मंगलवार, 25 मार्च 2008

डाक टिकटों से जुड़े नैतिक मूल्य..


डा. महेश परिमल
डाक विभाग हमेशा मरणॊपरांत लॊगॊं कॊ सम्मान देने के लिए डाक टिकट जारी करता है सुना है अब मधुबाला भी हमें डाक टिकट पर दिखाई देंगी यह अच्छी बात है अब तक न जाने कितने महापुरुषॊं कॊ हमने डाक टिकटॊं पर देखा है. 8 वर्ष पूर्व हुए एक हवाई दुर्घटना में पूर्व केंद्रीय मंत्री माधव राव सिंधिया का देहांत हो गया. उनकी स्मृति में पाँच रुपए का एक डाक टिकट जारी किया गया है. अभी-अभी पता चला कि प्रिंस चार्ल्स और केमिला पॉर्कर की शादी के अवसर पर ब्रिटेन में एक डाक टिकट जारी किया जाएगा. डाक टिकट जारी करना एक सम्मान की बात है. हमारे देश में महापुरुषों को श्रध्दांजलि देने का यह भी एक तरीका है. लेकिन यह सिक्के का केवल एक पहलू ही है.
कभी इसके दूसरे पहलू को जानने की कोशिश नहीं की गई है. यदि एक आम आदमी कभी डाकघर जाकर देखे कि डाक टिकटों की क्या दुर्दशा होती है, तो शायद वह कभी महापुरुषों के नाम पर जारी होने वाले डाक टिकट का समर्थन ही न करे. शायद आप मेरी बात नहीं समझ पाए होंगे. इसे ंजरा विस्तार से इस तरह से कहा जा सकता है. डाकघर में एक व्यक्ति एक लिफाफा लेकर आता है, डाक टिकट खरीदता है, एक कोने पर जाकर इधर-उधर देखता है, कहीं गोंद दिखाई नहीं देता, न ही पानी से भरी कोई प्याली ही दिखाई देती है. वह टिकट को अपनी जीभ से लगाता है और उसे लिफाफे पर चस्पा कर देता है. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि टिकट पर किसका चित्र था. महात्मा गाँधी या सुभाष चंद्र बोस का. उसे तो टिकट लिफाफे पर चिपकाने से मतलब होता है और वह उसे अपनी तरह से चिपका ही देता है. महापुरुषों का इस तरह से खुले आम अपमान भला किसे भाता है. पर आज हर कोई ऐसा कर रहा है और हमारे देश में महापुरुषों के अपमान के लिए नित नए-नए डाक टिकट जारी किए जा रहे हैं.
डाकघर में एक और नजारा हमेशा देखने को मिलता है. उसे भी शायद एक अधिकारी भी गौर नहीं करता. डाकिया किस तरह से डाक टिकट पर उसके होने की मुहर लगाता चलता है. मानो डाक टिकट के साथ अपनी कोई पुरानी रंजिश निकाल रहा हो. हालांकि यह उसकी डयूटी का एक हिस्सा है, लेकिन इस तरह से हमारे देश के महापुरुषों का अपमान क्या हमें अच्छा लगता है?

