डॉ. महेश परिमल
वाल मार्ट की तुलना यदि किसी के साथ हो सकती है, तो वह है सर्वशक्तिमान ईश्वर। ये हजार हाथवाला है, हम सबसे धनी है और अपनी मर्जी के मुताबिक सबको नचाता है। इस देश की 120 करोड़ की जनता यदि यह चाहती है कि वाल मार्ट का प्रवेश हमारे देश में न हो, फिर भी ये हमारे देश में आएगी ही। भारतीय संसद में 542 सदस्य हैं, इनमें से अधिकांश नहीं चाहते कि वाल मार्ट भारत आए, फिर भी ये हमारे देश में आएगी ही। क्योंकि अमेरिका की सभी मार्ट्स में ताले लग गए हैं। आखिर उसके कर्मचारी कहां जाएंगे, इसलिए भारत आकर ही वे अपना रोजगार करेंगी। वैसे भी भारतीय संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि विदेशी कंपनियां हमारे देश में व्यापार करने के लिए उन्हें संसद की मंजूरी लेना आवश्यक है। हमारे देश में केबिनेट को कई अधिकार दिए गए हैं, यह सभी जानते हैं किभारतीय केबिनेट की कठपुतली बन गई है।
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव देश में रिटेल क्षेत्र में पूंजी निवेश के घोर विरोधी रहे हैं, इसके बाद भी उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज के खिलाफ वॉल मार्ट को भारत में लाने वाली यूपीए सरकार का समर्थन देकर उसे उबार लिया। इसे वॉल मार्ट का मायाजाल न कहें, तो और क्या कहा जाए? एफडीआई, रसोई गैस और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी को लेकर ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, उनके मंत्रियों ने इस्तीफा भी दे दिया। उनके तेवर यदि सच्चे होते, तो इसी मुद्दे पर भारत बंद में उन्हें शामिल होना था, पर वे नहीं हुई, इसका क्या आशय निकाला जाए? प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी खाली सीट के लिए जो चुनाव होने वाले हैं, उसमें अपना प्रत्याशी खड़े न कर वे क्या बताना चाहती हैं, इसे कौन समझेगा? आखिर वह कौन सी नीति है, जिसके तहत वे ऐसा कर रही हैं। शिवसेना विपक्ष में है, उसके बाद भी वह भारत बंद में शामिल नहीं हुई, आखिर क्यों? एक तरफ मुलायम भारत बंद में शामिल होते हैं, तो दूसरी तरफ वे सरकार को समर्थन देकर उसे जीवनदान भी देते हैं।
यह किसी ने सोचा कि भारत बंद के दौरान कहीं भी किसी भी तरह की कोई हिंसक घटना नहीं हुई। यह बंद पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहा। न कहीं लाठी चार्ज, न कही गोलीबार, न कहीं अश्रुगैस, न कहीं हिंसक प्रदर्शन। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? क्या इसे कांग्रेस-भाजपा का फिक्सिंग मैच कहा जाए? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी 2 सितम्बर को अमेरिका गई, दस सितम्बर को स्वदेश लौटते ही 14 सितम्बर को केंद्र की केबिनेट मिल्ट ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी दे दी। सोनिया गांधी जब अमेरिका गई, उसके ठीक एक सप्ताह पहले भाजपाध्यक्ष नितीन गडकरी दो सप्ताह की कनाडा होकर आ गए। उनके भारत आने के एक सप्ताह बाद ही एफडीआई पर निर्णय ले लिया गया। इन सारी कड़ियों से लगता है कि वॉल मार्ट की नजरें बहुत दूर तक जाती हैं। किसी को एक देश में साधा जाता है, तो किसी को दूसरे देश में। इसके मायाजाल में भारत सरकार बुरी तरह से फंस चुकी है।
केंद्र में जब एनडीए का शासन था, तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 14 मई 2002 को भारत सरकार के केबिनेट सेक्रेटरी एम.एस. श्रीनिवास से देश में मिल्टब्रांड रिटेल में 50 से 100 प्रतिशत एफडीआई की हिमायत करने वाली रिपोर्ट तैयार की थी। अब भाजपा किस मुंह से एफडीआई में विदेश पूंजी निवेश का विरोध कर रही है? इसे कौन समझा सकता है? हमारे ही देश में एक राज्य के लोगोंे को दूसरे राज्य में रोजगार न करने का विरोध करने वाले बाल ठाकरे आखिर एफडीआई के इतने लचीले कैसे हो गए? कहाँ तो उन्हें हमारे ही देश के बिहार प्रांत के लोग फूटी आंख नहीं सुहाते, कहां तो विदेशी कंपनी उन्हें अच्छी लगने लगी? इसे दोगलापन न कहा जाए, तो फिर क्या कहा जाए? ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का बयान इस दिशा में कुछ और ही स्थिति को दर्शाता है। वे कहते हैं कि इस संबंध में उन्होंने अभी विचार नहीं किया है। जल्द ही वे इस दिशा में विचार कर अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे। आखिर क्या सचमुच यह इतना बड़ा मामला है कि इस पर प्रदीर्घ विचार विमर्श किया जाए? कोई इस दिशा में नहीं सोच रहा है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने संसद में यह वचन दिया था कि एफडीआई के संबंध में कोई भी निर्णय राजनैतिक दलों को विश्वास में लिए बिना नहीं लिया जाएगा। आखिर यह वचन भंग करने की नौबत क्यों आई? इस पर कौन बोलेगा? वाल मार्ट ने भारती इंटरप्राइजेज की भागीदारी में 2009 में अमृतसर में पहली होलसेल की दुकान खोली थी, आज इस कंपनी की देश भर में 17 दुकाने हैं। इसमें से कई भाजपाशासित प्रदेशों में भी है। आखिर भाजपा ने इन दुकानों को अपने राज्य में खोलने की अनुमति क्यों दी? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यूपीए 2 के तीन वर्ष के शासनकाल में एक बार टीवी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए रिटेल में एफडीआई के मुद्दे पर अपना बयान देना पड़ा। क्या देश पर कोई आफत आ गई थी, या फिर देश सचमुच गंभीर स्थिति से गुजर रहा था। आखिर राष्ट्र के नाम संदेश देने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? 14 सितम्बर के बाद ऐसा लग रहा था, मानो अब सरकार चली जाएगी। सरकार का पतन तय है। एक सप्ताह में ही देश का वातावरण एकदम से पलट गया। अब यह चर्चा गौण हो गई, आखिर इसका क्या कयास लगाया जाए?
