सोमवार, 3 मार्च 2008
न्यायाधीशों को 'मी लार्ड' कहना उचित है?
डा. महेश परिमल
एक मुकदमे के सिलसिले में एक बार अदालत जाने का मौका मिला. अदालत की तमाम कार्रवाई देखकर लगा, क्या हमारा देश सचमुच आंजाद हो गया है? आजादी मिले आधी सदी बीत गई, पर हम आज तक परंपरावादी ही रहे. नए जीवन मूल्य यहाँ कुछ काम के नहीं रहे. आज मानव भले ही चाँद पर कदम रखने के बाद अब मंगल पर जाने की तैयारी कर रहा हो. हमारे भारतीय विदेशों में जाकर अपना और देश का गौरव बढ़ा रहे हों. पर अदालत की कार्रवाइयों को देखते हुए लगा कि हम आज भी कहीं न कहीं अँगरेंजों के गुलाम ही हैं. गुलामी की उस मानसिकता से हम अभी तक नहीं उबर पाए हैं. वहाँ मुझे 'मी लार्ड' शब्द सुनने को मिला. तब ध्यान में आया कि इसके अलावा 'हिज हाइनेस', 'हिज एक्सीलेंसी' 'मेजेस्टी' जैसे शब्द आज भी भारतीय समाज में प्रचलित हैं, आश्चर्य हुआ कि आजादी के बाद ये सारे चापलूसी वाले शब्द आज भी हमें क्यों मुँह चिढ़ा रहे हैं?
क्या हमें सचमुच परंपरावादी होना चाहिए? कई परंपराएँ समाज की थाती होती हैं, उसे निभाना हर सामाजिक प्राणी का र्क?ाव्य है, पर जिन परंपराओं से हमारी गुलामी झलकती हो, जिनसे हमारी पहचान खोने की आशंका हो, क्या उस परंपरा को भी हमें निभाना चाहिए? इस तरह के कई सवाल कौंध रहे थे. जवाब तलाशने में काफी वक्त लगा, फिर भी लगता है, सवाल भले ही ज्वलंत हो, पर जवाब अभी भी पूरे नहीं हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया में सुधांशु रंजन ने 'कम टू जजमेंट माइ लार्ड' शीर्षक से एक सुंदर आलेख लिखा है, जिसमें परंपरागत रूप से चल रहे सम्मान देने की प्रथा पर एक घटना का वर्णन किया है. घटना इस प्रकार है- 145 वर्ष पूर्व 1860 में अलेक्जेंडर द्वितीय की कोर्ट में राजदूत बिस्मार्क खड़े थे, अचानक उनकी नजर खिड़की के बाहर गई, वहाँ बगीचे की लॉन में चौकीदार स्टेचू की तरह खड़ा था. जिज्ञासावश उन्होंने इस संबंध में लोगों से पूछा कि आखिर इस चौकीदार को बगीचे में इस तरह से क्यों खड़ा किया गया है. इसका जवाब कोई नहीं दे पाया. इसके बाद बिस्मार्क तो अड़ ही गए कि आखिर ये चौकीदार किसके आदेश से वहाँ खड़ा था? उसके बाद उन्होंने सेनानायक से यह पूछा, तो उनका भी यही जवाब था कि उन्हें भी नहीं मालूम, लेकिन उन्होंने यह अवश्य बताया कि यह प्रथा तो काफी पुरानी है. 145 वर्ष पहले जब परंपराओं के ये हाल थे, तो वैसी ही कई परंपराएँ आज भी हमारे भारतीय समाज में चली आ रहीं हैं, तो इसमें आश्चर्य कैसा?
हमारे यहाँ अतिविशिष्ट लोगों के लिए मेजेस्टी, एक्सीलेंसी और हाइनेस जैसे शब्द प्रचलित हैं. परंतु भारत जब स्वतंत्र हुआ, तब ये सारे शब्द दूर कर दिया गया था. सब नागरिक एक समान हैं, यह नारा बुलंद हुआ था. इसके अलावा एक परिपत्र जारी करते हुए कहा गया था कि इस तरह के शब्द अँगरेजों के साथ ही चले गए हैं, इसलिए अब इन्हें प्रयोग में नहीं लिया जाए. इसके साथ ही राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए 'हिज एक्सीलेंसी' शब्द प्रयोग की स्वैच्छिक छूट थी. कालांतर में यह स्वैच्छिक छूट भी आवश्यक हो गई. इसी छूट का लाभ उठाते हुए कतिपय चाटुकारों ने इस तरह के श?दों को विस्तार देते हुए केवल अतिविशिष्ट लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार इन श?दों का प्रयोग किया. इसी परंपरा के अन्तर्गत न्यायाधीशों के लिए भी मी लार्ड शब्द का प्रयोग किया जाता है. न्यायाधीशों के लिए मी लार्ड शब्द अँगरेंजों के जमाने में प्रयुक्त किया जाता था, जो आज भी परंपरागत रूप से हमारे यहाँ जारी है.
