शनिवार, 7 मार्च 2009
माँ
माँ,
मोम सी जलती रही
ताकि घर रोशन हो सके
और सब उस रोशन घर में बैठे
सुनहरे सपने बुना करते
परियों की कहानियाँ सुना करते
माँ की तपन से बेखबर
बात-बात से खुशियाँ चुना करते
और माँ जलती जाती
चुपचाप पिघलती जाती
मुर्गे की बांग से रात के सन्नाटे तक
बाजार के सौदे से घर के आटे तक
बापू की चीख से बच्चों की छींक तक
सपनों की दुनिया से घर की लीक तक
माँ खुद को भुलाकर बस माँ होती थी
बिन माँगी एक दुआ होती थी
माँ चक्कर घिरनी सी घुमती रही
खुद अनकही पर सबकी सुनती रही
पर जब वह उदास होती
एक बात बड़ी खास होती
वह बापू से दूर दूर रहती
पर बच्चों के और पास होती
माँ ने खुद खींची थी
एक लक्ष्मण रेखा अपने चारों ओर
इसलिए नहीं माँगा कभी सोने का हिरण,
कोई चमकती किरण
माँ को चाहिए था वो घर
जहाँ थे उनके नन्हें-नन्हें पर
जिनमें आसमाँ भरना था
हर सपना साकार बनाना था
पर जब सपने उड़ान भरने लगे
दुर्भाग्यवश धरा से ही डरने लगे
और माँ वक्त के थपेड़ाें से भक-भक कर जलने लगी
बूढ़ी हो गई वह भीतर से गलने लगी
जिस माँ ने आबाद किया था घर को
वहीं माँ उस घर को खलने लगी
उँगली पकड़कर जिनको चलना सिखाया
हर पग पर जिन्हें सँभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियाँ छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
ऑंखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हजार सितम झेलती थी पर
बच्चों की खातिर कुछ न बोलती थी
ऐसी मोम सी माँ
जलते-जलते बुझ गई
यक्ष प्रश्न कर गई
कि
एक माँ घर को सँभाल लेती है
सारा घर मिलकर भी माँ को सँभाल नहीं पाता
माँ के जीवन की संध्या को ही रोशनी क्यूं नहीं नसीब होती
जबकि माँ अपने बच्चों की हर पहर को रोशन करने के लिए
ता-उम्र ऑंधियों से लड़ा करती है
उनके सहारे की कद्र क्यूं नहीं हुआ करती
जबकि जब वह दूर चली जाती है
तो उनकी बहुत याद आती है
बहुत याद आती है।
रितु गोयल
लेबल:
कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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- हिंदी विशेष
बिल्कुल दिल से निकली है यह कविता ...
जवाब देंहटाएंमाँ लफ्ज़ को सम्पूर्ण करती है यह रचना ..बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंयक्ष प्रश्न कर गई
जवाब देंहटाएंकि एक माँ घर को सँभाल लेती है
सारा घर मिलकर भी माँ को सँभाल नहीं पाता
अद्भुद ...
दुर्भाग्यवश धरा से ही डरने लगे
जवाब देंहटाएंऔर माँ वक्त के थपेड़ाें से भक-भक कर जलने लगी
बूढ़ी हो गई वह भीतर से गलने लगी
जिस माँ ने आबाद किया था घर को
वहीं माँ उस घर को खलने लगी
उँगली पकड़कर जिनको चलना सिखाया
हर पग पर जिन्हें सँभलना सिखाया
जिनका झूठा खाया, लोरी सुनाई
बापू से जिनकी कमियाँ छिपाई
रात भर सीने से लगा चुप कराती रही
बच्चों का पेट भर हर्षाती रही
दो पाटों के बीच सदा पिसती रही
ऑंखों से दर्द बनकर रिसती रही
बापू के हजार सितम झेलती थी पर
बच्चों की खातिर कुछ न बोलती थी
ऐसी मोम सी माँ
जलते-जलते बुझ गई
यक्ष प्रश्न कर गई
कि
एक माँ घर को सँभाल लेती है
सारा घर मिलकर भी माँ को सँभाल नहीं पाता
माँ के जीवन की संध्या को ही रोशनी क्यूं नहीं नसीब होती
जबकि माँ अपने बच्चों की हर पहर को रोशन करने के लिए
ता-उम्र ऑंधियों से लड़ा करती है
उनके सहारे की कद्र क्यूं नहीं हुआ करती
जबकि जब वह दूर चली जाती है
तो उनकी बहुत याद आती है ''
एक कविता,सब कुछ कह दिया,सबके मन की बात,सब कुछ.....
क्या कहूँ ?
बस इतना ही कहूँगी माँ घर को बंधे रखने वाला सूत्र होती है.
इस घर से माँ जाती है ससुराल के रस्ते बंद हो जाते हैं.
'उस' घर से माँ जब चली जाती है तो मायके के.
कोई नही रहता फिर आपकी प्रतीक्षा करने वाला.
क्या कहूँ,शब्द नही है आज मेरे पास कुछ भी कहने के लिए.
मेरे तो दोनों घर में माँ नही.
और कोई नही करता अब मेरा भी इंतज़ार,सब हैं पर माँ के बिना सब सूना है. इसलिए उनके जीते जी हर पल को जी लिया. जी लेना चाहिए कल अफ़सोस ना हो कि वो होती तो ये करते,वो करते.ऐसा करते,वैसा रखते.मैंने क्या किया????
छोडिये...बस आत्मा पर कोई बोझ नही है मेरे.इतना तो हम कर ही सकते हैं फिर चाहे धूप भी ना लगाये,बारह दिन शोक भी ना मनाये कोई स्मृति चिन्ह ना बनाये चलेगा.
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