डॉ. महेश परिमल
कर्नाटक चुनाव के परिणाम हम सबके सामने हैं। राहुल गांधी मुस्करा रहे हैं, उधर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं। येद्दियुरप्पा की बगावत भाजपा को इतनी भारी पड़ेगी, यह तो उसने कभी नहीं सोचा था। वैसे भी येद्दि ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वे भाजपा को सत्ता से बाहर कर देंगे। उन्होंने अपना वादा निभाया। पूर्ण बहुमत लेकर कांग्रेस दस वर्ष बाद फिर सत्ता पर काबिज हुई है। एक तरह से उसके लिए एक राहत ही है। कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक संदेश यह भी जाता है कि अब प्रमुख पार्टियों को क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को कम करके नहीं आंकना चाहिए। कर्नाटक में जेडी (एस)दूसरे नम्बर पर है। भाजपा तीसरे नम्बर पर रही। अपने बड़बोलेपन के कारण अपनी पहचान बनाती मायावती की बसपा कर्नाटक में खाता ही नहीं खोल पाई। पहले ऐसा माना जाता था कि बसपा कांग्रेस के दलित वोट बैंक को तोड़ने में कामयाब होगी, पर ऐसा नहीं हो पाया। एक संदेश यह भी गया कि बगावती को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए। येद्दियुरप्पा की बगावत ने आज कर्नाटक का राजनीतिक समीकरण ही बदल दिया। एक व्यक्ति क्या कर सकता है? यह प्रश्न अभी सभी प्रमुख दलों के लिए महत्वपूर्ण बन गया है। कर्नाटक में जो येद्दि ने किया, वह गुजरात में केशुभाई पटेल और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह नहीं कर पाए। इन तीनों में यह साम्यता है कि इनका आधार आरएसएस है।
कर्नाटक में कांग्रेस को अपनी जीत से उतनी खुशी नहीं है, जितनी भाजपा की हार से। यहां कांग्रेस ने भाजपा को जो झटका दिया है, उसे भाजपा कभी भूल नहीं सकती। भाजपा के कमजोर प्रदर्शन से राहुल गांधी के चेहरे पर मुस्कराहट है। नरेंद्र मोदी का चेहरे पर तेज उतर गया है। दक्षिण भारत में मिला एकमात्र राज्य को भाजपा संभाल नहीं पाई। यह उसके लिए आत्मचिंतन का विषय है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए कर्नाटक चुनाव एक एसिड टेस्ट की तरह था। इसमें राहूुल तो पास हो गए, पर नरेंद्र मोदी की हालत पतली हो गई है। अब यह भ्ज्ञी सिद्ध हो गया है कि मतदाता यदि चुनावी सभा में आते हैं, तो इसका यह आशय कतई नहीं है कि वे उसे वोट देने के इरादे से आते हैं। हिमाचल के बाद नरेंद्र मोदी की यह दूसरी परीक्षा थी। नरेंद्र मोदी भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं, पर वोट डालने के लिए मतदाताओं को विवश नहीं कर सकते। भीड़ कभी वोट में तब्दील नहीं हो सकती। यह कर्नाटक चुनाव ने बता दिया। गुजरात में जो हालत कांग्रेस की हुई है, वह हालत भाजपा की कर्नाटक में हुई है। कर्नाटक में इस बार क्षेत्रीय पार्टियों और बागियों ने अपनी ताकत दिखाई है। गुजरात में कांग्रेस-भाजपा की लड़ाई आमने-सामने थी, जबकि कर्नाटक में जंग चतुष्कोणीय थी। भाजपा ने 70 सीटें खोई है, कांग्रेस को 41 सीटें अधिक मिली हैं। जेडीए ने भी अपनी बढ़त बनाते हुए 12 सीटें अधिक प्राप्त की है। इसी तरह केजेपी को 6 और अन्य दलों को 12 सीटें अधिक मिली है। भाजपा को भ्रष्टाचार पर अपनी नीति को स्पष्ट करना होगा। कहीं न कहीं भाजपा को यह दंभ था कि कर्नाटक में उसकी कभी हार नहीं हो सकती, अब यह दंभ भाजपा को शोभा नहीं देता। कहीं कहीं इस तरह का दंभ कांग्रेस में भी दिखता है।