स्वतंत्रता के बाद 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में यह कहा था कि हाईकोर्ट के जज को सर कहकर संबोधित किया जा सकता है, अथवा 'मिस्टर जज' भी कहा जा सकता है, परंतु 'मी लार्ड' नहीं. परिपत्र में यह भी लिखा था कि 'आनरेबल' कोर्ट के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जज के लिए नहीं. इस आदेश का पालन करने में न्यायाधीशों को भी आप?ाि थी. वकील भी परंपरावादी होकर इस तरह के नए नियमों को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि इससे उनके व्यवसाय पर फर्क पड़ सकता था. आज आजादी के पाँच दशक पार होने के बाद भी हम इस प्रथा को बंद नहीं कर पाए हैं.
नए जीवन मूल्यों को स्वीकारते हुए हमसे काफी पिछड़े देश दक्षिण अफ्रीका ने इसे एक झटके में ही अमल में ले लिया. वहाँ अप्रैल 1994 में चुनाव हुए, अक्टूबर 1994 में ही सुप्रीम कोर्ट का गठन हुआ. मार्च 1995 की कोर्ट की पहली बैठक में यह निर्णय लिया गया कि अब अदालतों में न्यायाधीशों को 'माई लार्ड या योन ऑनर' के बदले में 'मिस्टर जस्टिस.... अमुक-अमुक' कहा जाए. इस निर्णय को तुरंत ही अमल में लाया गया. इस तरह से स्वयं को प्रगतिशील कहने वाला हमारा भारत दक्षिण अफ्रीका से भी पिछड़ गया. क्योंकि हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद चापलूसी का युग शुरू हो गया. स?ाा हथियाने में चापलूसी का स्थान सर्वोपरि हो गया. जो सांसद आपराधिक हों और जेल की हवा खा चुके हों, जिन पर कई मुकदमे चल रहे हों, उनके लिए क्या उपरोक्त सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग होना चाहिए? यदि हो भी रहा है, तो यह श?दों का ही दुर्भाग्य है. वैसे भी आज हर जगह शब्द अपना अर्थ खो रहे हैं. विवशता में बँधकर ऐसे लोगों का सम्मान करना पड़ रहा है, जिनके लिए अपशब्दं का प्रयोग करने में हमारी जिह्वा कभी नहीं थकी. यह सब उस परंपरा का प्रतीक है, जिसे बरसों पहले हमारे ही देश में टोडरमल जैसे लोगों से चलाया था. आज भले ही टोडरमल एक मिथक बन गए हों, पर उनकी तरह का व्यवहार कर लोग अपनी जीविका चला ही रहे हैं.
वैसे देखा जाए, तो किसी भी व्यक्ति के लिए माननीय शब्द ही पर्याप्त है. राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल के लिए अब भले ही हमारे यहाँ महामहिम शब्द प्रयुक्त होता है. यह एक अच्छी परंपरा है, पर अदालत की कार्रवाइयों के दौरान कानों में पड़ने वाले अँगरेजी श?दों को क्या हम हृदय से स्वीकार करते हैं?
डा. महेश परिमल
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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उच्च कोटी की पोस्ट है. परम्पराओं के जाल में जकडे हम भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका से सबक लेना चाहिए.
जवाब देंहटाएं- मनीष भदौरिया
dr. parimal jee,
जवाब देंहटाएंsaadar abhivaadan. bahut hee achha aalekh likha hai aapne. waise main bataa doon ki haal hee mein supreme court ne khud pehel karte hue bar associations se kaha hai ki my lord kehne kee paramparaa ko ab band kiya jaye.
काफी लंबे समय से चल रहे इस विचार-विमर्श पर अब तक कोई फैसला इसलिए नहीं हो सका है क्योंकि यह व्यवस्था बिना संसद की मंजूरी के लागू नहीं हो सकती।
जवाब देंहटाएंआप को इतनी सुंदर,ज्ञान-वर्धक और जागने वाली पोस्ट के लिए बधाई। भारत का सर्वोच्च न्यायालय स्पष्ट कह चुका है कि न्यायाधीशों को मी-लॉर्ड, माई लॉर्ड आदि संबोधित करना जरुरी नहीं है और उन्हें सर या कोई अन्य आदर सूचक संबोधन से संबोधित किया जा सकता है। जिला न्यायालय के स्तर तक तो अब ये शब्द अप्रचलित हो चुके हैं और कोई पुराने वकील ही इनका उपयोग करते हैं। न्यायाधीशों पर भी इन का कोई प्रभाव नहीं रह गया है। हाई कोर्ट और सुप्रींम कोर्ट के वकील जरूर इन शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। पर अब वहाँ भी तेजी से इन का उपयोग बन्द हो रहा है। हाँ इन सामंती शब्दों का प्रयोग कानूनन वर्जित नहीं किया गया है और न ही वकीलों के किसी संगठन ने इस तरह की वर्जना अपने संगठन के सदस्यों पर लगाई है।
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