शुक्रवार, 11 जुलाई 2008
नामधारी सड़कें और उनके कर्त्तव्य
डॉ. महेश परिमल
देश के किसी भी शहर में चलें जाएँ, वहाँ राष्ट्रीय एकता को दर्शाने वाला महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, आंजाद मार्ग, भगतंसिंह मार्ग, गुरुनानक चौक या फिर उस क्षेत्र के किसी नामधारी शहीद, दिवंगत नेता के नाम से कुछ न कुछ मिल ही जाएगा. दूसरी ओर साहित्यिक विभूतियों के नाम से भी कुछ न कुछ संस्थान, मार्ग या चौक का नामकरण होगा ही. यह बहुत अच्छी बात है, इससे वे सभी गाहे-बगाहे हमें याद आते रहते हैं. हमारी भूलने की आदत पर लगाम कसते हैं.
आजकल सड़कों के नाम स्थानीय दिवंगत नेताओं, सामाजिक कार्र्यकत्ताओं या धन्ना सेठों के नामों से होने लगे हैं. जिस दिन सड़क का नामकरण होता है, उस दिन तो सड़क खूब साफ-सुथरी नई नवेली दुल्हन-सी होती है. इस अवसर पर बहुत से नामचीन लोग इकट्ठे होते हैं, दिवंगत को याद किया जाता है. उन्हें महापुरुष घोषित किया जाता है, उनके आदर्शों पर चलने की दुहाई दी जाती है. घंटे दो घंटे रास्ता जाम रहता है. फिर सब कुछ ठंडा पड़ जाता है.
मुश्किल तब होती है, जब रखरखाव के अभाव में वही सड़क बदहाल हो जाती है.तब उसकी पूछपरख करने वाला कोई नहीं होता. यहाँ तक कि नामकरण के भव्य आयोजन मेें जिन्हें महामानव, महापुरुष बताया गया, उनके सगे-संबंधी, नाते-रिश्तेदार भी उस सड़क की बदहाली की तरफ ध्यान नहीं देते. ये कैसी भक्ति, कैसी आस्था? कथित महापुरुष के नाम से पहचानी जाने वाली सड़क पर बड़े-बड़े गङ्ढे जगह-जगह उखड़ती गिट्टी बदरंग रास्ता. ऐसे में रात-बेरात वहाँ गङ्ढे के कारण कोई दुर्घटना हो गई, कोई अपंग हो गया या फिर मृत्यु को ही प्राप्त हो गया, तब क्या मृतक के परिजन उस नामधारी व्यक्ति का नाम लेकर बार-बार खुद को नहीं कोसेंगे? क्या गुजरती होगी, उस मृतात्मा पर? कभी सोचा है उस महापुरुष के पुत्र-पौत्रों ने. इस तरह से देखा जाए, तो वह नामकरण समारोह एक ओपचारिकता बनकर रह जाता है. बिलकुल सरकारी वन महोत्सव की तरह. इधर मंत्री ने पौधा लगाया, उधर बकरी ने खाया.
अक्सर इस तरह की नामधारी सड़कों के साथ ऐसा ही होता है. वैसे तो सड़कों की मरम्मत का काम लोक निर्माण विभाग या नगर पालिका, नगर निगम का होता है. पर इनसे सड़कों की मरम्मत की आशा करना बेकार है. इन विभागों में यह आम धारणा है कि जब उस नामधारी व्यक्ति से जुड़े लोग ही उस सड़क का ध्यान नहीं रख रहे हैं, तो हम क्यों चिंता करें? उधर वे लोग सोचते हैं कि समारोह के बाद तो सड़क नगर निगम की सम्पत्ति हो गई, वही उसका खयाल रखे. अहम के इस द्वंद्द में बेचारा राहगीर बार-बार लहूलुहान होता है. कभी अपने को कोसता है, कभी उस नामधारी व्यक्ति को.