प्रश्न यह है कि क्या कर्नाटक चुनाव का असर केंद्र की राजनीति को कहां तक प्रभावित करेगा। केंद्रीय राजनीति डांवाडोल है। कर्नाटक की जीत से कांग्रेस लोकसभा में बहुमत प्राप्त कर लेगी, यह सोचना गलत होगा। पर अखिल भारतीय कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के लिए यह एक अग्निपरीक्षा थी। जिसे उन्होंने पूरी सफलता के साथ उत्तीर्ण कर ली। इस परिणाम से यह भी सामने आया है कि राहुल युवाओं में लोकप्रिय हैं। दूसरी ओर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ सिंह के लिए यह एक झटका है। 2014 के लोकसभा चुनाव का यह पहला सेमी फाइनल मैच था, जिसमें भाजपा केवल 50 रन भी नहीं बना पाई। वैसे देखा जाए, तो भाजपा ने अहम की लड़ाई में हार का सामना किया है। इस लड़ाई में परदे के पीछे आरएसएस एवं उसकी शाखाओं का वर्चस्व था। भाजपा ने युवाओं को लुभाने की यहां कभी कोशिश ही नहीं की, इसलिए यदा-कदा ऐसे किस्से सामने आते रहे, जिसमें भाजपा ने युवाओं के प्रति क्रूर रवैया अपनाया। मॉरल पुलिस के नाम पर भाजपा संगठनों ने युवाओं पर अपना गुस्सा उतारा था। चुनाव में हार-जीत चलती ही रहती है, पर इस समय तो भाजपा के लिए यह आत्म मंथन का विषय है कि आखिर बगावत को किस तरह से रोका जाए? कांग्रेस जब उत्तर प्रदेश में हारी, तब उसकी स्थिति भी भाजपा जैसी ही थी। कर्नाटक में लोकसभा की 28 सीटें हैं। उत्तर प्रदेश में कुल 80 सीटें हैं। कांग्रेस-भाजपा में मूल लड़ाई तो इन्हीं 80 सीटों के लिए ही है। क्योंकि यहीं की सीटों की बदौलत मुलायम-मायावती केंद्र की सरकार पर नकेल डालते रहते हैं। कर्नाटक के चुनाव परिणाम कांग्रेस को थोड़ी राहत तो दे ही सकते हैं, पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार पर जो तीखी टिप्पणी की है, उससे कांग्रेस कर्नाटक की जीत की खुशी भी नहीं मना सकती।
कर्नाटक में भाजपा को मिली हार से सबसे अधिक खुशी नीतिश कुमार एवं शरद यादव को हुई होगी। नीतिश कुमार नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं। इस चुनाव परिणाम के बाद नीतिश मोदी के खिलाफ और अधिक आक्रामक हो सकते हैं। एनडीए की बैठक में भाजपा की इस हार की चर्चा तो होगी ही कि विधानसभा के चुनाव किस तरह से लड़े जाएं। इस हार से भाजपा कुछ सीखे, तो अच्छा है। नहीं तो संभव है 2014 के लोकसभा चुनाव में सौ सीटों तक ही सिमट जाए। कुछ भी कर्नाटक के चुनाव ने यह बता दिया कि पार्टी में ऐसे हालात पैदा ही न हों, जिससे बागी पेदा हों। एक बागी क्या नहीं कर सकता, इसे गंभीरता से लेना होगा। इसके अलावा अंतर्कलह पर किस तरह से काबू पाया जाए, यह भी एक सबक है। भाजपा ने यही गलती की। येद्दियुरप्पा के भ्रष्टाचार को पहले तो अनदेखा किया, बाद में उसे गंभीरता से लेते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया। पर भ्रष्टाचार पर भाजपा की नीतियां स्पष्ट नहीं हो पाई। भ्रष्टाचार को लेकर इधर वह केंद्र पर प्रहार करती रही और उधर येद्दिुयरप्पा के भ्रष्टाचार को संरक्षण देती रही। रेड्डी बंधुओं की करतूतों पर हमेशा परदा डालने वाली भाजपा आखिर किस मुंह से जनता से वोट मांगती? सभाओं में भीड़ से वोट का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। भाजपा के लिए यह गंभीर चिंतन नहीं बल्कि आत्ममंथन का समय है।
