शनिवार, 15 मार्च 2008
यह है भोपाल !!
यह है भोपाल !!
हर शहर की अपनी एक तासीर होती है, वह शहर उसी में रचा-बसा होता है। लोग इसे अपनी तरह से जीते हैं और इस पर गर्व करते हैं। हर किसी को अपने शहर के बारे में बोलने का हक है। हर कोई इसे अपने नजरिए से देखता है। भोपाल सबसे अधिक गैस त्रासदी के लिए चर्चित रहा, पर इसके अलावा भी भोपाल की कई विशेषताएँ हैं, जिसे साहित्यकार बटुक चतुर्वेदी ने अपनी नजर से देखा, तो लिखा 'ये है भोपाल' तो आइए आप भी भोपाल के ताल में आकर डुबकी लगाएँ और बन जाएँ पक्के बन्ने खाँ भोपाली।
डॉ. महेश परिमल
यह है भोपाल !!
दिल फेंक दिन और नचनिया सी रात,
प्रोढ़ा सी साँझे और नवेली सी प्रात।
बदलती हवा रोज कितनों की चाल,
पानी की मत पूछो जाने-बवाल।
चढने को घाटी उतरने को ढाल,
हैं शर्मदारों को झीलें और ताल।
बंगले और कारें दिखाते कमाल,
धोती को फाड़े करें यह रुमाल।
ग्राहक है कम लेकिन यादा दलाल,
ऑंखों में होता हजम सारा माल।
हर आदमी खींचे बालों की खाल,
यह है भोपाल !!
हमको पहाड़ों ने सब ओर घेरा,
नागों के मध्य में जैसे सपेरा।
कुछ तो इन्हें देखकर काँपते हैं,
हम जैसे चढ़ते हुए हाँफते हैं।
शमला, ईदगाह विंध्य की बहनें,
महल, अटारी हैं जिनके गहने।
सतपुड़िया इनसे करें छेड़खानी,
मनुआ ने इन पर गुलेलें हैं तानी।
सुनते हैं रातों को होती मस्ती,
बस जाती इन पर तारों की बस्ती।
चकरा मत देख इसका जलाल,
यह है भोपाल !!
बेहद निराले यहाँ के हैं जामें,
झंगा है कुर्ते बंडे पाजामे।
वर्षों से जिसको मयस्सर न पानी,
कसी है बदन पर वही शेरवानी।
टेढ़ी है टोपी रुऑंदार काली,
ऑंखों में सुरमा, दाँतों में लाली।
कपड़ों के ऊपर पीकों के छींटे,
जर्दा ठुंसा जिससे बोली न हीटे।
दो टांग वालों की देखो जुगाली,
चाटे जो चूना पक्का भोपाली।
मरियल है ढाँचा अकड़ की है चाल,
यह है भोपाल !!
सबसे निराली यहाँ की है बोली,
कानों में जैसे मिसरी सी घोली।
कों खाँ पन्डाी कां जारीये हो,
सैनुमा से ई चले आरीये हो?
कों सेठजी कों जुलुम ढारीये हो,
फोकट का नइये जो खारीये हो।
कों वे ओ लड़के नईं सुनरीया है,
खामोखाँ कों टें टें कर रीया है।
देना खाँ बन्ने मियां चाय देना,
जर्दे के दो पान भी बाँध देना।
डरती है बोली से तलवार ढाल,
यह है भोपाल !!
किसी को है साई किसी को बधाई,
किसी की है ढोलक किसी ने बजाई।
बूढ़े ने दुकान यों ही सजाई,
सोलह बरस की ने कर ली सगाई।
इस पर पडाैसी ने फितरत दिखायी,
पिंजरे के संग-संग मैना भी उड़ायी।
छिड़ी सोमवारे में मुर्गा लड़ाई,
भड़भूँजा घाटी में कुतिया बियाई।
बेपर की लोगों ने ऐसी उड़ाई,
मोहल्ले मोहल्ले खुद गई खाई।
भरी राजधानी में होता धमाल,
यह है भोपाल !!
चौड़ी हैं गलियाँ मगर सड़कें तंग,
हर एक मोहल्ला दिखाता है रंग।
इतवारी माँजा चांदबड़ी पतंग,
बुधवारे का गाँजा चौक की भंग।
इब्राहीमपुरे में नजले का संग,
गिन्नौरी ढपले तलैया की चंग।
जहाँगीरी खाट शाजानी पलंग,
फतहगढ़ी तोप रेतघाटी सुरंग।
ईदगाह की कलियाँ शमला के भृंग,
छौले के सपेरे-लखेरी भुजंग।
शहर भर सरेआम ठोके हैं ताल,
यह है भोपाल !!
