पर अपना दावा न कर सके।
चूंकि इस पुस्तक में किसी भी पात्र की वास्तविकता जाहिर नहीं की गई थी, इसलिए इसके प्रकाशित होते ही अमेरिका के वैज्ञानिकों ने हंगामा खड़ा कर दिया और सरकार से मांग की कि यदि इस तरह का कोई अनुसंधान हुआ है तो उसकी रपट प्रकाशित की जाए और संबंधित लोगों के नाम उजागर किए जाएं। अमेरिकी सरकार कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पाई, क्योंकि कोई तथ्यात्मक सच्चाई थी ही नहीं। यदि सच्चाई होती तो यह लड़का आज 29-30 साल का होता और यह भी सत्यापित हो चुका होता कि प्रकृति को चुनौती देकर पैदा किए गए इस मानव में अपने करोड़पति पिता की कितनी मानसिक व अनुवांशिक विरासत मौजूद हैं।
कालांतर में यदि क्लोनिंग तकनीक पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है तो शिशु तैयार करने के लिए नर की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। मादा के गर्भाशय की जरूरत भी मात्र क्लोन भ्रूण को विकसित कर पैदा करने भर के लिए रह जाएगी। यदि भविष्य में कृत्रिम गर्भाशय भी बना लिए जाते हैं तो इस तकनीक से बच्चा पैदा करने के लिए मादा की भी जरूरत खत्म हो जाएगी। ऐसे में क्लोन शिशु का उत्तरदायित्व वहन करने के लिए कौन जिम्मेदार होगा ? वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि क्लोनिंग के चलते यौन प्रजनन का प्राकृतिक तरीका छोड़ देना पृथ्वी के समस्त पर्यावरण और सामाजिक संरचना के लिए घातक होगा।
क्लोनिंग से ही जुड़ा एक मुद्दा मूल कोशिकाओं या स्टैम सैल को लेकर छिड़े विवाद का है। इन कोशिकाओं की विशेषता यह है कि इनके जरिए शरीर के किसी भी अंग के ऊतकों का विकास किया जा सकता है। ये कोशिकायें भ्रूण में पाई जाती हैं, इसलिए इनका इस्तेमाल करने के लिए भारी तादाद में भ्रूण पैदा और नष्ट करने होंगे। अमेरिका में भारी विरोध के बाद इस तरह के प्रयोगों पर रोक लगा दी गई है, लेकिन दूसरे देशों में यह मामला अभी तूल पकड़ ही रहा है। भ्रूण को हम जीवित प्राणी मानें न मानें, यह सवाल तो कायम है ही कि अगर ऊतकों के निर्माण के लिए क्लोनिंग से भ्रूण पैदा होने लगे तो उन भ्रूणों को इंसान में बदलने के सिलसिले को कैसे रोका जा सकेगा ?
यह तर्क दिया जा सकता है कि क्लोनिंग मानव जाति के लिए भले ही अजनबी हो, इसे पूरी तरह प्राकृतिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अमीबा कुछ इसी तरीके से अपनी कोशिकाओं का विभाजन करता रहता है। लेकिन यह तर्क उचित नहीं है। हमें सिर्फ प्रक्रिया ही नहीं, उसके नतीजों पर भी ध्यान देता होगा। क्लोनिंग के जरिए पैदा हुए इंसान अगर विकलांग और अक्षम निकले तो उनकी दशा के लिए जिम्मेदार कौन होगा ? और फिर किसी को सिर्फ इस अहंकार के चलते मानव जीवन से खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जा सकती कि उसकी संतान उस जैसी दिखे ? आखिर शारीरिक समानता का मतलब मानसिक एकरूपता तो नहीं है।
प्रमोद भार्गव

1 टिप्पणी:

  1. चिंतन को बाध्य करता लेख... कभी कभी डर लगता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ कहीं भविष्य में मँहगी न पड़े.

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