हम सबकी अपनी-अपनी हथेली है और सबके अपने-अपने आसमाँ हैं, इसमें जितना बड़ा सच आ जाए, हम उसे सहजता के साथ स्वीकार कर लेते हैं. पर सच तो बहुत कड़वा होता है, बिलकुल नीम के पत्तों की तरह, जो कड़वे तो बहुत होते हैं, पर खून साफ करते हैं. हमें इस कड़वेपन को समझना है, क्योंकि समाज में आज बहुत ही कड़वापन आ गया है. सामाजिक प्राणियों का स्वाद बड़ा ही कसैला हो गया है. मुँह का स्वाद कसैला हो, तो ऑंखों का कहना ही क्या. आज ऑंखें जो कुछ देख रहीं हैं, वह सच नहीं है. सच तो वह है, जो छिपा हुआ है. यह सच डाक टिकट पर भी हो सकता है और जीभ को बार-बार छूकर नोट गिनते हुए लोगों को देखकर भी हो सकता है. आश्चर्य की बात यह है कि आज इस सच से हर कोई गाफिल है, उसे पता ही नहीें चलता कि कुछ गलत हो रहा है.
समय को चलने की आदत होती है. इसलिए समय के साथ सबको भुला दिया जाता है. महापुरुष न भुलाए जाएँ, शायद इसीलिए उन्हें याद रखने के लिए ये सारे उपक्रम किए जाते हैं. कभी किसी चौराहे के नाम से, किसी मार्ग के नाम से, बाग-बगीचों के नाम से और न हुआ तो किसी भवन के नाम से. पर क्या इनसे नाम जीवित रहते हैं भला? वह नाम जो दिलों में लिखे जाते हैं, वे कभी नहीं भुलाए जाते. पर आज किसे वक्त है, दिलों में नाम लिखने की? इसलिए इस आपाधापी में सब कुछ चल रहा है. बात केवल डाक टिकट जारी करने की नहीं है और न ही महापुरुषों के नामों को जीवित रखने की है. बात है उन नैतिक मूल्यों की, जो हमारी ऑंखों के सामने ही दम तोड़ रहे हैं. हर वस्तु अपनी परिभाषा बदल रही है. हर इंसान अपने होने का अर्थ खोज रहा है. ऐसे में भला जीवित रहकर क्या करेगी नैतिकता?
आज नैतिकता का पतन एक सामान्य बात हो गई है. अच्छे विचारों, व्यवहारों का पतझड़ यदि दिन में एक बार ऑंखों के सामने से न गुजरे, तो हम अपने आपको ही तलाशते रह जाते हैं कि भला किस दुनिया में हैं हम? हम इस बुरी और सरासर गलत मानी जाने वाली कोरी आदर्शवादिता के आदी हो गए हैं. अब जब हमारे सामने कुछ अच्छा होता है, तो हमें आश्चर्य होता है, इतना आश्चर्य की पल भर को तो हम दूसरों से नजरें बचाकर अपने आपको ही चिकोटी काटते हुए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि हम ंजिदा भी हैं या नहीं. हमारे आसपास बसा बुराई का संसार, अभद्रता का वातावरण हमें हमारे होने का सुबूत देता है. परिवर्तन का यह धुऑं पूरी तरह से हमारी ऑंखों में भर गया है. इस धुएँ की एक के बाद एक जमती परतों के बीच भला कैसे पारदर्शी रह पाएँगे हमारे नैतिक मूल्य?
हम कब से गैस चूल्हे की आदी हो गए, किसी को पता चला? कब हमारे ही सामने से गुजर गई पगडंडी. देखते ही देखते चौपाल में सिमटा एक गाँव शहर बन गया, हमें खबर ही नहीं लगी. अब तो शहरी संस्कृति इस कदर हम पर हावी हो गई है कि हम स्वयं अपने आप को भूलने लगे हैं. ऐसे में हमारे सामने एक व्यक्ति अपने थूक से टिकट को लिफाफे पर चस्पा करे, तो हम कुछ नहीं कर सकते. आखिर यह किसका पतन है?
डा. महेश परिमल

6 टिप्‍पणियां:

  1. एकदम सटीक और दिल को छूने वाला विश्लेषण…

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  2. डाक टिकटों के बहाने नैतिकता और मानवीय संवेदना की अच्छी पड़ताल की है. लेकिन सवाल यह है कि आज राष्ट्रध्वज का ही कोई सम्मान नहीं रह गया है तो डाक टिकटों की भला क्या बात की जाए? एक और बात काबिल-ऐ-गौर है. वह यह कि ऐसे समय में जब महापुरुष भी जबरदस्ती बनाए जा रहे हैं, ऐसे लोग जिन्हें सौ में निन्यान्नाबे लोग देश या समाज की तरक्की में कोई श्रेय देने को तैयार नहीं है और उनके नाम पर सब कुछ हो रहा है. ऐसा लग रहा है कि महापुरुशई भी खरीइदी जा जा रही है. टू कोई क्या करेगा?

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  3. आपकी टिप्पणियों के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद.

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  4. अजी साहब आपको गलत फ़हमी है,जिस से खुंदक निकालनी हो उसका फ़ोटो डाक टिकट पर छाप देते है..पता है ना डाक विभाग मे दनादन दनादन मोहरो से ठोका जायेगा..:)

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  5. डा. महेश परिमल जी, इतनी समझ हमारे नेताओ को होती तो (यानि वो सिक्के के दोनो पहलुओ पर गोर करती )हम आज दुनिया के सिर्मोर होते.

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