डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। इसी के साथ शुरू हो गई है, टिकटों के लिए रस्साकशी,मतभेद और विवाद। वास्तव में प्रत्याशियों का चयन एक अग्निपरीक्षा ही है, जिसमें अपनों के आक्षेपों एवं कटाक्षों को सुनना पड़ता है। कोई बेहद अपना थोड़ी ही देर में बेहद पराया हो जाता है। बरसों तक पार्टी के लिए समर्पित एक कार्यकर्ता केवल टिकट न मिलने या मिल जाने के बाद कटने से वह जिस तरह से बिखर जाता है, उससे उसकी मानसिक स्थिति का पता चलता है। कई बार हालात इतने अधिक बेकाबू हो जाते हैं कि पार्टी प्रमुख को भी कुछ सोचने के लिए विवश कर देते हैं। टिकट वितरण का कार्य तलवार की तीखी धार पर चलने जैसा है। हर किसी को टिकट की आस होती है। पर मिलता उसे ही है, जो रसूखदार होता है। कई बार उपेक्षा का शिकार सही प्रत्याशी टिकट न मिलने के कारण निर्दलीय खड़ा हो जाता है और जीतकर दिखाता है। इससे यह संदेश जाता है कि कई बार पार्टी प्रमुख भी टिकट देने में पक्षपात करते हैं। अपने चहेतों को आगे बढ़ाने के चक्कर में वे अपनी एक सीट ही खो देते हैं। इसलिए सही प्रत्याशियों का चयन एक ऐसी परीक्षा है, जिसमें सभी उत्तीर्ण नहीं होते।
लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही प्रत्याशियों के चयन का सिलसिला शुरू हो गया है। सभी दल हर स्तर पर अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहे हैं। प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया में इतनी अधिक सावधानी बरती जा रही है कि किसी को भी कानो-कान खबर न हो और प्रत्याशी की घोषणा हो जाए। उसके बाद भी विवाद और मतभेदों को नहीं रोका जा सकता। इस समय आम आदमी पार्टी भी लोकसभा चुनाव के लिए ताल ठोंक चुकी है। दिल्ली विधानसभा में इस पार्टी को मिली सफलता से हर कोई हैरत में था। अब भले ही उसकी लोकप्रियता में कमी आ गई हो, पर उनका खौफ बरकरार है। स पार्टी ने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन व्यक्ति किस सीट का प्रत्याशी होगा। अभी तक उसने अपने सौ प्रत्याशियों की सूची जारी की है। अगले सप्ताह तक सभी दल अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर देंगे। अभी प्रादेशिक दलों के प्रत्याशियों के लिए कशमकश जारी है। लालू यादव ने अपने बेटी और पत्नी को प्रत्याशी घोषित कर दिया है। कुछ दल भले ही प्रादेशिक हों, पर उसके प्रत्याशी अन्य राज्यों में भी चुनाव लड़ते हैं। इसके मद्देनजर प्रादेशिक दलों को अपने प्रत्याशी घोषित करने पर काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। क्योंकि कई बार अन्य दलों से समझौते भी होते हैं। वैसे सभी प्रादेशिक दल यही चाहते हैं कि उनके कम से कम दस प्रत्याशी तो जीत ही जाएं। ऐसी धारणा है कि दस सांसदों वाले दलों का भी रुतबा होता है, वे भी सरकार बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सपा-बसपा ने अपने सांसदों के बल पर केंद्र में सरकार बनाने में मदद की और उसे काफी परेशान भी किया।
