मंगलवार, 4 मार्च 2008

टूटी नहीं हैं मानसिक गुलामी की जंजीरें


डा. महेश परिमल
आज हम आजाद होने का कितना भी ढिंढोरा पीट लें, पर हम आज भी कहीं न कहीं गुलामी की मानसिकता में ही जी रहे हैं. अँगरेजों को भारत से अलविदा कहे हुए बरसों बीत गए, इसकी खुशी भी हम सब हर साल मनाते हैं, पर कई बातें आज भी अपनी परंपरा से नाता नहीं तोड़ पाई हैं. अब जैसे आम नागरिकों को सूचना का अधिकार मिल गया है. जब अधिकार मिला है, तो उसका उपयोग भी होना चाहिए. ऐसे में किसी ने सरकार से पूछ लिया कि महाराष्ट्र के राज्यपाल भवन में कितने कर्मचारी काम करते हैं और उनका वेतन कितना है, तो जो तथ्य सामने आए, वे चौंकाने वाले थे.
एक वेबसाइट से मिली जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र के राज्यपाल के स्टॉफ में 57 कर्मचारी केवल घर के काम के लिए हैं. इनमें उनके कार्यालय के कर्मचारियोें को शामिल नहीं किया गया है. घर में काम करने वाले 57 कर्मचारियों का वेतन 2600 से 5400 रुपए तक हैं. 'राइट टू इंफर्मेशन एक्ट -2005' के अनुसार दी गई इस जानकारी से ऐसा लगता है कि 58 वर्ष बाद भी राजभवन ब्रिटिश युग में जी रहा है.
मुम्बई के गर्वनर हाउस में सन् 1803 ईस्वी में जनरल लार्ड वेल्स्ली थे. उनके रर्सोईघर में ही 57 कर्मचारी काम करते थे. इनमें से 6 खाना परोसने वाले थे, जिनका वेतन आज के प्रतिमाह 4080 से 4510 रुपए के बीच था. इसके बाद दो की नियुक्ति चाँदी के बरतन साफ करने के लिए की गई थी, जिनका वेतन भी आज के 6165 रुपए प्रतिमाह था. मसाला तैयार करने वाले तीन कर्मचारी थे. झाड़ू लगाने वाले 14, एक मुख्य दर्जी, उसके दो सहायक भी उनके स्टाफ में शामिल थे. 84 हजार वर्ग मीटर में फैले हुए राजभवन में इसके अलावा 72 कर्मचारी और थे, जो अन्य कार्यों में उनके सहायक होते थे.
आज महाराष्ट्र के गर्वनर को मेहमानवाजी के लिए 2 लाख, 73 हजार रुपए दिए जाते हैं. राशन खर्च के लिए प्रति वर्ष डेढ़ लाख रुपए दिए जाते हैं. इसके अतिरिक्त गर्वनर के लिए प्रतिवर्ष एक करोड़, 34 लाख, 28 हजार रुपए घर खर्च के लिए बजट में प्रावधान हैं. इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत जैसे विकासशील देश में आज भी राज्यपाल के लिए ऐशो-आराम की ंजिंदगी दी गई है. यह व्यवस्था केवल महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि देश के 28 राज्यों के राज्यपालों के लिए है. ऐसे में भला हम किस मुँह से कहें कि हमारा देश गरीब है? गुलाम मानसिकता केवल राजभवनों में ही नहीं, अदालतों में भी देखी जा सकती है.