नामों की महिमा है बिलकुल अपार,
बसे हाथीखाने में हैं पत्रकार।
रहते हैं अपने बिरानों के खास,
मोहल्ले का नाम घोड़ा नक्कास।
प्रोफेसर कालोनी प्रोफेसर विहीन,
है गुलशन आलम मगर गम में लीन।
परी है ना बाजार फिर भी प्रसिध्द,
कमला पार्क में पड़े रहते गिध्द।
गलियाँ ही गलियाँ पर कहाता चौक,
काजीपुरा को है भजनों का शौक।
एक को पुकारो तो सौ बाबूलाल,
यह है भोपाल !!
जिधर देखिए हैं शायर ही शायर,
कुछ हैं छुपे तो कुछ हैं उजागर।
परेशान से जो मिलें यह सड़क पर,
समझिए कि आए हैं घर से भड़क कर।
पटियों पर बैठे करेंगे जुगाली,
शेरों की भरकर रखते दुनाली।
रोते हैं बच्चे कुढ़ती है बीवी,
मंजिल है इनकी मुशायरा टी.वी.।
शायरी पानी है शायरी भोजन,
शायरी इनका ओढ़न बिछावन।
नहीं इनका कोई पुरसाने हाल,
यह है भोपाल !!
सड़कों पर बैठे मवेशी मिलेंगे,
स्वदेशी मिलेंगे विदेशी मिलेंगे।
चोरी पकड़ने के कुत्ते मिलेंगे,
झाँसे मिलेंगे जी बुत्ते मिलेंगे।
गदहे मिलेंगे और भैंसे मिलेंगे,
पड़े या खड़े ऐसे वैसे मिलेंगे।
कुछ के गले बांधे पट्टे मिलेंगे,
उल्लूओं के पाले पट्ठे मिलेंगे।
फसली सियारों के बच्चे मिलेंगे,
असली झूठे या सच्चे मिलेंगे।
सड़कों पर बिकते मिल जाते खयाल,
यह है भोपाल !!
कथाकार कवि व्यंग्य लेखक धुरंधर,
आलोचक पाठक मंचीय कलंदर।
भीतर-बाहर से श्यामल या सुंदर,
सब है यहाँ राजधानी के अंदर।
कुछ है मुकद्दर के ऐसे सिकन्दर,
लिखते नहीं पर हैं दिखते निरंतर।
कुछ हैं महल और कुछ ध्वस्त खंडहर,
कुछ हैं समीरन तो कुछ हैं बवंडर।
कुछ हैं करेले तो कुछ हैं चुकन्दर,
कोई है साक्षात् माया-मछन्दर।
पुरस्कार पाने को फैलाए जाल,
यह है भोपाल !!
नाटक मिलेंगे जी बैले मिलेंगे,
बेवक्त होते झमेले मिलेंगे।
कला के तबेली-तबेले मिलेंगे,
बलाओं के नहले-दहले मिलेंगे।
जिससे न मिलना हो पहले मिलेंगे,
जिसको सिकुड़ना था फैले मिलेंगे।
सड़क घेरे अनगिन ठेले मिलेंगे,
मनुष्य के रूप में थैले मिलेंगे।
मटका सुराही औ धैले मिलेंगे,
गुरुओं को लुटते चेले मिलेंगे।
सही सोच वालों का बेहद अकाल,
यह है भोपाल !!
पहले यहाँ पर थीं अनगिन तलैयें,
जिनको पचा गये गधे या बिलैयें।
उगते थे जिनमें जमकर सिंघाड़े,
उग आए उनमें लोगों के बाड़े।
जो कुछ बची वे भी कुम्हला रही हैं,
मनुष्यों की ऑंखें उन्हें खा रही हैं।
छोटा ताल मैल हम सबका धोता,
उस पर भी अब खेल दिन रात होता।
बड़ा ताल अब भी बचाए है इजत,
मेरीन ड_्राईव की देता है लजत।
मरने वालों का यहाँ रखते ख्याल,
यह है भोपाल !!
कानों में घुँघरू बजाते वे ताँगे,
फिल्माई धुन गुनगुनाते वे ताँगे।
आदाब कर सिर झुकाते वे ताँगे,
जैराम कहते कहाते वे ताँगे।
परी से सजते सजाते वे ताँगे,
घंटी दिलों में बजाते वे ताँगे।
कहो तो अचानक कहाँ खो गए हैं,
हम उनसे महरूम क्यों हो गए हैं?
