मंगलवार, 8 जुलाई 2008
अस्तित्व की लड़ाई लड़ती पारसी कौम
डॉ. महेश परिमल
पारसी कौम यह वास्तविक अल्पसंख्यक वर्ग आज अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड रहा है. वास्तव में यही है अल्पसंख्यक वर्ग. जहाँ आज एक वर्ग विशेष की आबादी में तेजी से इजाफा हो रहा है, वहीं इस वर्ग पर आज घटती आबादी का संकट छाया हुआ है.
पारसी याने फारस से आए लोग. ये लोग कहाँ के हैं, भारत कैसे आए, इनकी संस्कृति क्या है, इनके संस्कार क्या हैं, ये सब बातें बाद में. पहले यह जान लें कि आज हमारे देश में यह पारसी कौम दूध में शक्कर की तरह मिल गई है. अगर पारसियों के नाम गिनाए जाएँ, तो यह फेहरिश्त काफी लम्बी हो जाएगी. फिर भी यदि हम दादा भाई नवरोजी, जमशेद जी टाटा, जनरल मानेक शॉ, रुसी मोदी, जनरल ए.एन. सेठना, फिरोह शाह मेहता, पीलू मोदी, सोहराब मोदी, होमी जहाँगीर भाभा, फिरोज गाँधी, मैडम कामा, प्रोफेसर दावर, गोदरेज, वाडिया, फ्रेडी मरक्यूरी, जुबिन मेहता, रोहिन्टन मिस्त्री आदि ऐसे सफल व्यक्तित्व हैं, जिसे भारत की जनता जानती समझती है. आज इनके लिए यक्ष प्रश्न यह है कि यह कौम अपनी लुप्त होती जाति को कैसे बचाए? आज स्थिति यह है कि जब दो पारसी पैदा होते हैं, तब तक 85 पारसी मौत के मुँह में समा चुके होते हैं.
इसमें कोई दो मत नहीं कि पारसी कौम सबसे अधिक सुसंस्कृत, धनाढय और प्रगतिशील मानी जाती है. भारत के विकास में इस कौम के बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता. आज इस कौम की जन्मदर में लगातार गिरावट आती जा रही है. अपने धर्म के प्रति कट्टर रवैया अपनाने वाले इन पारसियों की आबादी में डेढ़ सौ साल पहले से कमी आना शुरू हो गई. 1941 की जनगणना में इनकी आबादी एक लाख 14 हजार 533 थी, 1971 में यह घटकर 91 हजार 678 हो गई. 2001 में यह जनसंख्या 69 हजार 601 दर्ज की गई. 17 साल बाद यह कम होते-होते मात्र 58 हजार रह जाएँगे. घटने की यह दर यदि इसी तरह रही, तो 2101 में यह कौम पूरी तरह से विलुप्त हो जाएगी.
पारसियों की जन्मदर में लगातार आ रही गिरावट के पीछे वे स्वयं हैं. अपने धर्म के प्रति सख्त रवैया अपनाने के कारण ये लोग किसी दूसरे सम्प्रदाय में वैवाहिक संबंध नहीं बनाते. ऐसा माना जाता है कि इस कौम की किसी ने यदि किसी दूसरी कौम के युवक से शादी कर ली, तो ये लोग उसे कन्या को समाज से बहिष्कृत कर देते हैं. यदि युवती का पति पारसी धर्म अपनाना चाहे, तो ये उसे भी अपने धर्म में शामिल नहीं करते. इसके विपरीत यदि किसी पारसी युवक ने दूसरी कौम की कन्या से विवाह कर लिया, तो यह उनकी संतान को तो अपने धर्म में शामिल कर लेंगे, पर उस युवती को अपने धर्म में किसी भी हालत में शामिल नहीं करते. अपने धर्म के प्रति रुढ़िवादिता के कारण ही यह कौम आज विलुप्ति के कगार पर है. इस के खिलाफ पारसी युवतियों ने कुछ समय पूर्व अपने धर्मगुरुओं के सामने अपनी बात रखी थी और यह दलील पेश की थी कि पारसी युवक यदि अन्य कौम की युवती से विवाह करते हैं, तो उनकी संतानों को 'नवजोत' की अनुमति न दी जाए. अब तक यही होता आ रहा था कि पारसी युवक यदि दूसरे कौम की युवती से विवाह करते, तो उनकी संतानों को 'नवजोत' की अनुमति मिल जाती थी. लेकिन पुत्रवधू को पारसी सम्प्रदाय में शामिल नहीं किया जाता. युवतियों का विरोध इस बात पर था कि पारसी समुदाय की युवतियाँ यदि दूसरे कौम के युवक से विवाह करती हैं, तो उनकी संतानों को भी 'नवजोत' की अनुमति दी जाए. युवतियों की इस दलील को स्वीकार्य नही किया गया. अंत में इस बात का विरोध होने पर इसे अस्वीकार कर दिया गया.
