शुक्रवार, 28 मार्च 2008
चुटकी भर सिंदूर
भारती परिमल
रात आधी से अधिक गुजर चुकी थी, मगर नीलू की ऑंखाें ने नींद से रिश्ता तोड़ दिया था. वह पलंग के पास की खिड़की खोलकर काली ऍंधेरी रात में तारों की चमक देख रही थी और सोच रही थी इस काली रात से कहीं अधिक काली इस जीवन की रात है, जिसकी कोई सुबह नहीं. उसका एकाकी जीवन यूं ही बीत जाएगा. पलों का काफिला चला और बरसों में बदल गया और इन बरसों में सब कुछ बदल गया. उसकी हँसी, चंचलता, अल्हड़ता ... सब कुछ इस अकेलेपन की भेंट चढ़ गया.
नया शहर, नए लोग, नया संघर्ष और नई शुरुआत... और इन सभी के बीच एक अकेली पुरानी वह? कैसे जीए और किसके लिए जीए? लेकिन जीना तो होगा ही. खुद के लिए, खुद की यादों के लिए और खुद के सपनों के लिए. उस मासूम के लिए, जो उसके बगल में लेटा हुआ है. यह निर्दोष चेहरा उसकी यादों की एकमात्र धरोहर है. इस धरोहर के लिए तो उसे जीना ही होगा. हाँ, कैसे जीए यह एक अहम प्रश्न है.
यह प्रश्न आकाश के जाने के बाद से ही उसे मथता रहा है. आकाश का यूं एकाएक इस दुनिया से चले जाना, सात फेरों के समय सात जन्मों का साथ निभाने का वचन देने के बाद भी केवल चार साल में ही उसे संघर्ष के पथ पर अकेला छोड़ कर चले जाना और सहारे के रूप में भी इस मासूम का साथ, जो कि स्वयं सहारे को तरसता है. यह सब कुछ उसने ईश्वर की मर्जी समझ कर स्वीकार कर लिया. आकाश न सही, आकाश की याद ही सही, उसकी निशानी के रूप में नन्हा कुंतल तो है. वह इसी के साथ अपनी ंजिदगी गुजार देगी. जो सपने उसने और आकाश ने मिल कर देखे थे. कुंतल के लिए, उन्हीं सपनों को अब वह अकेले ही पूरा करेगी.
जहाँ सपने होते हैं, वहाँ साहस होता है और साहस के साथ येन-केन प्रकारेण ऐसी परिस्थितियाँ बनती हैं, जो मददरूप होती है. नीलू के साथ भी ऐसा ही हुआ. जीविका चलाने के लिए पैसों की उसे कमी न थी, बैंक बैलेंस, आकाश का प्रोविडेंट फंड सब कुछ था, किंतु बैठे बिठाए तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है, फिर यह तो मात्र एक-दो लाख का ही खेल था. यह तो खत्म हो ही जाएगा. इस दूरदर्शिता के साथ उसने नौकरी करने का विचार किया और घरवालों का प्रोत्साहन पाकर बैंक की परीक्षा का फार्म भरा.
नीलू के तेज दिमाग और कुछ कर दिखाने की चाहत ने उसे सफलता दिलाई और बैंक की सर्विस पाकर वह कुंतल के भविष्य को लेकर थोड़ी निश्चित हो गई. लेकिन यह निश्चिंतता कुछ महीने बाद ही उसे खलने लगी. ऑफिस में सह कर्मचारियों का उसके प्रति व्यवहार फूल पर मंडराते भौंरे की तरह था. यहाँ तक कि बॉस की निगाहें भी काम के समय उसकी देह पर टिकी होती थी. वह उनके कटाक्ष, उनकी निगाहें सभी कुछ जानते-समझते हुए भी चुपचाप अपने काम से काम रखती थी. क्योंकि वह जानती थी कि यदि घरवालों से वह इस विषय पर कुछ कहेगी तो वे उसका नौकरी करना बंद करवा देंगे और कहेंगे कि सब कुछ छोड़कर हमारे पास गाँव आ जाओ. वह कुंतल को शहरी माहौल में ही बड़ा करना चाहती थी. कुंतल केवल उसका ही नहीं आकाश का भी सपना था. फिर भला वह उसे कूपमंडूक कैसे बनाती? बस इसीलिए वह सहकर्मचारियों के अभद्र व्यवहार को भी नजरअंदाज करते हुए सर्विस किए जा रही थी.
नन्हा कुंतल अब क्लास वन में पहुँच गया था. इसी बीच उसका ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. बैंक के माहौल से व्यथित नीलू ने ट्रांसफर ऑर्डर पाते ही राहत की साँस ली. वह खुद इस माहौल से ऊब गई थी और बदलाव चाहती थी. आर्डर पाते ही उसने एक हफ्ते की छुट्टी ली और दूसरे शहर जाने की तैयारी में जुट गई. कुंतल भी नए शहर में जाने के नाम से चहक उठा. सब कुछ सहेजते समेटते एक हफ्ता बीत गया और वो कुंतल के साथ एक नए संघर्ष के लिए नए शहर में आ गई.