अब कौन हमको सुनाएगा किस्से,
देगा हमें कौन अब भोले घिस्से?
आदमी भी चलने लगा अब रवाल,
यह है भोपाल !!
जुम्मे से यादा जुमेरात प्यारी,
बारों से यादा चलती कल्हारी।
सैकड़ों होटल और सैकड़ों लॉज,
कोढ़ के ऊपर ही होती है खाज।
जायज नाजायज भट्टी के धँधे,
चुप बैठे देखें ऑंखों के ऍंधे।
तू भी हमारा है वह भी हमारा,
हमें क्या पता कौन ने हाथ मारा?
जोरदार होती है नूरा-कुश्ती,
खुली ऑंख देखिए कुनवा परस्ती।
सुबह से ही कुछ लोग होते निढाल,
यह है भोपाल !!
पानी के बम्बे बड़े रोतले हैं,
प्यासे हैं फिर भी खड़े हौसले हैं।
जब भी यह आते मरजी से आते,
मन होता रुकते, नहीं लौट जाते।
कहीं आते हैं तो जाते नहीं हैं,
जाते अगर फिर वे आते नहीं हैं।
सांपों के बच्चे कभी साथ लाते,
कभी केंचुए तक हमें हैं थमाते।
शिकायत किसी से होती बेमानी,
पिला रहा अमला परिषद को पानी।
बिन पानी वाला चलता है कुचाल
यह है भोपाल !!
लुटेरों का डंका पिटता यहाँ पर,
शराफत का बेटा लुटता यहाँ पर।
सच बोलने वाला मिटता यहाँ पर,
ईमान का दम भी घुटता यहाँ पर।
जीवित का जीवन सिमटता यहाँ पर,
निरीहों पर बादल फटता यहाँ पर।
हुनरमन्द छटियल छटता यहाँ पर,
इन्साफ का कद-सा घटता यहाँ पर।
चमचों को परसाद बँटता यहाँ पर,
ऍंधेरे में सौदा पटता यहाँ पर।
झूठों के घर में है सच्चाई मिसाल,
यह है भोपाल !!
शिक्षा की घर-घर में खुलती दुकानें,
ले जाएगी किस दिशा में न जाने?
ऍंगरेजी गिटपिट सिखाती निरन्तर,
सुनकर जिसको शरमाता बटलर।
सिखाती गले में उलझाना फँदा,
जमकर उगाहती फीस और चँदा।
हिंदी को लंगड़ा बनाने में माहिर,
किस्से कहानी, सभी को हैं जाहिर।
किसको है चिन्ता संस्कृति बचाए,
गुलामी के सारे धब्बे मिटाए।
गटरों में गिरते हैं नित नौनिहाल,
यह है भोपाल !!
जिधर भी देखिए हैं खड़े गैस पीड़ित,
कुछ अधमरे से तो कुछ मात्र जीवित।
करोड़ों की रकमें ले जा चुके हैं,
लाखों के दावे फिर आ चुके हैं।
आबादी से भी अधिक गैस पीड़ित,
भगवान जाने क्या है हकीकत।
लाखों की अरजी में कितने हैं फरजी,
नहीं जान पाते सरकारी तरजी।
खबरों दलाली की सब पढ़ रहे हैं,
इल्जाम हम तुम पर मढ़ रहे हैं।
कुछ लोग बस हो गए मालामाल,
यह है भोपाल !!
ढेरो मिलेंगे जी हाली-मवाली,
चमचे मिलेंगे और लोटे थाली।
असली मिलेंगे जी या लोग जाली,
बगिया को खा जाने वाले माली।
टोपी मिलेंगी तो लेती उछाली,
पहुंँच वाले टोपे खोमो-खयाली।
बीमारियाँ मुफ्त नाजों की पाली,
खालिस ही मिलती यहाँ पर दलाली।
जो काम करने न पाए दोनाली,
वह करदे अपनी भोपाली गाली।
जेबों में मिलते यहाँ इन्दरजाल,
यह है भोपाल !!
आटो दिखा सकते डिस्को या ब्रेक,
किसको पड़ी है जो करवाए चैक।
आते हैं इनकी सेवा में गरजी,
जावें ना जावें सब इनकी मरजी।
अक्सर सवारी को करतब दिखाते,
हर नए पखेरू को जमकर घुमाते।
किस्से कहानी छपा करते इनके,
पढ़ पढ़ कर स_जन रहते हैं पिनके।
पुलिस वाला जैसे इनका सखा है,
कहने को बाकी अब क्या रखा है।
दस पाँच रुपयों का कैसा मलाल,
यह है भोपाल !!