एक मुकदमे के सिलसिले में एक बार अदालत जाने का मौका मिला. अदालत की तमाम कार्रवाई देखकर लगा, क्या हमारा देश सचमुच आंजाद हो गया है? आजादी मिले आधी सदी बीत गई, पर हम आज तक परंपरावादी ही रहे. नए जीवन मूल्य यहाँ कुछ काम के नहीं रहे. आज मानव भले ही चाँद पर कदम रखने के बाद अब मंगल पर जाने की तैयारी कर रहा हो. हमारे भारतीय विदेशों में जाकर अपना और देश का गौरव बढ़ा रहे हों. पर अदालत की कार्रवाइयों को देखते हुए लगा कि हम आज भी कहीं न कहीं अँगरेंजों के गुलाम ही हैं. गुलामी की उस मानसिकता से हम अभी तक नहीं उबर पाए हैं. वहाँ मुझे 'मी लार्ड' शब्द सुनने को मिला. तब ध्यान में आया कि इसके अलावा 'हिज हाइनेस', 'हिज एक्सीलेंसी' 'मेजेस्टी' जैसे शब्द आज भी भारतीय समाज में प्रचलित हैं, आश्चर्य हुआ कि आजादी के बाद ये सारे चापलूसी वाले शब्द आज भी हमें क्यों मुँह चिढ़ा रहे हैं?
क्या हमें सचमुच परंपरावादी होना चाहिए? कई परंपराएँ समाज की थाती होती हैं, उसे निभाना हर सामाजिक प्राणी का र्क?ाव्य है, पर जिन परंपराओं से हमारी गुलामी झलकती हो, जिनसे हमारी पहचान खोने की आशंका हो, क्या उस परंपरा को भी हमें निभाना चाहिए? इस तरह के कई सवाल कौंध रहे थे. जवाब तलाशने में काफी वक्त लगा, फिर भी लगता है, सवाल भले ही ज्वलंत हो, पर जवाब अभी भी पूरे नहीं हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया में सुधांशु रंजन ने 'कम टू जजमेंट माइ लार्ड' शीर्षक से एक सुंदर आलेख लिखा है, जिसमें परंपरागत रूप से चल रहे सम्मान देने की प्रथा पर एक घटना का वर्णन किया है. घटना इस प्रकार है- 145 वर्ष पूर्व 1860 में अलेक्जेंडर द्वितीय की कोर्ट में राजदूत बिस्मार्क खड़े थे, अचानक उनकी नजर खिड़की के बाहर गई, वहाँ बगीचे की लॉन में चौकीदार स्टेचू की तरह खड़ा था. जिज्ञासावश उन्होंने इस संबंध में लोगों से पूछा कि आखिर इस चौकीदार को बगीचे में इस तरह से क्यों खड़ा किया गया है. इसका जवाब कोई नहीं दे पाया. इसके बाद बिस्मार्क तो अड़ ही गए कि आखिर ये चौकीदार किसके आदेश से वहाँ खड़ा था? उसके बाद उन्होंने सेनानायक से यह पूछा, तो उनका भी यही जवाब था कि उन्हें भी नहीं मालूम, लेकिन उन्होंने यह अवश्य बताया कि यह प्रथा तो काफी पुरानी है. 145 वर्ष पहले जब परंपराओं के ये हाल थे, तो वैसी ही कई परंपराएँ आज भी हमारे भारतीय समाज में चली आ रहीं हैं, तो इसमें आश्चर्य कैसा?
हमारे यहाँ अतिविशिष्ट लोगों के लिए मेजेस्टी, एक्सीलेंसी और हाइनेस जैसे शब्द प्रचलित हैं. परंतु भारत जब स्वतंत्र हुआ, तब ये सारे शब्द दूर कर दिया गया था. सब नागरिक एक समान हैं, यह नारा बुलंद हुआ था. इसके अलावा एक परिपत्र जारी करते हुए कहा गया था कि इस तरह के शब्द अँगरेजों के साथ ही चले गए हैं, इसलिए अब इन्हें प्रयोग में नहीं लिया जाए. इसके साथ ही राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए 'हिज एक्सीलेंसी' शब्द प्रयोग की स्वैच्छिक छूट थी. कालांतर में यह स्वैच्छिक छूट भी आवश्यक हो गई. इसी छूट का लाभ उठाते हुए कतिपय चाटुकारों ने इस तरह के श?दों को विस्तार देते हुए केवल अतिविशिष्ट लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार इन श?दों का प्रयोग किया. इसी परंपरा के अन्तर्गत न्यायाधीशों के लिए भी मी लार्ड शब्द का प्रयोग किया जाता है. न्यायाधीशों के लिए मी लार्ड शब्द अँगरेंजों के जमाने में प्रयुक्त किया जाता था, जो आज भी परंपरागत रूप से हमारे यहाँ जारी है.
स्वतंत्रता के बाद 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में यह कहा था कि हाईकोर्ट के जज को सर कहकर संबोधित किया जा सकता है, अथवा 'मिस्टर जज' भी कहा जा सकता है, परंतु 'मी लार्ड' नहीं. परिपत्र में यह भी लिखा था कि 'आनरेबल' कोर्ट के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जज के लिए नहीं. इस आदेश का पालन करने में न्यायाधीशों को भी आप?ाि थी. वकील भी परंपरावादी होकर इस तरह के नए नियमों को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि इससे उनके व्यवसाय पर फर्क पड़ सकता था. आज आजादी के पाँच दशक पार होने के बाद भी हम इस प्रथा को बंद नहीं कर पाए हैं.