इसी नए शहर की यह पहली रात उसकी नींद ले भागी थी. तारों की अठखेलियों के बीच वह पूरे सात साल का सफर तय कर चुकी थी. इस बीच कुंतल ने करवट बदली, तो नीलू ने देखा कि उसका माथा पसीने से भीग गया है. उसने पंखे की स्पीड तेज की और सोने का प्रयास करने लगी. कल सुबह ऑफिस भी तो जाना है. इस अपार्टमेंट में एक चीज अच्छी लगी कि पास-पडोस अच्छा है. फिर खुद अच्छे तो सभी अच्छे. यह सोच कर उसने भी अपनेपन से मिसेस कपूर से बात की. उन्हें अपनी समस्या बताई कि मुझे कल ही ऑफिस ज्वाईन करना है और कुंतल का स्कूल चार दिन बाद खुलेगा. मिसेस कपूर ने भी उसी अपनेपन से कहा कि चिंता की कोई बात नहीं, कुछ घंटे मैं आपके बेटे को संभाल लूंगी. सुबह कुंतल को भी तैयार कर उनके घर छोड़ना है. यही सब सोचते हुए वह सोने का प्रयास करने लगी.
सुबह 9 बजे ही मिसेस कपूर कुंतल को लेने आ गई. कहा कि तुम आराम से तैयार हो जाओ, इसे मैं ले जा रही हूँ, घर पर कुछ मेहमान आए हैं, उनके बच्चों के साथ ये भी खेल लेगा और तुम निश्चिंत हो कर तैयार होकर जा सकती हो. वह उनके इस निश्छल स्वभाव के आगे मुस्करा दी. कुंतल के जाने के बाद वह तैयार होने लगी. पूरा तैयार होने के बाद वह कंधे पर पर्स लटकाए एक बार फिर अपने आपको निहारने आईने के पास खड़ी हुई. उसने अपने आप से कहा-नीलू, आज फिर से तुम्हारे जीवन संघर्ष की एक नई शुरुआत हो रही है. तुम्हें फिर एक नए वातावरण में अपने आपको ढालना है.
अपने आप से उसने यह बात कह तो दी, पर सोच में पड़ गई-क्या इतना आसान होता है अपने आपको नए वातावरण में ढालना? पिछले कई सालों से तो वह इसके लिए प्रयास किए जा रही है, और लगातार नाकाम हो रही है. लोगों की निगाहें, उनकी अभद्रता सहती चली आ रही है. उसकी सूनी माँग, कोरी बॉडर वाली साड़ी और काली बिंदी को घूरते लोग हमेशा उसे एक औरत समझकर मजा ही लूटते रहे हैं. एक ऐसी औरत, जो बेवा है.. अकेली है.. सुंदर है.. लाचार है.. और इसीलिए उनके टाइम पास की एक खास चीज है. शहर बदला है, पर लोग कहाँ बदले? यहाँ भी तो ऐसे ही लोगों का जमघट होगा. इन्हीं लोगों के बीच फिर से उसे उसी माहौल के साथ जीना होगा. जब तक इन बालों में सफेदी नहीं आ जाती, चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं पड़ जाती, मांसल देह शिथिल नहीं हो जाती, ये समाज की लालची निगाहें यूं ही उसे देखा करेगी. शहर बदलेंगे, पर लोग नहीं. उसे अपने आपको फिर से इसी वातावरण के लिए तैयार करना होगा. क्या वह कर पाएगी?
कुछ सोचते हुए उसने पर्स वापस पलंग पर रखा. अलमारी खोली और उसमें से आकाश की पसंद की गुलाबी साड़ी निकाली, जो उसने शादी के बाद हनीमून के समय पहनी थी और फिर कभी नहीं पहनी. वह भारी साड़ी पहन कर वह फिर से पुरानी नीलू लगने लगी. आईने में अपने आपको एक झलक देखने के बाद उसने फिर अलमारी से मंगलसूत्र निकाला और गले में डाल दिया. और अब बारी थी उस कवच की जो समाज के भेड़ियों से उसकी रक्षा करने में सहायक बने. उसने पल भर की भी देर न की और अपनी सूनी माँग चुटकी भर सिंदूर से भर दी. ड्रेसिंग टेबिल पर रखी आकाश की तस्वीर देख उसे यूं लगा- आज आकाश सचमुच मुस्करा रहा है. चुटकी भर सिंदूर उसकी माँग में सूरज की आभा सा चमक रहा था. (आरुणि फीचर्स)
भारती परिमल
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कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बहुत उम्दा...आभार पढ़वाने और पेश करने का.
जवाब देंहटाएंना जाने क्यों मुझे इसका अंत बहुत मार्मिक लगा.. बहुत खूबसूरत है आपका ये पोस्ट..
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