नई बस्तियाँ सब यहाँ नम्बरी है,
मरुस्थल की बाँहों में कादम्बरी है।
सफल खेल चलता यहाँ नम्बरों का,
चढ़ता है नित भाव ऊँचे वरों का।
बिना नम्बरों के भटकते यहाँ हैं,
पैंडूलमों से लटकते यहाँ हैं।
नम्बर सही है तो सब कुछ सही हैं,
नहीं तो मुकद्दर सड़ा-सा दही हैं।
बिना नम्बरों के खाते हैं धक्के,
फिरते लुढ़कते हुए हक्के-बक्के।
हर नम्बरी की होती टेढ़ी चाल,
यह है भोपाल !!
नई बस्तियों के पहनावे न्यारे,
सूट-बूट, टाई यहाँ शान मारें।
लड़के-लड़कियों में जींस औ पट्टा,
अभी भी पापुलर है सलवार दुपट्टा।
ऊँची से ऊँची सिलकन की साड़ी,
झुग्गी से लेकर महलों को प्यारी।
बुर्के इधर अब तो चलते नहीं हैं,
महकों से गुलशन किलकते यहीं हैं।
एक्शन जूतों का हल्ला ही हल्ला,
चप्पल औ सैंडल हैं माशा अल्ला।
जेबों को फैशन देती है खंगाल,
यह है भोपाल !!
नई बस्तियों के साहब और बाबू,
चपरासियों तक पर जिनका न काबू।
साहब से यादा मैडम की चलती,
कमरों में बासी कढ़ी भी उबलती।
ऑंखों पर मोटे पॉवर के चश्मे,
दिल भरके लौंडे दिखाते करिश्मे।
रोके नहीं रुकती छुट्टा मवेशी,
चर जाती बगिया होती ना पेशी।
बेहद सफाई से पटते हैं सौदे,
मिलते पियक्कड़जी सड़कों पर औंधे।
पैसा और पॉवर की बेढंग चाल,
यह है भोपाल !!
वल्लभ भवन की हैं चालें निराली,
टेबल भरी किंतु कुर्सी है खाली।
मरजी पर इसकी कमिश्नर कलेक्टर,
जिसकी भी चाहें खिंचवा दे पिक्चर।
बजती ही रहती है फोनों की घंटी,
अच्छे-अच्छों की फँस जाती अंटी।
चारों तरफ देता सर-सर सुनाई,
फाइलें करती हैं दिन भर धुनाई।
चपरासी, बाबू, ऑफिसर, मिनिस्टर,
सबको देता है चक्कर पर चक्कर।
पता क्या किसे कब यह करदे हलाल,
यह है भोपाल !!
जिधर देखिए हैं कुर्सी ही कुर्सी,
ऊपर भी कुर्सी नीचे भी कुर्सी।
आजू में कुर्सी बाजू में कुर्सी,
बांटो में और तराजू में कुर्सी।
कुर्सी के ऊपर दिखती है कुर्सी,
भीतर औ बाहर बिकती है कुर्सी।
इजत है कुर्सी आदर है कुर्सी,
किसी की मदर या फादर है कुर्सी।
कुर्सी दिलाती सलामें है फर्शी,
कुर्सी की खुशबू महकती इतर-सी।
कभी कुर्सी होती जी का जंजाल,
यह है भोपाल !!
जिधर देखिए बस निगम ही निगम है,
जेबों में सब कायदे और नियम है।
कुछ को पता ही नहीं क्यों बने हैं,
तम्बू जमूरों के फिर भी तने हैं।
कुछ के दिवाले ही हिटे हुए हैं,
कुछ लोग इनको चीटे हुए हैं।
साहब की गाड़ी फाइल के घोड़े,
मन्सूबे बाँधे लम्बे और चौड़े।
बस दौड़ते ही रहते हैं निशदिन,
दौरे और भत्ते बनाते टनाटन।
ऊपर से लाल बत्तियों का जमाल,
यह है भोपाल !!