डॉ. महेश परिमल
कर्नाटक चुनाव के परिणाम हम सबके सामने हैं। राहुल गांधी मुस्करा रहे हैं, उधर नरेंद्र मोदी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं। येद्दियुरप्पा की बगावत भाजपा को इतनी भारी पड़ेगी, यह तो उसने कभी नहीं सोचा था। वैसे भी येद्दि ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि वे भाजपा को सत्ता से बाहर कर देंगे। उन्होंने अपना वादा निभाया। पूर्ण बहुमत लेकर कांग्रेस दस वर्ष बाद फिर सत्ता पर काबिज हुई है। एक तरह से उसके लिए एक राहत ही है। कर्नाटक चुनाव परिणाम से एक संदेश यह भी जाता है कि अब प्रमुख पार्टियों को क्षेत्रीय दलों के प्रभाव को कम करके नहीं आंकना चाहिए। कर्नाटक में जेडी (एस)दूसरे नम्बर पर है। भाजपा तीसरे नम्बर पर रही। अपने बड़बोलेपन के कारण अपनी पहचान बनाती मायावती की बसपा कर्नाटक में खाता ही नहीं खोल पाई। पहले ऐसा माना जाता था कि बसपा कांग्रेस के दलित वोट बैंक को तोड़ने में कामयाब होगी, पर ऐसा नहीं हो पाया। एक संदेश यह भी गया कि बगावती को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए। येद्दियुरप्पा की बगावत ने आज कर्नाटक का राजनीतिक समीकरण ही बदल दिया। एक व्यक्ति क्या कर सकता है? यह प्रश्न अभी सभी प्रमुख दलों के लिए महत्वपूर्ण बन गया है। कर्नाटक में जो येद्दि ने किया, वह गुजरात में केशुभाई पटेल और उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह नहीं कर पाए। इन तीनों में यह साम्यता है कि इनका आधार आरएसएस है।
कर्नाटक में कांग्रेस को अपनी जीत से उतनी खुशी नहीं है, जितनी भाजपा की हार से। यहां कांग्रेस ने भाजपा को जो झटका दिया है, उसे भाजपा कभी भूल नहीं सकती। भाजपा के कमजोर प्रदर्शन से राहुल गांधी के चेहरे पर मुस्कराहट है। नरेंद्र मोदी का चेहरे पर तेज उतर गया है। दक्षिण भारत में मिला एकमात्र राज्य को भाजपा संभाल नहीं पाई। यह उसके लिए आत्मचिंतन का विषय है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के लिए कर्नाटक चुनाव एक एसिड टेस्ट की तरह था। इसमें राहूुल तो पास हो गए, पर नरेंद्र मोदी की हालत पतली हो गई है। अब यह भ्ज्ञी सिद्ध हो गया है कि मतदाता यदि चुनावी सभा में आते हैं, तो इसका यह आशय कतई नहीं है कि वे उसे वोट देने के इरादे से आते हैं। हिमाचल के बाद नरेंद्र मोदी की यह दूसरी परीक्षा थी। नरेंद्र मोदी भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं, पर वोट डालने के लिए मतदाताओं को विवश नहीं कर सकते। भीड़ कभी वोट में तब्दील नहीं हो सकती। यह कर्नाटक चुनाव ने बता दिया। गुजरात में जो हालत कांग्रेस की हुई है, वह हालत भाजपा की कर्नाटक में हुई है। कर्नाटक में इस बार क्षेत्रीय पार्टियों और बागियों ने अपनी ताकत दिखाई है। गुजरात में कांग्रेस-भाजपा की लड़ाई आमने-सामने थी, जबकि कर्नाटक में जंग चतुष्कोणीय थी। भाजपा ने 70 सीटें खोई है, कांग्रेस को 41 सीटें अधिक मिली हैं। जेडीए ने भी अपनी बढ़त बनाते हुए 12 सीटें अधिक प्राप्त की है। इसी तरह केजेपी को 6 और अन्य दलों को 12 सीटें अधिक मिली है। भाजपा को भ्रष्टाचार पर अपनी नीति को स्पष्ट करना होगा। कहीं न कहीं भाजपा को यह दंभ था कि कर्नाटक में उसकी कभी हार नहीं हो सकती, अब यह दंभ भाजपा को शोभा नहीं देता। कहीं कहीं इस तरह का दंभ कांग्रेस में भी दिखता है।