ऐसी बात नहीं है कि पारसियों ने अपनी आबादी बढ़ाने का कोई उपाय नहीं किया. दस वर्ष पूर्व इस दिशा में उन्हीं के द्वारा एक गंभीर प्रयास किया गया था. जिसमें तीसरी संतान पैदा करने पर पारसी परिवार को प्रतिमाह एक हजार रुपए की सहायता देने का निर्णय लिया गया था. किंतु इस दस वर्षों में इस योजना का लाभ केवल 110 दम्पतियों ने ही लिया है. आज प्रति 9 पारसी परिवारों में से मात्र एक परिवार में ही छह वर्ष से छोटा बालक देखने को मिलेगा. 12 प्रतिशत पारसी दम्पति नि:संतान हैं. पारसी धर्म में दत्तक पुत्र लेने की परंपरा नहीं है. पहले ऐसा होता था कि कोई पारसी यदि किसी संस्था में कार्य करता, तो उसकी पूरी कोशिश होती कि अन्य पारसी युवक-युवती भी इस संस्था से जुड़ जाएँ. पर टाटा और गोदरेज कंपनियाँ पारसियों की होने के बाद भी अब वे केवल योग्यता के अनुसार लोगों की नियुक्ति बिना पक्षपात के करती हैं. अत: इस संबंध में पारसियों को मिलनसार और मददगार कहने के साथ-साथ निष्पक्ष भी कहा जा सकता है.
मुम्बई में किए गए एक सर्वे के अनुसार 66 प्रतिशत पारसियों की आय दस से बीस हजार रुपए प्रतिमाह है. 97 प्रतिशत पारसी शिक्षित हैं. जहाँ एक ओर प्रतिवर्ष 900 से एक हजार पारसी मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वहीं दूसरी ओर प्रतिवर्ष केवल 300 से 350 पारसी बच्चों का जन्म होता है. इस कौम में बुजुर्गों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है.
पारसी जाति अत्यंत उदार है, लेकिन धर्म के मामले में उसकी कट्टरता को लेकर आज की पीढ़ी के पारसी युवा इससे आहत हैं. उनका मानना है कि यदि हमारे धर्मगुरु थोड़ा-सा नरम रवैया अख्तियार करें, तो इस धर्म से प्रभावित होकर हजारों लोग इसमें शामिल होना चाहते हैं. इस कौम के करीब 36 प्रतिशत युवा दूसरे सम्प्रदाय में विवाह करते हैं.
हर क्षेत्र में पारसियों ने अपनी महत्ता सिध्द की है. चाहे वह व्यापार जगत हो, या फिर फिल्म जगत, विज्ञान का क्षेत्र हो या चिकित्सा और कानून का क्षेत्र. हर जगह इन्होंने अपनी एक अमिट पहचान बनाई है. जोश से भरे और धुन के पक्के पारसियों ने ही हॉटल ताज को खड़ा किया. भारत में सेंट्रल बैंक की स्थापना भी इन्होंने ही की. शेयर बाजार उन्हीं की देन है. भारत ही नहीं विदेशों में भी उन्होंने अपना परचम फहराया. भीख को अनैतिक मानने वाले पारसी मेहनत से कभी जी नहीं चुराते, जो भी कमाते हैं, उसमें से कुछ राशि समाज कल्याण के क्षेत्र में अवश्य लगाते हैं. अस्पताल, स्कूल, कॉलेज, धर्मशाला खोलकर सरकार को दान देने की इनकी पुरानी आदत है.
पारसियों का भारत आगमन
पारसी मूल रूप से ईरान के फारस जिले के थे. वहाँ आतताइयों से त्रस्त होकर उन्होंने भारत आने का निर्णय लिया. लगभग 11 सौ वर्ष पूर्व ईरान से निकले कुछ अनजाने परदेशी गुजरात के वलसाड़ में संजाण बंदरगाह पर उतरे. यही थे पारसी. जिन्होंने अपने धर्म को सुरक्षित रखने के लिए भारत की शरण ली. इनके साथ थी स्वयं पर हुए अत्याचार की दास्तां और धर्म की साक्षी पवित्र अग्नि. किंवदंती है कि जब उन्होंने भारत की सरजमीं पर अपने कदम रखे, तब वहाँ के राजा से वहाँ रहने की अनुमति माँगी, तब राजा ने दूध से भरा कटोरा उनके सामने पेश करते हुए कहा कि यहाँ तो सभी धर्मों के लोग बसे हुए हैं, आप इसमें अपनी जगह कैसे बना पाओगे? तब पारसियों में से एक बुजुर्ग ने दूध से भरे कटोर में शक्कर मिलाते हुए कहा था कि हम इस तरह इसमें मिल जाएँगे. और हुआ भी यही. पारसी कौम आज भारत में दूध में शक्कर की तरह घुल गई है.