दो तीन और चार पहियों के वाहन,
जिधर देखिए दौड़ते हैं दनादन।
भोंपू बजा या गूँजाते अलगोंजे,
भागे चले आते लादकर बोझे।
कभी कोई करता मिलता है भंगड़ा,
कभी कोई मिलता सरे राह लंगड़ा।
कुछ तो पसर जाते हैं बीच रस्ते,
कुछ दौड़ते बस पाने को भत्ते।
कुछ से शनि राहु ही रूठे हुए हैं,
कुछ काले धंधों में डूबे हुए हैं।
किसको पता अब कितना पोलम्पाल,
यह है भोपाल !!
यहाँ गुल खिलाती वहाँ गुल खिलाती,
यहाँ झुग्गियों की फसल लहलहाती।
यही तो मिठाई औ तुरसी दिलाती,
यही तो गद्दियाँ और कुर्सी दिलाती।
झुग्गी बनाती है झुग्गी मिटाती,
झुग्गी बहुत सारे सौदे पटाती।
झुग्गी यहाँ खूब चन्दे दिलाती,
जल्सा जुलूसों को बन्दे दिलाती।
अंधे धंधे और फँदे दिलाती,
सस्ते से सस्ते परिंदे दिलाती।
बनवाओ झुग्गी बनो मालामाल,
यह है भोपाल !!
जब से यहाँ आ गया है ये टीवी,
पागल से हो गए हैं बच्चे बीवी।
दिन भर इससे ही चिपके हुए हैं,
बिसरा के सब कुछ इसी के हुए हैं।
लालायित कई इसमें मुखड़ा दिखाने,
हैं व्यग्र कुछ अपनी किस्मत खुलाने।
लीलाएँ अद्भुत होती है इसमें,
अक्लें और शक्लें बिकती है इसमें।
कुछ इसको कहते हैं बुद्धू बक्सा,
संस्कृति का इसने पोता है नक्शा।
करता रहता पैदा नई नित खुजाल,
यह है भोपाल !!
खेलों में भी है शहर यह मशहूर,
बूढ़े बच्चे जवान सब इसमें चूर।
साहित्यकारों को पि्रय है कबड्डी,
खींचे हैं टाँगे चटके है हड्डी।
राजनीतिज्ञों का प्यारा है खो-खो,
जिसमें दिखाते हैं करतब अनेकों।
हर कोई खो देने तत्पर खड़ा है,
आसंदियों को खतरा बड़ा है।
कल्चर में हॉकी यहाँ पर घुसी है,
नहीं चाहिए था वहाँ पर ठुँसी है।
किरकिट का हर क्षेत्र में फैला जाल,
यह है भोपाल !!
जिधर देखिए बस खुला है अखाड़ा,
ढाबों का बजता यहाँ पर नगाड़ा।
कला का अखाड़ा-बला का अखाड़ा,
अदब के ढला औ चला का अखाड़ा।
दलों का अखाड़ा-बलों का अखाड़ा,
मच्छरों और खटमलों का अखाड़ा।
लुटों का अखाड़ा-पिटों का अखाड़ा,
गोटों की माफिक फिटों का अखाड़ा।
इसका अखाड़ा या उसका अखाड़ा,
करता ही रहता है सबका कबाड़ा।
उस्ताद रखते हैं पट्ठों का खयाल,
यह है भोपाल !!
रोगी से यादा दिखे हैं चिकित्सक,
फीसों को रहते जो यादा उत्सुक।
देते हैं नरसिंग-होमों को सेवा,
सेवा के बदले मनमानी मेवा।
नामी चिकित्सक के सैंकड़ो नखरे,
संभव है मौके पर आके पसरे।
कुछ रोगियों को है लगती शनीचर,
हो जाते आकर यहाँ वे फटीचर।
अब तो सिफारिश भी देती न काम,
फटी जेब वालों का रक्षक है राम।
रुकने पर पे्रक्टिस होता है बवाल,
यह है भोपाल !!
समाचार पत्रों का मेला लगा है,
लेकिन ना खबरों का कोई सगा है।
हर सूत्र अपने रंगों में रँगा है,
हमारे तुम्हारे काँधे टँगा है।
एड्सों के रस में जो भी पगा है,
पतंग सा वह ही अधर में थिगा है।
कहीं कोई सोया तो कोई जगा है,
बारहों महीने यहाँ रत-जगा है।
सत्ता-सुराही से जो जा लगा है,
लगता है उसका मुकद्दर जगा है।
कलम का है जौहर, कलम का धमाल,
यह है भोपाल !!
