शुक्रवार, 13 मार्च 2009
काश, सोम दा की बात सच हो जाए....
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी बंगला देश गए और वहाँ के सांसदों को संसद की गरिमा को बनाए रखने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए और क्या-क्या नहीं किया जाना चाहिए, यह समझाया। जाने के पहले यही सोम दा हमारे देश के सांसदों को बुरी तरह से लताड़ा। बहुत सी बद्दुआएँ भी दीं। उनका तो यह भी कहना है कि ये सांसद जनता को मूर्ख बना रहे हैं। इन्हें तो संसद में पहुँचना ही नहीं चाहिए। ऐसे लोग देश के साथ धोखा कर रहे हैं। इसके पूर्व भी सोम दा समय-समय पर सांसदों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी करते रहे हैं। उनकी दृष्टि में आज के सांसद पूरी तरह से लापरवाह हैं। उन्हें उनकी बिलकुल भी चिंता नहीं है, जिन्होंने अपना कीमती वोट देकर संसद में भेजा है। सोम दा की पीड़ा को समझा जा सकता है। उन्होंने वह दौर देखा है, जब सांसद पूरी तरह से जनता के प्रति निष्ठावान होते थे। कम से कम खर्च कर वे सदैव जनता के हित में ही सोचते थे, साथ ही संसद की गरिमा को बनाए रखने में अपना योगदान देते थे। आज स्थिति एकदम ही विपरीत है। ऐसे में यदि वे कहते हैं कि ऐसे सांसदों को जनता ही सबक सिखाएगी, तो उनका कहना बिलकुल भी गलत नहीं है।
सचमुच भारतीय सांसद आज एक प्रश्न चिह्न के रूप में हमारे सामने हैं। आज हम सब लोकसभा चुनाव के मुहाने पर हैं। कुछ समय बाद यही सांसद आम आदमी बनकर हमारे सामने याचक के रूप में आएँगे। हमारे पास एक सुनहरा अवसर है। ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिए हम यदि कृतसंकल्पित हो जाएँ, तो संसद की गरिमा की रक्षा करने वाले ऐसे सांसदों को हम अपना प्रतिनिधि चुनकर भेज सकते हैं। लेकिन आज ईमानदार तो राजनीति में आना ही नहीं चाहते। वे खूब देख चुके हैं कि आज ईमानदार इंसान कहीं नहीं चल पाता। राजनीति में तो किसी भी तरह से भी नहीं। अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए लोग इस क्षेत्र में आते हैं। वोट माँगने के लिए आम आदमी बनते हैं और वोट पाते ही वीआईपी बन जाते हैं। हमें मूर्ख बनाकर वे चले जाते हैं, पूरे 5 वर्षों के लिए।
संसद में हमारे सामने लड़ने वाले, अपशब्दों का प्रयोग करने वाले, माइक और कर्ुस्ाियाँ फेंकने वाले ये सांसद भले ही किसी बात पर एकमत न हों, पर जब भी सांसदों के वेतन-भत्तों को बढ़ाने का विधेयक आता है, तो एकजुट होकर उसे पारित करने में ारा भी देर नहीं करते। जनता के हित में बनने वाले जब कई विधेयक फोरम के अभाव में लटक जाते हैं, वहीं इनकी सुविधाएँ बढ़ाने वाला बिल कब और कैसे पारित हो जाता है, पता ही नहीं चलता। इसे स्वार्थ नहीं तो और क्या कहा जाए? अपने आप को जनता का सच्चा प्रतिनिधि कहने वाले ये कितने सुविधाभोगी और बेईमान हैं, यह तो इनके आचरण से ही पता चल जाता है। सरकार की तरफ से इतनी अधिक सुविधाएँ मिलने के बाद भी वे न तो टेलीफोन बिल समय पर भुगतान करते हैं, न आवास का किराया देते हैं और न ही बिजली बिल का भुगतान करते हैं। गलत आचरण इनकी रग-रग में बसा होता है। किसी की इात करना ये जानते ही नहीं। ऐसे में हम इन्हें कैसे बनाएँ अपना प्रतिनिधि?