इस प्रगतिशील जाति ने भारत को क्या नहीं दिया. आज मुम्बई का जो स्वरूप है, वह पारसियों की ही देन है. इन्हें जहाँ पहली शरण मिली, वहाँ की भूमि को अपनी मातृभूमि माना और वहाँ की भाषा को मातृभाषा. इसलिए पारसी हमें गुजराती बोलते हुए ही मिलेंगे. गुजराती साहित्यकारों ने भले ही इनकी उपेक्षा की हो, किंतु गुजराती साहित्य के प्रति इनके समर्पण को अस्वीकार नहीं किया जा सकता. एक समय ऐसा भी था, जब पारसी थिएटर का बोलबाला था. भारत में नाटकों की शुरुआत पारसियों ने की, इसे कोई झुठला नहीं सकता. पारसियों का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता.
आज यही कौम विलुप्ति के कगार पर है. अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे पारसी समुदाय यदि अपने रुख में थोड़ी सी नरमी दिखाएँ, तो संभव हे इनकी वंशबेल फिर से हरी हो सकती है. नहीं तो संभव है आने वाले सौ सालों में इस जाति के पूरी तरह से विलुप्त होने से इंकार नहीं किया जा सकता. समझ में नहीं आता कि यदि पक्षियों की कोई जाति विलुप्त होने लगती है, तो विश्व भर के चिंतक के माथे पर पेशानी झलकती है, पर एक मानव जाति आज यदि अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़े, तो उनके साथ कोई नहीं है. किसी के चेहरे पर कोई पेशानी नहीें है. कैसे मानव हैं हम?
एक तथ्य
भारत में सबसे अधिक शांत, मिलनसार और शिक्षित मानी जाने वाली पारसी कौम की विश्व में कुल आबादी मात्र एक लाख है. इसमें से 65 हजार केवल भारत में हैं. केवल मुम्बई में ही 55 हजार से अधिक पारसी बसते हैं. शेष दस हजार भारत के अन्य राज्यों में अपना जीवन निर्वाह कर रहे हैं.
डॉ. महेश परिमल
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जिंदगी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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धन्यवाद एक अच्छी जान कारी देने के लिये.
जवाब देंहटाएंआपके लेख से सहमत हूँ। अपने स्वभाव व अपनाए हुए देश से प्यार के कारण सभी उनका आदर करते हैं। वे जीवन के हर क्षेत्र में सफल हैं। परन्तु कोई बाहर का व्यक्ति उनकी संख्या बढ़ाने में सहायता नहीं कर सकता। इसके लिए उन्हें ही समझना होगा कि उन्हें धर्म के मामले में भी कुछ बदलाव लाने होंगे।
जवाब देंहटाएंउनकी गिरती जनसंख्या का एक और कारण उनका पढ़ा लिखा होना व उनकी ऊँची जीवन शैली भी है। लगभग सब समाजों में जब लोग ऐसे स्तर पर पहुँच जाते हैं तो वे संतानोत्पत्ति को कम महत्व देने लगते हैं। जो भी हो भारत को पारसियों जैसे लोगों की बहुत आवश्यकता है। यदि उनकी संख्या में वृद्धि होती तो हमारे लिए अच्छा होता।
घुघूती बासूती
प्रिय भाई,
जवाब देंहटाएंआपके लेख, निबंध आदि
शोध परक और उपयोगी हैं.
आपका योगदान सराहनीय है.
यह प्रस्तुति पारसी समुदाय
पर गहन जानकारी दे रहा है.
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शुभकामनाएँ
चन्द्रकुमार
प्रिय भाई,
जवाब देंहटाएंआपके लेख, निबंध आदि
शोध परक और उपयोगी हैं.
आपका योगदान सराहनीय है.
यह प्रस्तुति पारसी समुदाय
पर गहन जानकारी दे रही है.
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शुभकामनाएँ
चन्द्रकुमार
आपकी टिप्पणियों के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद.
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