खाना औ पीना लेना औ देना,
चलता निरंतर दिन हो या रैना।
भूखे-प्यासों को मिलती न चैना,
बेकार तरसे हैं खाने चबैना।
उठाईगीरों को रबड़ी या छैना,
मेहनतकशों को बस भूखा रहना।
पिंजरों में बेबस पड़ी बंद मैना,
मिट्ठू जी बोलें रटवायें बैना।
चिड़ियों के घर में बाजों का रहना,
वाह रे भोपाल तेरा क्या कहना।
मुर्दो की भी लोग खींचे है खाल,
यह है भोपाल !!
बैठे चौराहे-चौराहे पुतले,
होते हमें देख बेचारे दुबले।
कभी देखकर ये भोपाली हरकत,
होते हैं आतुर सिखाते शराफत।
इात किसी बहन-बेटी की लुटती,
भीतर ही भीतर दम इनकी घुटती।
लखकर लुटेरे उबलते हैं अक्सर,
ऑंसू बहाते विवशता में फँसकर।
सच्चाई ईमान सबका सफाया,
यही सब दिखाने यहाँ था बिठाया?
शहीदों की आत्मा लेती उबाल,
यह है भोपाल !!
भोपाली गुण हम कहाँ तक बखाने,
सुंदर बनाने की कायम दुकानें।
फिरते हैं चेहरे चढ़ाकर मुलम्मा,
युवती सी लगती बच्चों की अम्मा।
फैशन ही फैशन न दाना न पानी,
पतंग की जगह सिर्फ ठड्डा कमानी।
बूढ़ों की गलती, गलती पर गलती,
आग की संगत में हंडी पिघलती।
होता जवानी का हुड़दंग भारी,
कहीं पर नगद तो कहीं पर उधारी।
गंजे पा नाखून यहाँ है निहाल,
यह है भोपाल !!
चाँदी के जूते बहुत चल रहे हैं,
जमकर ऍंधेरे में गुल खिल रहे हैं।
रेतों में देखों कमल खिल रहे हैं,
किस्मत में लिक्खे मजे मिल रहे हैं।
टोपी औ जूते गले मिल रहे हैं,
मिट्टी के माधो के सिर हिल रहे हैं।
भुक्खड़ की माफिक सभी पिल रहे हैं,
जिन्दों की खातिर कफन सिल रहे हैं।
शातिर से शातिर यहाँ पल रहे हैं,
डर से शरीफों के दिल हिल रहे हैं।
कल के कंधीरे हैं अब मालामाल,
यह है भोपाल !!
जादूगर जमकर दिखाते हैं खेल,
पानी बिके बनकर मिट्टी का तेल।
मिट्टी को आटा बनाकर खिला दे,
इस्पि्रट को इंग्लिश बनाकर पिला दे।
किलो को घटा दें ये सैंकड़ों ग्राम,
दिलाए ये साँसों को पूर्ण विराम।
बाँधे किसी भी गले में ये पट्टा,
हवा न लगे और लौटा दे फट्टा।
देखते देखते खिसका दे कुर्सी,
जादू के बल पर हो मातम-पुरसी।
पड़े हैं एक से एक ऊँचे बेताल,
यह है भोपाल !!
घपले या टाले-घुटाले मिलेंगे,
अपने परायों के पाले मिलेंगे।
बिना चाबी वाले ताले मिलेंगे,
विरोधी गले हाथ डाले मिलेंगे।
सत्य की ऑंखों में जाले मिलेंगे,
खुबसूरत हीले हवाले मिलेंगे।
मन भी मिलेंगे तो काले मिलेंगे,
नगद फारमूले मसाले मिलेंगे।
गले में अटकते निवाले मिलेंगे,
अपनों से निकले दिवाले मिलेंगे।
अंगुली उठे कोई, है किसकी मजाल,
यह है भोपाल !!
नित नए धरने औ रैली यहाँ है,
अखाडाें की बालू फैली यहाँ है।
नई काम करने की शैली यहाँ है,
सिफारिश के पहले थैली यहाँ है।
माँगने को भिक्षा हथेली यहाँ है,
हवालों की पाली हवेली यहाँ है।
भूखों की मारी तवेली यहाँ है,
गुरुओं की झोली में चेली यहाँ है।
बुङ्ढों की बाजू में नवेली यहाँ है,
सच्चाई मैली कुचैली यहाँ है।
एम.ए. पी.एच-डी मिलता है हम्माल,
यह है भोपाल !!
हिल जाते पढ़कर दिल्ली औ पटना,
पत्रों में छपी जो भोपाली घटना।
चाकू तमंचों का खुलकर निपटना,
लुटेरों का जमकर चैनें झपटना।
नगर वाहनों का लीकों से हटना,
आटो का चलते चलते पलटना।
नियम कायदों का मिनटों में लुटना,
जेबों में सब मामलों का सुलटना।
जूतों में खुलकर दालों का बँटना,
नंगों के घर में माया का फटना।
जेबों में कानून बैगों में माल,
यह है भोपाल !!
