बुधवार, 2 जुलाई 2008
वेदना से संवेदना तक....
भारती परिमल
एक बगीचा था. उसमें रंगबिरंगे सुंदर-सुंदर फूल खिले हुए थे. गुलाब, चंपा, चमेली, सूरजमुखी, पारिजात, मोगरा, जूही, रजनीगंधा, हरसिंगार, गुड़हल आदि अनेक फूलों के छोटे-बड़े पौधे थे, जो अपने सौंदर्य से बगीचे की सुंदरता बढ़ा रहे थे. माली बारह महीने उनकी देखभाल करता. जाड़ो में पौधों के आसपास जमा हुए सूखे पत्तों को निकाल कर गमलों को साफ करता. गरमी में तेज धूप से उन्हें बचाने के लिए भरसक प्रयास करता और बारिश में वर्षा की बूंदों से नहाती डालियों को और पंखुड़ी पर ठहरी पानी की बूंद को देख कर खुश होता. किंतु अनेक फूलों और हरियाली से आच्छादित उस बाग में एक भी लता नहीं थी. बस एक कोने पर एक मधुमालती की बेल उग रही थी. पता नहीं माली के मन में क्या था कि वह जब भी बाग में इन पौधों के सिवाय कुछ और उगा हुआ देखता कि उसे काट देता. उसमें भी मधुमालती की बेल तो उसे बिल्कुल भी पसंद नहीं थी. जैसे ही उसने एक किनारे मधुमालती की बेल को अंकुरित होते देखा, तो वह उसे काटने लगा. वह उसे बढ़ने ही नहीं देता था.
मालिन ने उसे ऐसा करते हुए कई बार देखा था. वह कितनी ही बार उसे समझा चुकी थी कि क्यों इस सुंदर बेल को बढ़ने नहीं देते हो? यह भी अन्य पौधों की तरह इस बाग की शोभा बढ़ाएगी, लेकिन माली ने अपनी जिद नहीं छोड़ी. माली के इस व्यवहार से बाग के सभी पेड़-पौधे दु:खी थे, किंतु वे विराध नहीं कर पा रहे थे. मधुमालती के प्रति माली का रुखा व्यवहार दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था. वह न तो उस प्यासी लता को पानी ही देता न उसके छाँव के लिए कोई प्रबंध करता. उसके आसपास का कचरा भी वह साफ न करता. उसे तो केवल एक ही बात का ध्यान रहता कि बेल बढ़ती हुई देखता कि उसे काट देता.
माली के इस उपेक्षापूर्ण व्यवहार से मधुमालती बहुत आहत थी. वह बढ़ना चाहती थी, खिलकर फैलना चाहती थी, अपनी सुगंध से चारों दिशाओं को सुवासित करना चाहती थी, पर वह विवश थी. माली जब-जब उसे काटता था, वह खून के ऑंसू रोती थी, पर उसकी सिसकी कोई नहीं सुन पाता था.
बाग में आने वाले लोग भी बाग के फूलों की खूब तारीफ करते पर साथ ही यह कहने से भी नहीं चूकते थे कि इस बाग में अनेक फूल हैं, बस कमी है तो केवल बेल की. यहाँ एक भी बेल नहीं है. तब मधुमालती चीख-चीख कर उनसे कहना चाहती थी कि मैं हूँ, मैं हँ ना, लेकिन उसकी चीख उसके बौने शरीर की ही तरह मिट्टी में दब कर रह जाती थी. वह जाते हुए लोगों से यह भी कहना चाहती थी कि मैं बढ़ना चाहती हूँ, लेकिन माली मुझे हर बार काट लेता है, कोई उसे रोको और मुझे कटने से बचालो. तब फिर मैं भी दूसरे फूलों की तरह खिलूँगी और अपनी सुगंध से इस बाग को और भी महका दूँगी. किंतु उसकी इस घुटी हुई चीख और पीड़ा को समझने वाला कोई न था.