आज कोई भी पार्टी यह दावे के साथ नहीं कह सकती कि उनके सभी सांसद ईमानदार हैं। उन पर किसी तरह का मुकदमा नहीं चला है। या फिर उनके किसी भी सांसद ने अपराध में जेल यात्रा न की हो। इसका आशय तो यही हुआ कि सांसद होने के पहले हमारे प्रतिनिधि को अपराधी होना आवश्यक है। आज अपराध और राजनीति परस्पर पूरक बन गए हैं। हत्या का आरोपी मुख्यमंत्री भी बन सकता है, दूसरी और अपराधी सांसद की जेल से रिहाई किसी उत्सव से कम नहीं होती। ऐसे में कैसे मिले, ईमानदार प्रतिनिधि? टिकट भी जब इन्हें मिलते हैं, तो बाहुबल के अलावा धन ही अधिक काम आता है। यदि कोई सांसद निर्दलीय जीत जाए, तो समझो उसके पौ-बारह। वह अपनी निष्ठा को लाखों नहीं, करोड़ों में बेचने के लिए तैयार हो जाता है।
संसद की आचार संहिता से किसी तरह का भी वास्ता न रखने वाले ये सांसद क्या जानें कि संसद का अपमान कितना बड़ा राजद्रोह है? संयम को तो ये जानते तक नहीं। संसद चलने के दौरान एक-एक पल भी कीमती होता है। पर इन्हें तो अपने स्वार्थ की पड़ी होती है। देश को लूटने वाले ये सांसद न केवल जनता के साथ, बल्कि देश के साथ भी गद्दारी कर रहे हैं। बहुत ही व्यथित होकर सोमनाथ चटर्जी ने इन्हें एक तरह से श्राप ही दिया है। ईश्वर करे, उनका यह श्राप फलित हो जाए। पर ऐसा होगा नहीं, हमारे सामने मजबूरी है, साँपनाथ और नागनाथ में से किसी एक को चुनने की। जब तक इसका तीसरा विकल्प 'इनमें से कोई नहीं' हमारे सामने नहीं आता, तब तक हमें ऐसे ही अपराधी, मुँहफट, बेईमान, सांसदों को झेलना ही पड़ेगा। अब ारा इन्हें मिलने वाली सुविधाओं पर एक नजर डाल लें:-
वेतन 12 हजार रुपए प्रतिमाह
निर्वाचन क्षेत्र खर्च 10 हजार रुपए प्रतिमाह
कार्यालय खर्च 14 हजार रुपए प्रतिमाह
यात्रा में रियायत 8 रुपए प्रतिकिलोमीटर यानी यदि वे केरल से दिल्ली आना-जाना करते हैं, तो इन्हें 48 हजार रुपए की रियायत मिलेगी।
दैनिक भत्ता 500 रुपए।
पूरे भारत में ट्रेन में एसी फर्स्ट क्लास में जितनी चाहे यात्रा कर सकते हैं।
एक वर्ष में विमान के बिजिनेस क्लास में पत्नी या पीए को लेकर वर्ष में 40 बार यात्रा कर सकते हैं।
दिल्ली के एमपी हाउस में नि:शुल्क आवास।
घर के 50 हजार यूनिट तक बिजली मुफ्त
एक लाख 70 हजार लोकल कॉल मुफ्त
इस तरह से एक सांसद (जो कम पढ़ा-लिखा है) पर सरकार हर महीने 2.66 लाख रुपए खर्च करती है। इस तरह से 5 वर्ष में कुल खर्च होता है एक करोड़ 60 लाख रुपए।
आप स्वयं ही समझ सकते है कि इस तरह से देश के कुल 534 सांसदों के पीछे 5 वर्ष में करीब 855 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री कहते हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त लोग अपने खर्च में कटौती करें। क्या यह संभव है?
सांसदों को मिलने वाली इतनी विपुल राशि भी उन्हें कम लगती है। इसके बाद भी यही शिकायत मिलती है कि उन्होंने बिजली बिल, टेलिफोन बिल आदि जमा नहीं किए हैं। सांसदों की इस स्थिति को देखते हुए हाल ही में जब एक प्रोफेसर ने चुनाव लड़ा, उनके जीत जाने पर जब उनसे कहा गया कि आपको प्रोफेसर पद या सांसद पद में से किसी को चुनना पड़ेगा, तो डन्होनें सांसदी ठुकराते हुए पुन: प्रोफेसर पद स्वीकार कर लिया।
26 फरवरी को लोकसभा के सत्र का अंतिम दिन था। इस दिन पता चला कि इतने सारे सांसदों में 15 सांसद ऐसे थे, जिन्होंने पिछले 5 वर्षों में एक बार भी अपना मुँह नहीं खोला। इसमें एक ओर मानव तस्करी के आरोप में पकड़े गए गुजरात दाहोद के बाबूभाई कटारा हैं, तो दूसरी ओर फिल्मों में अपने संवाद में भारी-भरकम शब्द बोलने वाले बीकानेर के सांसद धमर्ेंद्र भी हैं। इन्हें लगा ही नहीं कि उनके क्षेत्र में भी कोई समस्या है। छत्तीसगढ़ से बलिराम कश्यप और सोहन पोटाई भी इन्हीं सांसदों की सूची में हैं। लगता है सरकारी सुविधाओं ने इनकी बोलती ही बंद कर दी है। अगर इन्हें सुविधाएँ कम मिलती, तो निश्चित रूप से इन्हें लगता कि हमें कुछ बोलना चाहिए। सुविधाओं के ढ़ेर पर बैठे लोगों को यही लगता है कि जब हमें कोई परेशानी नहीं है, तो फिर हमारे क्षेत्र के लोगों को क्या परेशानी हो सकती है।
इस बार चुनाव के दौरान आपके सामने जब सांसद वोट माँगने आए, तब उनसे यह अवश्य पूछा जाएगा कि आखिर इतनी सुविधाओं के बाद वे बेईमान क्यों हैं?
डॉ. महेश परिमल
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चिंतन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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