प्रश्न यह है कि क्या कर्नाटक चुनाव का असर केंद्र की राजनीति को कहां तक प्रभावित करेगा। केंद्रीय राजनीति डांवाडोल है। कर्नाटक की जीत से कांग्रेस लोकसभा में बहुमत प्राप्त कर लेगी, यह सोचना गलत होगा। पर अखिल भारतीय कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने के बाद राहुल गांधी के लिए यह एक अग्निपरीक्षा थी। जिसे उन्होंने पूरी सफलता के साथ उत्तीर्ण कर ली। इस परिणाम से यह भी सामने आया है कि राहुल युवाओं में लोकप्रिय हैं। दूसरी ओर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजनाथ सिंह के लिए यह एक झटका है। 2014 के लोकसभा चुनाव का यह पहला सेमी फाइनल मैच था, जिसमें भाजपा केवल 50 रन भी नहीं बना पाई। वैसे देखा जाए, तो भाजपा ने अहम की लड़ाई में हार का सामना किया है। इस लड़ाई में परदे के पीछे आरएसएस एवं उसकी शाखाओं का वर्चस्व था। भाजपा ने युवाओं को लुभाने की यहां कभी कोशिश ही नहीं की, इसलिए यदा-कदा ऐसे किस्से सामने आते रहे, जिसमें भाजपा ने युवाओं के प्रति क्रूर रवैया अपनाया। मॉरल पुलिस के नाम पर भाजपा संगठनों ने युवाओं पर अपना गुस्सा उतारा था। चुनाव में हार-जीत चलती ही रहती है, पर इस समय तो भाजपा के लिए यह आत्म मंथन का विषय है कि आखिर बगावत को किस तरह से रोका जाए? कांग्रेस जब उत्तर प्रदेश में हारी, तब उसकी स्थिति भी भाजपा जैसी ही थी। कर्नाटक में लोकसभा की 28 सीटें हैं। उत्तर प्रदेश में कुल 80 सीटें हैं। कांग्रेस-भाजपा में मूल लड़ाई तो इन्हीं 80 सीटों के लिए ही है। क्योंकि यहीं की सीटों की बदौलत मुलायम-मायावती केंद्र की सरकार पर नकेल डालते रहते हैं। कर्नाटक के चुनाव परिणाम कांग्रेस को थोड़ी राहत तो दे ही सकते हैं, पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र सरकार पर जो तीखी टिप्पणी की है, उससे कांग्रेस कर्नाटक की जीत की खुशी भी नहीं मना सकती।
कर्नाटक में भाजपा को मिली हार से सबसे अधिक खुशी नीतिश कुमार एवं शरद यादव को हुई होगी। नीतिश कुमार नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं। इस चुनाव परिणाम के बाद नीतिश मोदी के खिलाफ और अधिक आक्रामक हो सकते हैं। एनडीए की बैठक में भाजपा की इस हार की चर्चा तो होगी ही कि विधानसभा के चुनाव किस तरह से लड़े जाएं। इस हार से भाजपा कुछ सीखे, तो अच्छा है। नहीं तो संभव है 2014 के लोकसभा चुनाव में सौ सीटों तक ही सिमट जाए। कुछ भी कर्नाटक के चुनाव ने यह बता दिया कि पार्टी में ऐसे हालात पैदा ही न हों, जिससे बागी पेदा हों। एक बागी क्या नहीं कर सकता, इसे गंभीरता से लेना होगा। इसके अलावा अंतर्कलह पर किस तरह से काबू पाया जाए, यह भी एक सबक है। भाजपा ने यही गलती की। येद्दियुरप्पा के भ्रष्टाचार को पहले तो अनदेखा किया, बाद में उसे गंभीरता से लेते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया। पर भ्रष्टाचार पर भाजपा की नीतियां स्पष्ट नहीं हो पाई। भ्रष्टाचार को लेकर इधर वह केंद्र पर प्रहार करती रही और उधर येद्दिुयरप्पा के भ्रष्टाचार को संरक्षण देती रही। रेड्डी बंधुओं की करतूतों पर हमेशा परदा डालने वाली भाजपा आखिर किस मुंह से जनता से वोट मांगती? सभाओं में भीड़ से वोट का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। भाजपा के लिए यह गंभीर चिंतन नहीं बल्कि आत्ममंथन का समय है।
डॉ. महेश परिमल