मधुमालती की बेल के पास ही पारिजात का एक हरा-भरा पेड़ था. थोड़ी सी दूरी पर चंपा और चमेली भी खिले हुए थे. ये सभी माली की इस हरकत से और मधुमालती के दु:ख से दु:खी थे. उन्हें उसकी सिसकियाँ सुनाई पड़ती थी. उसकी चीख उन्हें भी भीतर तक हिला देती थी, किंतु वे यह नहीं समझ पाते थे कि वे उसे सांत्वना किस तरह दें?
मधुमालती देखती कि पारिजात का पेड़ अनेक फूलों से आच्छादित हो गया है, उसके फूलों की सुगंध चारों ओर फैल रही है सभी उसे प्यार भरी नजरों से देखते हैं, उसके फूलों को तोड़कर ले जाते हैं और उसकी सुंदरता की प्रशंसा भी करते हैं. आखिर उससे न रहा गया और एक दिन दबे स्वर में उसने पारिजात से अपने मन की बात कह ही दी- मुझे भी लगता है कि मैं भी तुम्हारी तरह, चंपा, चमेली और जूही की तरह खिलकर मुस्कराऊँ. किंतु माली मुझे बढ़ने ही नहीं देता है. मुझे बहुत निराशा होती है, मैं क्या करूँ?
पारिजात तो खुद उसकी मदद करना चाहता था, पर वह विवश था. मधुमालती ने पूछा तो वह कह उठा- खिलकर मुस्कराना तो हमारा स्वभाव है. वो गुलाब को देखो, वह तो काँटों में भी खिल कर सदा मुस्कराता रहता है. मेरा पूरा शरीर रोज फूलों से भर जाता है, और सूरज की रोशनी से कुछ पल में ही मुरझा भी जाता है किंतु मैं फिर भी रोज खिलता हँ और इस बाग की शोभा बढ़ाता हँ. खिलना और मुरझाना यह तो हमारा स्वभाव ही है.
मैं भी अपने इस स्वभाव को जीवित रखना चाहती हूँ लेकिन माली मुझे बढ़ने ही नहीं देता. अब वो फिर मुझे बढ़ा हुआ देखेगा और काट डालेगा. जब-जब मैंने बढ़ना चाहा,उसने मुझे रोक लिया. मधुमालती निराशा से बोली.
पारिजात बोला - तुम अपने बढ़ने का कोई दूसरा मार्ग क्यों नहीं खोज लेती हो? ऐसा मार्ग जहाँ माली की नजर ही न पड़े.
मधुमालती को पारिजात की यह बात जँच गई. अब उसने ठान लिया कि उसे बढ़ना ही है. चाहे कोई भी कठिनाई आए, वह हारेगी नहीं और बढ़कर रहेगी. उसने सोचा कि अगर वो इसी दिशा में आगे बढ़ती रही तो माली की निगाह उस पर पड़ जाएगी और वह एक बार फिर उसे काट डालेगा. इसलिए उसने माली की नजरों से बचने के लिए दूसरी दिशा में बढ़ना शुरू किया. उसने देखा कि बगीचे की दिवाल की नीचे के तरफ की एक ईंट उखड़ी हुई है और वहाँ से पानी बाहर जाने की सुविधा है, बस वह उसी दिशा में आगे बढ़ गई और दिवाल के बाहर निकल गई. बाहर आकर उसने खुली हवा में सांस ली. बाहर कुछ गंदगी थी, आक का पौधा और अन्य पौधे भी थे, किंतु उनसे अलग वह तो अपने में मगन बढ़ती जा रही थी.
खुली हवा, सूर्य का प्रकाश और बहते पानी से अब मधुमालती बेरोकटोक बढ़ने लगी. टूटी ईंट का सहारा लेकर वह दीवार पर चढ़ गई, उसकी बेल पर कलियाँ खिलीं और फूलों के गुच्छे लगे. सफेद हल्के गुलाबी गुच्छों के बीच मधुमालती झूमने लगी. बगीचे के बाहर आते-जो लोग मधुमालती की सुंदरता को देखकर घड़ी भर के लिए ठिठक जाते, उन्हें आश्चर्य होता कि बाग के अंदर तो ऐसी कोई ेबेल नजर नहीं आती,पर बाहर यह बेल कैसी? कोई उसके झरते फूलों को समेट लेता, तो कोई फूलों के गुच्छे ही तोड़ लेता. मधुमालती मन ही मन इतराती कि भले ही लोग मेरे फूलों को तोड़ रहें हैं, कल फिर मुझमें नए फूल आएँगे. लोगों ने उसके आसपास की जमीन को साफ कर दिया. अब वे वहाँ बैठने भी लगे. लगातार बढ़ती मधुमालती अब दीवार पार कर गई थी और झाँककर उसने बेगीचे के अंदर देखा, वहाँ उसके मित्र पारिजात, चंपा, चमेली, गुलाब सभी उसे देखकर मुस्करा रहे थे. वह भी उन्हें देख मुस्करा उठी. मन ही मन उसने पारिजात का आभार माना, उसी के द्वारा बताए गए मार्ग से वह आज फूलों से लदी थी.
