गुरुवार, 17 जुलाई 2008
से यस टू प्लास्टिक
नीरज नैयर
ऐसे वक्त में जब प्लास्टिक के दुष्प्रभाव को लेकर बहस छिड़ी हुई है यह कहना से यस टू प्लास्टिक किसी के गले नहीं उतरने वाला. और वैसे गले उतरने वाली बात भी नहीं है, प्लास्टिक के खतरों से हम सब अच्छी तरह वाखिफ हैं. आज प्लास्टिक की प्रलय से दुनिया का कोई भी कोना अछूता नहीं है. एक वर्ग किलोमीटर समुद्र में प्लास्टिक के औसतन 46000 टुकड़े तैरते रहते हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां भी पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं. लंदन की टेम्स नदी ही जब भारतीयों द्वारा आस्था के नाम पर फेंके जा रहे प्लास्टिक बैग्स से त्रस्त है तो फिर देश की नदियों के बारे में क्या कहना. यमुना ने तो दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं. बावजूद इसके ठीक उसी तरह जिस तरह एक सिक्के के दो पहलू होते हैं प्लास्टिक का दूसरा रूप भी है. पर्यावरणविद भले ही लंबे समय से प्लास्टिक को खतरा मानकर प्रयोग न करने के लिए जागरुकता अभियान चल रहे हाें मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिक पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिक पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिक का ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं है.
प्लास्टिक को लेकर उठे विवाद के बीच इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध ने इसकी मुखालफत करने वालों को सोचने पर मजबूर कर दिया है. बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलों के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिक पर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिक के बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिक का महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिक के बोरों के उपयोग से 12000 करोड रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता को नजर अंदाज करके यह कहना कि इससे जीवन दुश्वार हो गया है, कोई समझदारी की बात नहीं. सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. यह बात सही है कि प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग से इसके कचरे में वृद्धि हुई है. और इसे जलाकर ही नष्ट किया जला सकता है पर अगर ऐसा किया जाता है तो यह पर्यावरण के लिए घातक साबित होगा. ऐसे में इस समस्या का केवल एक ही समाधन है, रिसाईकिलिंग. कुछ समय पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रिसाईकिलिंग किया जा सके. वैसे भी भारत में सालाना प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उपयोग 0.3 किलो है, जो विश्व औसत 19 किलो से खासा कम है. इसलिए ज्यादा चिंता की बात नहीं. वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रिसाईकिलिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाईकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रिसाईकिलिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिक को अगर अधिक से अधिक रिसाईकिलिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. इसके साथ-साथ प्लास्टिक के बेजा उपयोग को लेकर नियम और कायदों को भी सख्त बनाने की जरूरत है. हमारे देश में पर्यटन स्थलों पर आने वाले सैलानी अपनी मनमर्जी के मुताबिक प्लास्टिक बैग्स को यहां-वहां फैंक जाते हैं. इससे न केवल उस क्षेत्र की खूबसूरती खराब होती है बल्कि उसका खामियाजा पर्यावरण को उठाना पड़ता है. वर्ष 2003 में हिमाचल सरकार ने भारत के पहले राज्य के रूप में इस दिशा में अनूठी पहल की थी. राज्य सरकार ने ऐसा कानून बनाया था जिसके तहत पॉलिथिन बैग का प्रयोग करते पाए जाने पर सात साल की कैद या एक लाख रुपए जुर्माने का प्रावधान था. ठीक ऐसे ही दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक बैगों के उपयोग पर दस साल की सजा और आयरलैंड सरकार ने प्लास्टिक बैगों पर टैक्स लगाकर इसके प्रयोग को काबू में किया था. प्लास्टिक में भले ही कितनी खामियां क्यों न हो मगर इसकी उपयोगिता से आंखे नहीं मूंदी जा सकती. लिहाजा सरकार को इस पर प्रतिबंध की बात सोचने के बजाए मौजूद अन्य विकल्पों पर ध्यान देने की ज्यादा जरूरत है.
नीरज नैयर
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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