खबरों से लगती जुर्मों की नगरी,
हर रोता कहता जुल्मों की नगरी।
सुनने से लगती कुकर्मों की नगरी,
नारों से है धतकर्मों की नगरी।
नंगों को है बेशर्मों की नगरी,
भजनों अजानों से धर्मों की नगरी।
लुच्चे लफंगों के कर्मों की नगरी,
आशिक मिजाजों को मर्मों की नगरी।
पीने-पिलाने को गरमों की नगरी,
असली या नकली फर्मों की नगरी।
इंसानियत का है भयानक अकाल,
यह है भोपाल !!
बड़े चुस्त दिखते यहाँ के सिपाही,
चौराहों सड़कों नगद वाह-वाही।
सब फारमूले हैं इनके अनोखे,
खाते नहीं ये किसी से भी धोखे।
हिंदी अंग्रेजी उर्दू में बोलें,
पल-पल में अपनी डायरियाँ खोलें।
मुल्ला मौलवी हो या कोइर्ण पंडा,
सहमते सभी देख हाथों में डंडा।
रहें बन्द करने सबको यह तत्पर,
नहीं खोलता मुँह कोई भी पिटकर।
खड़े करते रहते स्वयं ही बवाल,
यह है भोपाल !!
यहाँ एक भारत भवन भी है होता,
फनकार जिसमें लगाते हैं गोता।
दुनिया में होते बस इसके चर्चे,
मत पूछो इसके कितने हैं खर्चे?
कलाकार-कवि खूब आते यहाँ हैं,
मस्ती में आ डूब जाते यहाँ हैं।
दर्शक की लगती नाराजी इससे,
सड़क तक चले आए हैं इसके किस्से।
कटती यहाँ सिर्फ अपनों की चाँदी,
कलाएँ यहाँ सब विशेषों की बाँदी।
कईयों को घुसने का अब तक मलाल,
यह है भोपाल !!
जिधर देखिए है नेता ही नेता,
हर रोग की यह दवा सबको देता।
हवा तक में झंडे यह गाड़ देता,
रेती से यह तेल तक काढ़ लेता।
चप्पू बिना भी यह नैया चलाता,
लतियल मरखनी हो गैया लगाता।
फटे में सदा अपनी उलझाता टाँगे,
यह मरते दम तक करता है माँगें।
दे देकर भाषण न थकता जरा भी,
लाखों का होता नेता मरा भी।
ला सकता पल भर में नेता भूचाल,
यह है भोपाल !!
उतराते फिरते मंत्री ही मंत्री,
रक्षा में इनकी संत्री ही संत्री।
घेरे में रहते चेले या चाँटी,
चमचों को रेवड़ी बाँटी न बाँटी।
झंडी लगी कार में बैठे घूमें,
तारीफें ताली सुनसुन कर झूमें।
रखते हैं ये पीए पीएस सुलझे,
निपटाएँ क्षण में केसों को उलझे।
आश्वासन इनकी जेबों में रहते,
करते नहीं मात्र कहते ही कहते।
भूतपूर्व होकर रहते बेहाल,
यह है भोपाल !!
मिलता बैरागढ़ में हर माल थोक,
देशी विदेशी हो या बिलकुल फोक।
ठस्से से चलती माँगे की गाड़ी,
यहाँ आते दुनिया भर के कबाड़ी।
चमचम चमाचम से चौंधती ऑंखे,
ग्राहक की कुब्बत ऑंखे ही ऑंके।
लाखों के सौदे जुबानी जुबानी,
सयाने यहाँ आ माँगे है पानी।
इधर सा व्यापारी होता न दूजा,
हर देवता की होती यहाँ पूजा।
काया और माया यहाँ की विशाल,
यह है भोपाल !!
पिपलानी भरकर ऑंखों में पानी,
गोविंदपुरा से है कहती कहानी।
मत लाना मुँह पर भीतर की बातें,
खाना पड़ेंगी समर्थों की लातें।
लोगों मशीनों में घुट छन रही है,
बाहर ही बाहर रकम बन रही है।
बँगले औ कोठी तने जा रहे हैं,
कालिख में साहब सने जा रहे हैं।
धुऑं धूल बदबू प्रदूषण अटाले,
किसको पड़ी है जो रोके पनाले?