बहुत दिनों से माली ने मधुमालती की सुध नहीं ली थी. वह तो उसे भूल ही गया था, वेसे भी उसे वह कहाँ पसंद थी? एक बार अचानक बाहर से झाँकती मधुमालती को उसने देख लिया. झूमती-नाचती बेल को देखकर उसे आश्चर्य हुआ, उसकी सुंदरता ने उसे मोह लिया. वह सोचने लगा- इस बेल को बाग में ही बढ़ने दिया होता, तो मेरे बगीचे की सुंदरता बढ़ जाती. पर अब तो यह दीवार के उस तरफ है. एक दिन माली ने मुस्कराकर कहा- मधुमालती, इस तरफ चली आओ, बगीचा तुम्हारा ही है. तुम्हारी जड़ें तो अंदर ही हे ना.
हाँ मधुमालती की जडें तो बगीचे के अंदर ही हैं. यह बात उसे अच्छी तरह से मालूम थी. लेकिन वह इस बात को भी नहीं भूली थी कि यही माली उसे बगीचे के अंदर बढ़ने नहीं देता था. उस समय की उसकी वेदना, उसकी छटपटाहट, उसकी सिसकारी अभी भी उसकी खिलख्लिाहट के पीछे दबी दुई थी. आज माली का बदला हुआ रूप उसे हतप्रभ कर रहा था. आज वह कहता है कि बाग उसका है. पर उस समय क्या वह बाग मेरा नहीं था?
मधुमालती क्या करे, दीवार के बाहर ही फैलते रहना है या फिर बाग के अंदर जाकर उसे अपना विस्तार करना है. वह तय नहीं कर पा रही थी. उसने पारिजात के सामने प्रश्नवाचक चिह्न की तरह देखा, वह मुस्करा उठा, ऑंखों ही ऑंखों ने उसने मधुमालती से कहा= आ जाओ मधुमालत, इस बगीचे में तुम्हारा स्वागत है. इस मनुहार से मधुमालती बगीचे के अंदर आ गई. अब वह दोनों तरफ झूमने लगी. बगीचे के बाहर भी और बगीचे के अंदर भी.
भारती परिमल
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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To the owner of this blog, how far youve come?You were a great blogger.
जवाब देंहटाएंsuch a nice blog.
जवाब देंहटाएंberto xxx
महेश जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण लिखा है। पढ़कर आनन्द आगया। जीवन भी ईसा ही है। हर इन्सान को अपने लिए मार्ग स्वयं ही तय करना पड़ता है और अपनी मुश्किलों का समाधान भी खुद ही ढ़ूँढ़ना होता है। प्रेरणा से भरे इस संस्करण के लिए हार्दिक बधाई।
bhaiya bahut badhiya lekh hai... bilkul man ko jhijhkor dene wala.. main bhe koshish karta hu aksar ese lekh likhne ki, lekin ise blog par nahi dalla hai... aapke jitna achha nahi likh pata but, jitna kabil hu utni koshish karta hu..
जवाब देंहटाएंSuperb! very nice. Bahut hi khubsoorat kahani likhi, ekdam man ko chu lene vaali. Jari rakhiye.....
जवाब देंहटाएंbahut sundar likha hai parimal ji....sath jude chitra ko dekhkar pata nahi kyon 'kausani' ki yad ho aayi.....
जवाब देंहटाएंbahut khoob...