बुधवार, 23 जुलाई 2008

खुशियाँ मनाओ, हम खुश खुशमिजाज हैं


डा. महेश परिमल
खुश होना एक अच्छी आदत है, पर इतनी सारी खुशियाँ आखिर हम लाएँ कहाँ से कि हम हर पल खुश रह सकें. खुशियाँ कहीं बाजार में तो मिलती नहीं, जिसे चाहे जिस भाव में खरीद लिया. यह तो स्वस्फूर्त प्रक्रिया है, यह हमारे भीतर से आती है. इसे पाने के लिए हमें कहीं जाना नहीं पड़ता. इस स्थिति में हम कैसे निकालें, हमारे भीतर की खुशियाँ? खुशी एक मानवीय संवेदना है, जो कभी हँसी के रूप में, कभी आंसू के रूप में, तो कभी खिलखिलाहट के रूप में हमारे सामने आती है.
जी.एस.के.एन.ओ.पी. नाम की एक संस्था मार्केटिंग के लिए शोध करने वाली एक जानी-मानी संस्था है. इसके संचालक निक चेरेली है. इस संस्था ने दुनिया के 30 देशों के 30,000 घरों में रहने वाले व्यक्तियों से मुलाकात कर उनके सुखी होने के विषय पर सर्वे किया है.
इस सर्वे में प्रत्येक व्यक्ति को यह पूछा गया कि वे लोग जो जीवन जी रहे हैं, क्या वे उससे संतुष्ट हैं? इस प्रश्न के उत्तर में दुनिया भर के 20 प्रतिशत लोगों ने वे 'बहुत सुखी हैं' ऐसा जवाब दिया. जबकि वे जैसा जीवन जी रहे हैं, उससे पूरी तरह से संतुष्ट हैं, सुखी हैं, ऐसा जवाब देने वाले 62 प्रतिशत थे. दस प्रतिशत ऐसे लोग थे, जो अपनेर् वत्तमान जीवन से बिलकुल भी खुश नहीं थे. मात्र चार प्रतिशत लोग तो ऐसे थे, जो अपने आपको पूरी तरह से दु:ख के सागर में गोते लगाने वालों में शामिल कर रहे थे.
भारत में यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुम्बई, पूना, बेंगलोर और कानपुर में किया गया. इन शहरों के चयन मात्र से यह नहीं कहा जा सकता कि ये सर्वेक्षण पूरी तरह से सच्चे हैं. फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि भारत में खुश रहने वालों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है. इसके पीछे भले ही भारत की धर्म परायणता,भाग्यवादिता, कर्मण्यता आदि भाव हों, पर सच यही है कि भारतीयों में आज भी यह मान्यता प्रचलित है कि 'कम खाओ, बनारस में रहो'.
ये जो सर्वेक्षण कराया गया, उसमें भारत के 34 प्रतिशत लोग अपने आप को सुखी मानते हैं. इस तरह से दुनिया के 30 देशों में भारत ने चौथा स्थान प्राप्त किया. 36 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले इजिप्त का स्थान तीसरा है. दूसरे नम्बर पर अमेरिका 40 प्रतिशत और पहले स्थान पर 46 अंक पाने वाला देश है ऑस्ट्रेलिया. इस देश के सबसे सुखी होने का कारण है यहाँ की जलवायु, समुद्री किनारा और प्राकृतिक वातावरण. यहाँ के लोग खुशी पाते ही नहीं, बल्कि खुशियों को इस तरह से बाँटते हैं कि वह दोगुनी होकर उनके पास पहुँच जाती है.
खुद को दुखी मानने वालों में जो देश हैं, उनमें हंगरी, रुस, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका और पोलैण्ड का समावेश होता है. सुखी माने जाने वाले देशों में भारत के बाद क्रमश: इंग्लैण्ड, केनेडा और स्वीडन का नम्बर आता है. 13 से 19 वर्ष की आयु वाले अपने आपको बहुत सुखी मानते हैं. वैसे भी यह उम्र ऐसी होती है, जिसमें कोई तनाव नहीं होता, इनका सारा खर्च माता-पिता उठाते हैं. ये नौकरी भी नहीं करते, केवल पढ़ाई और मस्ती ही इनका लक्ष्य होता है. अत: ये लोग कभी-कभी ही दु:खी हो सकते हैें. दु:ख का अहसास इंसान को 30 से 55 वर्ष की आयु में होता है. यह बात इस सर्वे के दौरान सामने आई.
सर्वेक्षण के अनुसार 50 से 59 वर्ष की आयु वर्ग के लोग कम से कम सुखी होने की बात कहते हैं. इनमें से केवल 16 प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जो अपने को सुखी मानते हैं. वैसे सुखी होना और सुखी मानना दोनोें ही अलग बात है. जो दु:खी होते हैं, वे भी कभी-कभी खुशी के पल चुरा लेते हैं. उन्हें खुशी के बहाने की ही जरुरत होती है. इससे कहा जा सकता है कि सुख और दु:ख एक दूसरे के पूरक हैं.
सर्वेक्षण में प्राप्त कुछ रोचक तथ्य:-
· धन ही सब कुछ नहीं है, इससे हटकर भी कुछ है.
· पहला सुख स्वास्थ्य है.
· दूसरा सुख नारी है.
· तीसरा सुख संतान है.
· चौथा सुख निजी मकान है.
· पाँचवाँ सुख अपने आप पर काबू रखना है.,
· छठा सुख आर्थिक सुरक्षा है.
· सातवाँ सुख मनपसंद व्यवसाय है.
आश्चर्य इस बात का है कि इन सुखों में कार, फ्रिज, एसी, परिधान आदि का कोई स्थान नहीं है. हमारे पूर्वजों ने जो जीवन जीने के जो गुर सिखाए हैं, वे इससे काफी हद तक मिलते हैं. सादा जीवन उच्च विचार इस सुख का आधार है. स्वयं को कम सुखी मानने वाले समूह में अल्प आय वाले, बेरोजगार लोग शामिल हैं, लेकिन इन्हें आतंकवाद, शिक्षा और संक्रामक बीमारियों की अधिक ंचिंता है.
सुखी लोग आशावादी होते हैं, यह बात भी सर्वेक्षण में सामने आई. जो सुखी हैं, उनमें से 37 प्रतिशत लोगों ने माना कि वे आने वाले एक वर्ष में इससे भी अधिक सुखी रहेंगे. अपने आप को सुखी अनुभव करने वाले लोगों में उनका व्यक्तित्व, भरपूर नींद, श्रध्दा, विश्वास आदि लक्षण देखने में आए. शराबखोरी और फास्ट फुड को उस सुख का आधार कतई नहीं माना गया है.