देश में अभी बहुत से ऐसे प्रश्न है, जो वॉल मार्ट से बाबस्ता हैं। पर हर कोई इस मामले में खामोश है। जब संसद के अधिकांश सदस्य इसके खिलाफ हैं, तो फिर यह कंपनी भारत कैसे आ सकती है? वित्त मंत्री के वचन का क्या हुआ? राज्य में दूसरे प्रांत के लोग स्वीकार्य नहीं, पर विदेशी कंपनियां स्वीकार्य? ऐसे कैसे हो सकता है? जब एनडीए ने एफडीआई को लाने की योजना बनाई तो फिर कांग्रेस ने इसका विरोध क्यों किया था? आज भाजपा इसका विरोध क्यों कर रही है? ये सब कहीं न कहीं वॉलमार्ट के प्रभाव से प्रभावित हैं? इसीलिए ऐसा हो रहा है।
डॉ. महेश परिमल
वाल मार्ट की तुलना यदि किसी के साथ हो सकती है, तो वह है सर्वशक्तिमान ईश्वर। ये हजार हाथवाला है, हम सबसे धनी है और अपनी मर्जी के मुताबिक सबको नचाता है। इस देश की 120 करोड़ की जनता यदि यह चाहती है कि वाल मार्ट का प्रवेश हमारे देश में न हो, फिर भी ये हमारे देश में आएगी ही। भारतीय संसद में 542 सदस्य हैं, इनमें से अधिकांश नहीं चाहते कि वाल मार्ट भारत आए, फिर भी ये हमारे देश में आएगी ही। क्योंकि अमेरिका की सभी मार्ट्स में ताले लग गए हैं। आखिर उसके कर्मचारी कहां जाएंगे, इसलिए भारत आकर ही वे अपना रोजगार करेंगी। वैसे भी भारतीय संविधान में यह कहीं नहीं लिखा है कि विदेशी कंपनियां हमारे देश में व्यापार करने के लिए उन्हें संसद की मंजूरी लेना आवश्यक है। हमारे देश में केबिनेट को कई अधिकार दिए गए हैं, यह सभी जानते हैं किभारतीय केबिनेट की कठपुतली बन गई है।
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव देश में रिटेल क्षेत्र में पूंजी निवेश के घोर विरोधी रहे हैं, इसके बाद भी उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज के खिलाफ वॉल मार्ट को भारत में लाने वाली यूपीए सरकार का समर्थन देकर उसे उबार लिया। इसे वॉल मार्ट का मायाजाल न कहें, तो और क्या कहा जाए? एफडीआई, रसोई गैस और डीजल की कीमतों में बढ़ोत्तरी को लेकर ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, उनके मंत्रियों ने इस्तीफा भी दे दिया। उनके तेवर यदि सच्चे होते, तो इसी मुद्दे पर भारत बंद में उन्हें शामिल होना था, पर वे नहीं हुई, इसका क्या आशय निकाला जाए? प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने के बाद उनकी खाली सीट के लिए जो चुनाव होने वाले हैं, उसमें अपना प्रत्याशी खड़े न कर वे क्या बताना चाहती हैं, इसे कौन समझेगा? आखिर वह कौन सी नीति है, जिसके तहत वे ऐसा कर रही हैं। शिवसेना विपक्ष में है, उसके बाद भी वह भारत बंद में शामिल नहीं हुई, आखिर क्यों? एक तरफ मुलायम भारत बंद में शामिल होते हैं, तो दूसरी तरफ वे सरकार को समर्थन देकर उसे जीवनदान भी देते हैं।
यह किसी ने सोचा कि भारत बंद के दौरान कहीं भी किसी भी तरह की कोई हिंसक घटना नहीं हुई। यह बंद पूरी तरह से शांतिपूर्ण रहा। न कहीं लाठी चार्ज, न कही गोलीबार, न कहीं अश्रुगैस, न कहीं हिंसक प्रदर्शन। आखिर ऐसा कैसे हो सकता है? क्या इसे कांग्रेस-भाजपा का फिक्सिंग मैच कहा जाए? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी 2 सितम्बर को अमेरिका गई, दस सितम्बर को स्वदेश लौटते ही 14 सितम्बर को केंद्र की केबिनेट मिल्ट ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत एफडीआई को मंजूरी दे दी। सोनिया गांधी जब अमेरिका गई, उसके ठीक एक सप्ताह पहले भाजपाध्यक्ष नितीन गडकरी दो सप्ताह की कनाडा होकर आ गए। उनके भारत आने के एक सप्ताह बाद ही एफडीआई पर निर्णय ले लिया गया। इन सारी कड़ियों से लगता है कि वॉल मार्ट की नजरें बहुत दूर तक जाती हैं। किसी को एक देश में साधा जाता है, तो किसी को दूसरे देश में। इसके मायाजाल में भारत सरकार बुरी तरह से फंस चुकी है।
