मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

गिरते विचारों का मौसम

11 मार्च  2022 को जनसत्ता में प्रकाशित


10 अप्रैल 22 को नवभारत रायपुर में प्रकाशित



चिड़िया...कवि और व्यथा

समाज पर सांस्कृतिक हमले होते ही रहते हैं। इससे सबसे ज्यादा दु:खी कवि हृदय होता है। समाज का यही वर्ग सबसे अधिक संवेदनशील होता है। इसलिए ऐसे हमलों से इनका आहत होना लाजिमी है। इन दिनों छत्तीसगढ़ के रसखान कहे जाने वाले लोक कवि मीर अली मीर बुरी तरह से आहत हैं। उनकी पीड़ा हाल ही में जारी एक वीडियो से जारी हुई है। एक तरफ तो वे सुदूर गांवों में लगने वाले मोबाइल टॉवर से व्यथित हैं। इन टॉवर्स से निकलने वाले विकिरण से गांवों से चिड़ियों ने विदा ले ली है। अब गांवों में पखेरुओं का डेरा दिखाई नहीं देता। हर गांव-शहर की सुबह अब चिड़ियों की चहचहाट से नहीं, बल्कि मोबाइल ने निकलने वाली चिड़ियों की आवाज से होती है। कहते हैं समय परिवर्तनशील है, पर समय के साथ जीवन मूल्य भी इतनी तेजी से बदल जाते हैं, यह अब महसूस हो रहा है।

कवि मीर अली मीर लुप्त होती चिड़ियों को लेकर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- उड़ा जाही का रे, उड़ा जाही का रे, उड़ा जाही का, कलरव करैया, फुदुर-फुदुर फुदके चिहुर परैया, मोर सोनचिरैया, उड़ा जाही का रे...यानी उड़ जाएगी क्या, उड़ जाएगी क्या, चहचहाने वाली, फुदकने वाली मेरी सोन चिरैया हमेशा-हमेशा के लिए उड़ जाएगी क्या? ये केवल एक कवि की ही पीड़ा नहीं है, बल्कि आज पर्यावरण के सभी साथियों के लिए चिंता का विषय है। आज मानवजाति पर संचार व्यवस्था के संसाधन बुरी तरह से हावी हो गए हैं। परस्पर सम्पर्क रखने की चाहत ने आज संपूर्ण मानव जाति को ही हिलाकर रख दिया है। कई बार ऐसा लगता है कि मानव निरक्षर था, तो ही ठीक था, कम से कम अपनी जिंदगी जी तो लेता था। आज अतिशिक्षित होकर वह न तो अपनी जिंदगी जी पा रहा है और न ही अपनों को अच्छी तरह से जीने की प्रेरणा दे पा रहा है। संशय का एक संजाल हमारे आसपास फैल गया है, जिसमें हर कोई उलझ गया है।

छत्तीसगढ़ के कवि का वीडियो आया, तो उसकी पीड़ा समझ में आई। इसके पहले उनकी यह कविता कहीं प्रकाशित भी हुई होगी, पर लोगों की नजरों से नहीं गुजरी। अब वीडियो के माध्यम से लोगों ने उसे जाना और उनकी पीड़ा को समझा। कवि मीर अली मीर की पीड़ा आज घनीभूत होकर हम सबको सोचने के लिए विवश कर रही है। वास्तव में यह आज देश के जन-जन की पीड़ा है। बस इसे अभिव्यक्त करने का माध्यम नया है। आज देश के कोने-कोने में लोग धरती की पीड़ा को शब्द देने का प्रयास कर रहे हैं, पर कितनों की पीड़ा इस तरह से सामने आई? वे सोन चिरैया की लुप्त होती प्रजाति के लिए चिंतित हैं। 