सवाल यह उठता है कि क्या एक सड़क के नामकरण मात्र से उस व्यक्ति का नाम अमर हो जाता है? अव्यवस्थित सड़क के नाम को लोग कालांतर में भुला देते हैं. वैसे भी व्यक्ति विशेष के नाम से होने वाले इस नामकरण को लोग मुखसुख के कारण छोटे से छोटा कर लेते हैं. एम.जी. रोड, जे.एल.एन. मार्ग आदि बहुत ही प्रचलित हो गए हैं. लेकिन महाराणा प्रताप नगर को एम.पी. नगर और मौलाना आंजाद नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ टेक्नालॉजी को एमएसीटी कहना और गुरु तेग बहादुर काम्पलेक्स को जीटीबी काम्पलेक्स, महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज को एमएलबी कॉलेज कहना कहाँ तक उचित है?
इस तरह से लोग मूल नाम से बहुत दूर निकल जाते हैं. यह तय है कि कुछ वर्षों बाद तो कोई नामलेवा भी नहीं रह जाता, फिर नामकरण समारोह का क्या औचित्य? अच्छा होता उस सड़क के किनारे कुछ पौधे रोप दिए जाते और कुछ समय तक उसकी देखभाल की जाती, तो संभव है कि यह पर्यावरण सुधार की दिशा में एक सार्थक कदम होता. पेड़ से जो लाभ होता, वह सड़क के गङ्ढों से कहीं ज्यादा है. नगर निगम को भी यह आदेश निकालना चाहिए कि जिस नामचीन व्यक्ति के नाम से उक्त सड़क है, निश्चित ही वो धन्ना सेठ है, तो उसका रखरखाव भी वही करे. इस तरह से वे अपने बुजुर्ग सरमायादार की याद को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाएँगे. दूसरी ओर किसी के भी नाम से सड़कों के नामकरण से लोग बाज आएँगे. हर किसी की किस्मत दगड़ू सेठ की तरह नहीं होती कि उनके नाम से गणेश की प्रतिमा को पहचाना जाए. पुणे में आज भी लोग गणेश की एक प्राचीन प्रतिमा को दगड़ू सेठ के नाम से जाना जाता है.
आजकल व्यक्ति के जीते-जी जो नहीं हो पाता, वह उसके मरने के बाद हो रहा है. ंगरीबी और अभाव में तिल-तिलकर मौत के करीब जाने वाले अमीर पुत्र के बेबस पिता जब मृत्यु को प्राप्त होते हैं, तो उनके श्राध्द का बहुत बड़ा आयोजन होता है. उनके नाम से संस्था भी खुल जाती है, क्या यही है सच्ची श्रद्धांजलि!
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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जवाब देंहटाएंकोई मर गया। अर्थी जा रही थी। मैंने नाम पूछा, "अमरसिंह"।
जवाब देंहटाएंघर में झाड़ू-बुहारी करने के लिये सफाईवाली रखी। नाम पूछा, "लक्ष्मी"।
बेचारी इन सड़कों का भी वही हाल है। लगता है इन्होंने हम इंसानों से ही सीखा है।
नाम में क्या रखा है?
आपके विचार के लिए आपका धन्यवाद, विश्वास है विचारों की यह गंगा सदैव प्रवाहित होती रहेगी। आपका ईश्वर सदैव आपके साथ रहे।
जवाब देंहटाएंडॉ. महेश परमिल
डॉ. महेश परिमल जी इन सडको का बुरा हाल हम सब की गलतियो से, घटिया समान से, ओर शासन की लापरवाही से ही होता हे, होना चाहिये जो भी सडक पर खुदई करे, साथ के साथ उसे पहले जेसा बनाये, तभी उसे उस के काम के पेसे मिले,अगर उस जगह खढा हे ओर कोई दुर्घटना घटती हे उस खढे के कारण तो उस कम्पनी या उस संस्थान को सारा खर्च देना चाहिये उस दुर्घटना का, ओर जब भी कोई सडक बने उस की गारण्टी होनी चाहिये २,३, ८ साल तक की यह सडक इन सालो मे खारब नही होगी, फ़िर देखे ... लेकिन इन सब को करे कोन सभी तो चो..... हे, कुछ शब्द नये हे मेरे लिये गल्तियो की ओर ध्यान ना दे, धन्यवाद
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