इसके साथ ही एक और सर्वे सामने आया है. इकोनामिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट नाम की संस्था ने विश्व के 128 शहरों का सर्वे करके यह पाया कि दुनिया में ऐसे बहुत से शहर हैं, जो रहने के लायक हैं, इसके बाद ऐसे भी शहरों का पता चला, जो रहने के लायक नहीं हैं. दुनिया के टॉप टेन शहरों में सुखी ऑस्ट्रेलिया के कई शहर शामिल हैं. केवल रहने के लिए ही अनुकूल शहरों में पश्चिम यूरोप और उत्तरी अमेरिका के शहरों का समावेश है. रहने के अनुकूल टॉप टेन शहरों के नाम इस प्रकार हैं-
वेनकुँवर, मेलबोर्न, विएना, जिनेवा, पर्थ, एडिलेड, सिडनी, ज्यूरिख, टोरंटो और केलगिरी. एशिया और अफ्रीका के कई शहर रहने लायक नहीं हैं. जिन शहरों को अनुकूल माना गया है, वे शहर आतंकवादी गतिविधियों से दूर और उनके निशाने से भी काफी दूर माने गए हैं.र् वत्तमान में लोग ऐसे शहरों में रहना चाहते हैं, जो आतंकवाद की छाया से दूर हैं. ऐसे शहरों की सूची में अंतिम दस शहरो के क्रम में कराची, ढाका, तेहरान और हरारे शामिल हैं.
इस तरह से देखा जाए तो भारतीय अपने विशाल हृदय और सदाशयता के कारण अपने आप में अनूठा है, बल्कि इस तरह से वह अन्य देशों के लिए एक आदर्श है. आतंकवाद की चपेट में होने के बाद भी यहाँ के लोगों की जिजीविषा कम नहीं हुई है. भीतर से लड़ने वाले संकट के समय सब एक होने का माद्दा रखते हैं. विपत्तियाँ इन्हें अपने पथ से डिगाती नहीं. हर मुश्किल उन्हें और भी जूझने की शक्ति देती है. बाधाएँ इन्हें तपाती हैं, लेकिन ये तपकर और भी निखर जाते हैं. इसमें सहायक होती है यहाँ की हरियाली, वातावरण और शस्य श्यामला धरती...
डा. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है आपने...मैंने भी कहीं पढ़ा था की भारत के लोग तुलनात्मक रूप से ज्यादा सुखी हैं! खुशियों का अमीरी गरीबी से कोई लेना देना नहीं है! ये तो हमारे ऊपर निर्भर करता है की हम में कठिन परिस्थितियों में भी ख़ुशी ढूढ़ लेने की क्षमता है या नहीं!

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