मुफ्तखोरी एक धीमा जहर
डॉ. महेश परिमल
हाल ही में दिल्ली में एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि सरकार द्वारा मुफ्त में दी जाने वाली सुविधाओं के कारण अब लोग पेट की आग बुझाने के लिए श्रम करने से कतराने लगे हैं। खाली समय का उपयोग वे अब अपराध में करते हैं। ऐसे लोग काम की तलाश में नहीं निकलते। इनका अधिकांश समय गप्पबाजी में निकल जाता है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे व्यक्ति की उत्पादकता पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि उसे अपना जीवन गुजारने के लिए अधिक धन की आवश्यकता ही नहीं होती। इसे ही यदि दूरदृष्टि से देखा जाए, तो यह कहा जा सकता है कि हमारे यहां जिस तरह का बीज अभी बोया जा रहा है, श्रीलंका में उसकी कटाई हो रही है। मुफ्त में तमाम सुविधाएं देने वाले राज्यों से यह पूछा जाना चाहिए कि आखिर इसके लिए वे वित्तीय प्रबंध किस तरह से करेंगे? राज्य अगर किसी गृह उद्योग के लिए मुफ्त में शेड देता हे, या बिजनेस के लिए बिना ब्याज के कर्ज देता है, तो इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। किंतु जीवन के लिए आवश्यक चीजों को मुफ्त में देने की घोषणा की जाती है, तो व्यक्ति काम की तलाश में घर से ही नहीं निकलेगा। ऐसे में पूरी एक पीढ़ी को ही काहिल बना दिया जाएगा।
अभी पंजाब सरकार ने मतदाताओं के लिए कई घोषणाएं की हैं। इसमें प्रमुख है एक जुलाई से 300 यूनिट मुफ्त बिजली। अन्य कई घोषणाएं भी हैं, पर सभी जनोपयोगी हैं। यह तो होना ही चाहिए, पर मुफ्त बिजली देकर सरकार आम जनता को एक मायावी संसार में धकेल रही है। हम सब देख रहे हैं कि अधिकांश राज्य आज कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। आम जनता से करों से प्राप्त धन मुफ्त की चीजों को देने में खर्च हो रहा है। राज्य सरकारों को यदि मुफ्त की चीजें देना ही है, तो पार्टी फंड से दिया जाए, सरकारी धन का उपयोग मुफ्तखोरी के लिए देना उचित नहीं है। इससे सरकारी तिजोरी पर भार बढ़ता है। जनता को कितनी भी चीजें मुफ्त में दी जाए, उस कम ही लगेगी। इससे सरकारें बहुत ही जल्दी कर्ज में डूब जाएंगी। कर्ज के पहाड़ के नीचे दब श्रीलंका की हालत हम सभी देख रहे हैं। कर्ज लेते समय उसे यह आभास भी नहीं था कि इसे देना भी पड़ेगा। चीन ने जो जाल उस पर फेंका, उसमें वह उलझ गया है। अब उसे समझ में आ रहा है कि मुफ्त की चीजें देना उसके लिए जी का जंजाल बन गया है। आज वहां सभी आवश्यक चीजों के दाम आसमान छूने लगे हैं। लोगों का जीना ही दूभर हो गया है। वह दिन दूर नहीं जब वहां भुखमरी शुरू हो जाएगी। भारत का इससे सबक लेना चाहिए। आम जनता को मुफ्त में चीजें देने से अर्थतंत्र पर सीधा असर पड़ता है। एक तरफ देश में फैला भ्रष्टाचार तो दूसरी तरफ मुफ्तखोरी, इससे लोगों की उत्पादकता पर सीधा असर हुआ है। लोग काम करने से कतराने लगे हैं।
देश में इस समय जो प्रदूषण है, उसका मुख्य बिंदु राजनीति है। नेता अपने स्वार्थ के कारण लोगों को मुफ्त में अनाज आदि देने की घोषणा तो कर देते हैं, पर जब उस पर अमल करने का समय आता है, तो उनकी हालत खराब हो जाती है। सरकारें केंद्र से सहायता की गुहार लगाती है। केंद्र से मिलने वाली सहायता राशि का ब्याज ही इतना अधिक होता है कि राज्य सरकारें ब्याज भी नहीं चुका पाती। मूल धन वहीं का वहीं रहता है। वैसे देखा जाए, तो मुफ्त की सुविधाएं देने का सिलसिला तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के समय से शुरू हुआ था। उसके पदचिह्नों पर आजकल दिल्ली की सरकार चल रही है। अब तो चुनाव जीतने के लिए मुफ्त की सुविधाएं देना एक ब्रह्मास्त्र बन गया है। इसके बिना कोई भी चुनाव नहीं जीता जा सकता।
बहरहाल किसी भी दल में यह हिम्मत नहीं है कि वह दूसरे दल से यह कह सके कि मुफ्त में आवश्यक चीजें देने की घोषणा करना गलत है। सभी सत्ता पर काबिज होने के लिए इस तरह की घोषणाएं करते हैं। अभी फरवरी-मार्च महीने में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, उस दौरान गोवा में मुफ्त की चीजें देने की बहार ही आ गई। मतदाताओं को इतने अधिक प्रलोभन दिए गए कि यदि सभी को अमल में लाया गया, तो किसी को नौकरी करने की जरूरत ही न पड़े। मतदाताओं को जितना दो, उतना कम ही है। पर यह सब उन तक पहुंचता है, सरकारी तिजोरियों के माध्यम से। कुछ समय बाद ही यह तिजोरी खाली हो जाती है। फिर भीख मांगने की नौबत आ जाती है। उसके बाद भी मुफ्त में दी जाने वाली चीजों पर रोक नहीं लगती।
इस दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने कई बार तल्ख टिप्पणी की है। पर नेता इससे बाज नहीं आते। प्रलोभन की यह राजनीति खत्म होनी चाहिए। इसके लिए सबसे बड़ी बात जागरूकता की है। आम जनता को यह समझना चाहिए कि मुफ्त की यह चीजें अभी भले ही अच्छी लग रही हों, पर भविष्य में इसका बुरा असर होगा। देश के सर पर कर्ज और बढ़ेगा, लोग महंगाई के बोझ तले दब जाएंगे। होना तो यह चाहिए कि मुफ्त की चीजें यदि पार्टी फंड से दी जाएं, तो नेताओं को समझ में आ जाएगा कि इसमें कितना धन लगता है। इस समय सभी दलों के पास बेशुमार राशि है, इसका उपयोग मतदाताओं को लुभाने के लिए किया जाए। यह फंड भी उन्हें देश के लोगों से ही प्राप्त हुआ है, तो क्यों न इसे वे देशवासियों के लिए ही उपयोग में लाएं।
यह सच है कि मुफ्तखोरी से किसी का भला नहीं होने वाला। अब यह लोगों की आदत में शामिल हो रही है। यह एक प्रदूषण है, जो हमारे शरीर के लिए धीमे जहर का काम कर रहा है। हमारे भीतर के मेहनतकश इंसान को खत्म कर रहा है। जब बिना काम के घर में राशन आ रहा हो, तो फिर काम करने की क्या जरूरत? यह सोच इंसान को बरबाद कर रही है। नेता शायद ही इसे समझ पाएं, पर जनता इसे समझ जाए, तो ही ठीक है, नहीं तो हम सभी को अपने अंधेरे भविष्य को देखने के तैयार होना होगा।
डॉ. महेश परिमल
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