नए जीवन मूल्यों को स्वीकारते हुए हमसे काफी पिछड़े देश दक्षिण अफ्रीका ने इसे एक झटके में ही अमल में ले लिया. वहाँ अप्रैल 1994 में चुनाव हुए, अक्टूबर 1994 में ही सुप्रीम कोर्ट का गठन हुआ. मार्च 1995 की कोर्ट की पहली बैठक में यह निर्णय लिया गया कि अब अदालतों में न्यायाधीशों को 'माई लार्ड या योन ऑनर' के बदले में 'मिस्टर जस्टिस.... अमुक-अमुक' कहा जाए. इस निर्णय को तुरंत ही अमल में लाया गया. इस तरह से स्वयं को प्रगतिशील कहने वाला हमारा भारत दक्षिण अफ्रीका से भी पिछड़ गया. क्योंकि हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद चापलूसी का युग शुरू हो गया. स?ाा हथियाने में चापलूसी का स्थान सर्वोपरि हो गया. जो सांसद आपराधिक हों और जेल की हवा खा चुके हों, जिन पर कई मुकदमे चल रहे हों, उनके लिए क्या उपरोक्त सम्मानजनक श?दों का प्रयोग होना चाहिए? यदि हो भी रहा है, तो यह श?दों का ही दुर्भाग्य है. वैसे भी आज हर जगह शब्द अपना अर्थ खो रहे हैं. विवशता में बँधकर ऐसे लोगों का सम्मान करना पड़ रहा है, जिनके लिए अपश?दों का प्रयोग करने में हमारी जिह्वा कभी नहीं थकी. यह सब उस परंपरा का प्रतीक है, जिसे बरसों पहले हमारे ही देश में टोडरमल जैसे लोगों से चलाया था. आज भले ही टोडरमल एक मिथक बन गए हों, पर उनकी तरह का व्यवहार कर लोग अपनी जीविका चला ही रहे हैं.
वैसे देखा जाए, तो किसी भी व्यक्ति के लिए माननीय शब्द ही पर्याप्त है. राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल के लिए अब भले ही हमारे यहाँ महामहिम शब्द प्रयुक्त होता है. यह एक अच्छी परंपरा है, पर अदालत की कार्रवाइयों के दौरान कानों में पड़ने वाले अँगरेजी श?दों को क्या हम हृदय से स्वीकार करते हैं?
डा. महेश परिमल

3 टिप्‍पणियां:

  1. कबीर सा रा रा रा रा रा रा रा रारारारारारारारा
    जोगी जी रा रा रा रा रा रा रा रा रा रा री

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  2. बहुत बुरा हाल है..

    जिधर देखो उधर गुलामी के चिन्ह बिखरे पड़े हैं। बात-बात पर हर किसी को 'सर' कहना; इस देश में हर जगह 'कालोनियाँ' हैं ; ब्रिश जमाने के कानून हैं; वही शिक्षा पद्धति है; पुलिस वही है; 'कलेक्टर' वही है; सेना में कमोबेश वही परम्परायें हैं; चापलूसी और चाटुकारिता वही है; भ्रष्टाचार पहले से ज्यादा है; ....


    'दिग्गी राजा', 'श्र्र्मन्त सिन्धिया', राजा-माण्डा' आदि शब्द क्या कहते हैं? किसी नेता के आगे-पीछे सौ-सौ गाड़ियों का काफिला क्या कहता है? एक नेता का करोंडों का टेलीफोन बिल, करोंडों का बिजली बिल, साल-दो साल में अरबों की सम्पती का मालिक हो जाना आदि क्या कहते हैं?

    क्यों इस देश की जनता नचैये-गवैयों के पीछे पागलों की तरह दौड़ती रहती है? क्यों इस देश के हर गाँव, कस्बे और शहर में कोई न कोई शैतान है जो वहाँ आतंक का पर्याय बना हुआ है?...

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  3. डॉ. महेश परिमल जी आप के लेख मे हमेशा ही मेरे दिल की बात होती हे,बाकी बात जो टिपण्णी मे कहना चहता था वो अनुनान सिहं जी ने पुरी कर दी हे, बाकी मेरे लिये एक ही पंक्ति हे, कब तक गुलाम पेदा होते रहे गे मेरे भारत मे.

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