धूप दिनों-दिन तीखी होती जा रही है। शहरों के दूर वीरानों में इक्का-दुक्का चिड़ियाएं दिखाई दे जाती हैं। घर की मुंडेरों पर चिड़िया दिखाई नहीं देती। घरों की गैलरियों में आजकल नेट लगा दिए गए हैं, जहां चिड़ियों का प्रवेश वर्जित है। उनकी चहचहाट पर हम रोक लगा रहे हैं। हां, बाजारों में चिड़ियों को दाना देने के लिए कुछ उपकरण अवश्य दिखाई देने लगे हैं। ये उपकरण आजकल कुछ घरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। ध्यान से देखने पर उन उपकरणों में न तो दाना मिलता है और न ही पानी।

20 मार्च को हम गौरैया दिवस मनाते भी हैं। पर उस दिन के बाद कौन याद करता है चिड़ियों को? यदि थोड़ी-बहुत चिड़ियाएं शेष हैं, तो उनके दाना-पानी की व्यवस्था के लिए कितने लोग सचेत हैं? वैसे भी हमारे देश में दिवस केवल दिवस को ही याद किए जाते हैं। कई ऐसे दिवस भी हैं, जिस दिन उस दिवस के नाम पर केवल नाटकबाजी ही होती है। सच्चाई से उसका कोई वास्ता नहीं होता। बहरहाल हम सब महामारी के भीषण दौर से गुजर रहे हैं, जहां इंसानियत के नाम पर रोज ही नाटकबाजी हो रही है। ऐसे में इंसान की क्या औकात? जब इंसान की औकात नहीं है, तो फिर किसे फिक्र है, चिड़ियों को बचाने की? कवियों की पीड़ा, पर्यावरण प्रेमियों की पीड़ा के लिए आखिर किसके पास समय है़?


सोचता हूं भावी पीढ़ी को हम अपने पर्यावरण के बारे में कैसे और क्या बताएंगे? उन्हें चिड़ियों की चहचहाट सुनाने के लिए क्या हमें मोबाइल का सहारा लेना होगा? जंगली जानवरों की आवाज और उनकी आदतों के बारे में वे क्या केवल किताबों या फिर इंटरनेट के माध्यम से ही जान पाएंगे। हमने तो अपने बच्चों को बता दिया कि चिड़ियाएं कैसी होती हैं, उनकी आवाज कैसी होती है, पर वे अपने बच्चों को किस तरह से बताएंगे? हमारी भावी पीढ़ी हम पर किस तरह से गर्व करेगी? आज हम अपने माता-पिता या दादा-दादी, नाना-नानी को याद कर उनकी बातों पर गर्व कर सकते हैं। पर हम भावी पीढ़ी के लिए ऐसा क्या छोड़कर जाएंगे, जिससे उन्हें हम पर गर्व हो? हमने तो केवल बरबादियों का जश्न मनाते देखा है, तो फिर उन्हें कैसे बताएंगे कि चिड़िया कैसे फुदकती थी, कबूतर कैसे गुटरुं गूं करते थे। हिरण कैसे कुलांचे मारते थे, सिंहों का गर्जन कैसा होता था? अरे देखते ही देखते हमारे शब्दकोश से कांव-कांव वाला मुहावरा ही गायब हो गया। हम खामोश होकर शून्य में ताक रहे हैं। इस विजन में चारों तरफ अब हरियाली नहीं, बल्कि कंक्रीट के जंगल ही जंगल दिखाई दे रहे हैं। इन जंगलों में कहीं भी संवेदनाओं की हरी कोंपल तक दिखाई नहीं देती। भावनाओं की लहलहाती फसलों की बात ही छोड़ दो। किसान भरपूर निगाहों से अपने खेत को नहीं देख पाता, खलिहान खुद के लबालब होने का इंतजार कर रहे हैं। सुना है, नदी के पेट को चीरकर बांध बनाने की योजना बन रही है। शहरों के पेट में समाए गांव और बांधों के पेट में समा गई नदियां, ऐसे ही गुज़र जाएंगी सदियां….

डॉ. महेश परिमल




 

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