केंद्र में जब एनडीए का शासन था, तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने 14 मई 2002 को भारत सरकार के केबिनेट सेक्रेटरी एम.एस. श्रीनिवास से देश में मिल्टब्रांड रिटेल में 50 से 100 प्रतिशत एफडीआई की हिमायत करने वाली रिपोर्ट तैयार की थी। अब भाजपा किस मुंह से एफडीआई में विदेश पूंजी निवेश का विरोध कर रही है? इसे कौन समझा सकता है? हमारे ही देश में एक राज्य के लोगोंे को दूसरे राज्य में रोजगार न करने का विरोध करने वाले बाल ठाकरे आखिर एफडीआई के इतने लचीले कैसे हो गए? कहाँ तो उन्हें हमारे ही देश के बिहार प्रांत के लोग फूटी आंख नहीं सुहाते, कहां तो विदेशी कंपनी उन्हें अच्छी लगने लगी? इसे दोगलापन न कहा जाए, तो फिर क्या कहा जाए? ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का बयान इस दिशा में कुछ और ही स्थिति को दर्शाता है। वे कहते हैं कि इस संबंध में उन्होंने अभी विचार नहीं किया है। जल्द ही वे इस दिशा में विचार कर अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे। आखिर क्या सचमुच यह इतना बड़ा मामला है कि इस पर प्रदीर्घ विचार विमर्श किया जाए? कोई इस दिशा में नहीं सोच रहा है कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा? राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी जब वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने संसद में यह वचन दिया था कि एफडीआई के संबंध में कोई भी निर्णय राजनैतिक दलों को विश्वास में लिए बिना नहीं लिया जाएगा। आखिर यह वचन भंग करने की नौबत क्यों आई? इस पर कौन बोलेगा? वाल मार्ट ने भारती इंटरप्राइजेज की भागीदारी में 2009 में अमृतसर में पहली होलसेल की दुकान खोली थी, आज इस कंपनी की देश भर में 17 दुकाने हैं। इसमें से कई भाजपाशासित प्रदेशों में भी है। आखिर भाजपा ने इन दुकानों को अपने राज्य में खोलने की अनुमति क्यों दी? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यूपीए 2 के तीन वर्ष के शासनकाल में एक बार टीवी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए रिटेल में एफडीआई के मुद्दे पर अपना बयान देना पड़ा। क्या देश पर कोई आफत आ गई थी, या फिर देश सचमुच गंभीर स्थिति से गुजर रहा था। आखिर राष्ट्र के नाम संदेश देने की आवश्यकता क्यों आ पड़ी? 14 सितम्बर के बाद ऐसा लग रहा था, मानो अब सरकार चली जाएगी। सरकार का पतन तय है। एक सप्ताह में ही देश का वातावरण एकदम से पलट गया। अब यह चर्चा गौण हो गई, आखिर इसका क्या कयास लगाया जाए?
देश में अभी बहुत से ऐसे प्रश्न है, जो वॉल मार्ट से बाबस्ता हैं। पर हर कोई इस मामले में खामोश है। जब संसद के अधिकांश सदस्य इसके खिलाफ हैं, तो फिर यह कंपनी भारत कैसे आ सकती है? वित्त मंत्री के वचन का क्या हुआ? राज्य में दूसरे प्रांत के लोग स्वीकार्य नहीं, पर विदेशी कंपनियां स्वीकार्य? ऐसे कैसे हो सकता है? जब एनडीए ने एफडीआई को लाने की योजना बनाई तो फिर कांग्रेस ने इसका विरोध क्यों किया था? आज भाजपा इसका विरोध क्यों कर रही है? ये सब कहीं न कहीं वॉलमार्ट के प्रभाव से प्रभावित हैं? इसीलिए ऐसा हो रहा है।
डॉ. महेश परिमल