अपनों की अपने गलाते हैं दाल,
यह है भोपाल !!
चोरी और सीना जोरी यहाँ है,
मछली फँसाने की डोरी यहाँ है।
काली कलूटी या गोरी यहाँ है,
जोरी के संग बराजोरी यहाँ है।
फूटी मटकिया या कोरी यहाँ है,
छोरों के ड_्रेस में छोरी यहाँ है।
पापड़ के ऊपर कचोरी यहाँ है,
बढ़ चढ़ के बस मुफ्तखोरी यहाँ है।
ईदें मोहब्बत में बोरी यहाँ है,
रंगों गुलालों की होरी यहाँ है।
ताली फटकारों का हर ओर जाल,
यह है भोपाल !!
उधर जा रही है इधर आ रही है,
ठसाठस मिनी बस चली आ रही है।
कुछों की जरूरत भली आ रही है,
कुछों की मुसीबत टली जा रही है।
छकड़े का कोइर्_र् मजा ला रही है,
कोई सवारी को दहला रही है।
कोई टेप पर गीत सुनवा रही है,
बिछुड़े हुओं को मिलवा रही है।
टक्कर या ठूंसा लगा आ रही है,
किसी का दिया सा बुझा जा रही है।
बचना कहीं पहुँचा न दे ससुराल,
यह है भोपाल !!
डिगरियाँ लादे से पुंगे मिलेंगे,
पढ़े या अनपढ़ से लुंगे मिलेंगे।
शरीफों सरीखे लफंगे मिलेंगे,
हवा में विचरते शुतंगे मिलेंगे।
सूट और बूट में नंगे मिलेंगे,
गंजों के हाथों में कंघे मिलेंगे।
सही हाथ-पैर के पंगे मिलेेंगे,
भले आदमी संग बेढंगे मिलेंगे।
चाकू छुरियों संग मलंगे मिलेंगे,
पेशेन्ट घोड़े से चंगे मिलेंगे।
चमकती तलवार उछलती है ढाल,
यह है भोपाल !!
आशिक मिजाजी के झ्रडे गड़े हैं,
जिधर दृष्टि डालो उधर ही खड़े हैं।
कुछ गर्ल्स कालेज पर आ खड़े हैं,
कुछ गर्ल्स स्कूलों पर आ अड़े हैं।
कुछ अपने वाहन से करते पीछा,
कुछ भोगते इसका बढ़िया नतीजा।
बसों में भी यह मिल जाते अचानक,
अश्लील कसते हैं फिकरे भयानक।
सीटी बजाते या करते इशारे,
आशिक मिल जाते दफ्तर के द्वारे।
रोड रोमियो ठाढ़े करते बवाल,
यह है भोपाल !!
जिसे देखिए वह चला आ रहा है,
बुरा या कि कोई भला आ रहा है।
सड़ा या बुसा या गला आ रहा है,
लुटता या पिटता चला आ रहा है।
आशिक या फिर दिलजला आ रहा है,
सपनों या ख्यालों में ढला आ रहा है।
कभी लगता कि जलजला आ रहा है,
या फिर कोई बलबला आ रहा है।
कभी नर्म फुग्गा फूला आ रहा है,
सौदों का बस सिलसिला आ रहा है।
यहाँ आते जाते दिखाते कमाल,
यह है भोपाल !!
जिधर देखिए फैलती राजधानी,
डुबलों को बस ठेलती राजधानी।
जेल औ कफस झेलती राजधानी,
खतरों से नित खेलती राजधानी।
अपनों से ही डैलती राजधानी,
मुफत दंड से पेलती राजधानी।
बगीचों बसी छैल सी राजधानी,
वनों में गुमी गैल सी राजधानी।
कोल्हू जुते बैल सी राजधानी,
मन में बसे मैल सी राजधानी।
कितने ही आते हैं होने खुशाल,
यह है भोपाल !!
श्री बटुक चतुर्वेदी
लेबल:
कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बहुत खूब!! कुछ भी ऐसा न छोड़ा बटुक साहब ने जो भोपाल की पहचान हो!! मस्त है!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया डॉ साहब!!
अच्छा लगा ,बहुत खूब!! बधाईयाँ !
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणियों के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंSir it was reallly a tour to bhopal but why all goodness . What about the baddness of the city. Pollution is increasing Can you write two lines regarding pollution and mail to me Sir I am a research scholar and working in manit for pollution evaluation. I need to present bhopal to many people in a forien conference . Can you mail me
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