सभी दलों की यही कोशिश होती है कि उनका प्रत्याशी जीत हासिल करे। कई बार टिकट खरीदे भी जाते हैं। यदि प्रत्याशी मालदार है, तो वह वोट खरीदने की भी क्षमता रखता है, इसलिए उसे टिकट मिल जाता है। इससे कई संभावित प्रत्याशी नाराज हो जाते हैं, वे बागी हो जाते हैं। उसके बाद शुरू होता ह्रै, उन्हें मनाने का सिलसिला। प्रत्याशियों का चयन एक सरदर्द प्रक्रिया है। बड़े दलों ने अपने प्रत्याशियों की सूची पहले ही तैयार कर ली है। पर उसे घोषित करने में हिचक रहे हैं। यह भी सच है कि जिस प्रत्याशी का चयन हो, उसकी जीत सुनिश्चित हो। चयनकर्ता के पास पहले तो एक ही सीट के लिए कई प्रत्याशी होते हैं, उसके बाद उनमें से फिर चयन होता है, यह प्रक्रिया काफी समय तक चलती रहती है, आखिर में केवल दो पर आकर सिलसिला खत्म हो जाता है। इसके बाद उन दो में से एक का काफी जद्दोजहद बाद चयन होता है। जो दल केंद्र सरकार के समर्थक होते हैं, उनके प्रत्याशियों के चयन में अक्सर कोई फेरफार नहीं होता। समर्थक दल के प्रत्याशी बार-बार अपने क्षेत्र से जीतते ही रहते हैं। इसमें व्यतिक्रम नहीं आता। कई बार मतदाताओं के सामने आयातित प्रत्याशी को खड़ा कर दिया जाता है। ऐसे प्रत्याशियों को लालू यादव ‘हेलीकाप्टर ’ कहते हैं, जो ऊपर से आते हैं और ऊपर ही चले जाते हैं। कभी आम जनता या अपने संसदीय क्षेत्र में दिखाई नहीं देते। ऐसे प्रत्याशी यदि पार्टी में किसी महत्वपूर्ण पद पर होते हैं, तो उनकी जीत में कोई बाधा नहीं आती, पर क्षेत्र के लिए प्रत्याशी नया हो, तो काफी मुश्किलें आती हैं। कई बार ऐसे प्रत्याशी जीत ही नहीं पाते हैं। कई बार मतदाता अपनी समझदारी का परिचय देते हुए ऐसे आरोपित प्रत्याशियों को एक सिरे से ही नकार दते हैं। पार्टी को अपनी इस गलती का अहसास बहुत बाद में होता है।
जिन प्रत्याशियों को नागरिकों के बीच रहना आता है, वे जमीन से जुड़े होते हैं, ऐसे लोग मतदाताओं का विश्वास बहुत ही जल्द प्राप्त कर लेते हैं। पर कुछ प्रत्याशियों को मतदाता आखिर तक अपना नहीं मान पाते। राहुल गांधी और डॉ. मनमोहन को लेकर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि वे अपने नहीं हैं, पर सोनिया गांधी को लेकर मतदाताओं में अपनापा देखा जाता है। इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए रोटी-कपड़ा और मकान का नारा दिया था, अरविंद केजरीवाल सड़क-बिजली और पानी के नारे के साथ जनता के सामने आए। रोटी-कपड़ा और मकान के नारे में इंदिरा गांधी का अनुभव काम आया। पर अरविंद केजरीवाल ज्वलंत मुद्दों के साथ भले ही सामने आएं हों, पर उनमें अनुभव की कमी के कारण उनका सड़क पर आना भी लोगों को नागवार गुजरा। जनता क्या चाहती है, उसकी नब्ज पर हाथ रखकर प्रत्याशी आगे बढ़ें, तो जीत सुनिश्चित होती है। पिछले दस वर्षो में हम सबने देखा कि इतनी अधिक चलनियों से गुजरने के बाद भी प्रत्याशी जीत तो जाते हैं, पर बाद भी उनमें सत्ता का मोह ऐसा जागता है कि वे भ्रष्टाचारी, सेक्सकांड में उलझने वाले या फिर दलाली के चक्कर में फंस जाते हैं। इससे पार्टी बदनाम होती है। कई सांसद तो संसद में प्रश्न पूछने के लिए भी रिश्वत लेते हैं। यह भी जगजाहिर हो चुका है। इसके लिए होना तो यह चाहिए कि सांसद के काम की हर साल समीक्षा होनी चाहिए। यदि इसमें वह फिट नहीं बैठते, तो पार्टी को उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए, ताकि दूसरे सांसदों को सबक मिले। टिकट देने में जितनी उदारता बरती जाए, उतने ही सख्त उनके कार्यकलापों के लिए भी होना चाहिए, तभी पार्टी और उसके द्वारा चयनित प्रत्याशियों की छवि बेदाग होती है।
डॉ. महेश परिमल
लोकसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। इसी के साथ शुरू हो गई है, टिकटों के लिए रस्साकशी,मतभेद और विवाद। वास्तव में प्रत्याशियों का चयन एक अग्निपरीक्षा ही है, जिसमें अपनों के आक्षेपों एवं कटाक्षों को सुनना पड़ता है। कोई बेहद अपना थोड़ी ही देर में बेहद पराया हो जाता है। बरसों तक पार्टी के लिए समर्पित एक कार्यकर्ता केवल टिकट न मिलने या मिल जाने के बाद कटने से वह जिस तरह से बिखर जाता है, उससे उसकी मानसिक स्थिति का पता चलता है। कई बार हालात इतने अधिक बेकाबू हो जाते हैं कि पार्टी प्रमुख को भी कुछ सोचने के लिए विवश कर देते हैं। टिकट वितरण का कार्य तलवार की तीखी धार पर चलने जैसा है। हर किसी को टिकट की आस होती है। पर मिलता उसे ही है, जो रसूखदार होता है। कई बार उपेक्षा का शिकार सही प्रत्याशी टिकट न मिलने के कारण निर्दलीय खड़ा हो जाता है और जीतकर दिखाता है। इससे यह संदेश जाता है कि कई बार पार्टी प्रमुख भी टिकट देने में पक्षपात करते हैं। अपने चहेतों को आगे बढ़ाने के चक्कर में वे अपनी एक सीट ही खो देते हैं। इसलिए सही प्रत्याशियों का चयन एक ऐसी परीक्षा है, जिसमें सभी उत्तीर्ण नहीं होते।
लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही प्रत्याशियों के चयन का सिलसिला शुरू हो गया है। सभी दल हर स्तर पर अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहे हैं। प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया में इतनी अधिक सावधानी बरती जा रही है कि किसी को भी कानो-कान खबर न हो और प्रत्याशी की घोषणा हो जाए। उसके बाद भी विवाद और मतभेदों को नहीं रोका जा सकता। इस समय आम आदमी पार्टी भी लोकसभा चुनाव के लिए ताल ठोंक चुकी है। दिल्ली विधानसभा में इस पार्टी को मिली सफलता से हर कोई हैरत में था। अब भले ही उसकी लोकप्रियता में कमी आ गई हो, पर उनका खौफ बरकरार है। स पार्टी ने अभी यह तय नहीं किया है कि कौन व्यक्ति किस सीट का प्रत्याशी होगा। अभी तक उसने अपने सौ प्रत्याशियों की सूची जारी की है। अगले सप्ताह तक सभी दल अपने-अपने प्रत्याशी घोषित कर देंगे। अभी प्रादेशिक दलों के प्रत्याशियों के लिए कशमकश जारी है। लालू यादव ने अपने बेटी और पत्नी को प्रत्याशी घोषित कर दिया है। कुछ दल भले ही प्रादेशिक हों, पर उसके प्रत्याशी अन्य राज्यों में भी चुनाव लड़ते हैं। इसके मद्देनजर प्रादेशिक दलों को अपने प्रत्याशी घोषित करने पर काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है। क्योंकि कई बार अन्य दलों से समझौते भी होते हैं। वैसे सभी प्रादेशिक दल यही चाहते हैं कि उनके कम से कम दस प्रत्याशी तो जीत ही जाएं। ऐसी धारणा है कि दस सांसदों वाले दलों का भी रुतबा होता है, वे भी सरकार बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सपा-बसपा ने अपने सांसदों के बल पर केंद्र में सरकार बनाने में मदद की और उसे काफी परेशान भी किया।
सभी दलों की यही कोशिश होती है कि उनका प्रत्याशी जीत हासिल करे। कई बार टिकट खरीदे भी जाते हैं। यदि प्रत्याशी मालदार है, तो वह वोट खरीदने की भी क्षमता रखता है, इसलिए उसे टिकट मिल जाता है। इससे कई संभावित प्रत्याशी नाराज हो जाते हैं, वे बागी हो जाते हैं। उसके बाद शुरू होता ह्रै, उन्हें मनाने का सिलसिला। प्रत्याशियों का चयन एक सरदर्द प्रक्रिया है। बड़े दलों ने अपने प्रत्याशियों की सूची पहले ही तैयार कर ली है। पर उसे घोषित करने में हिचक रहे हैं। यह भी सच है कि जिस प्रत्याशी का चयन हो, उसकी जीत सुनिश्चित हो। चयनकर्ता के पास पहले तो एक ही सीट के लिए कई प्रत्याशी होते हैं, उसके बाद उनमें से फिर चयन होता है, यह प्रक्रिया काफी समय तक चलती रहती है, आखिर में केवल दो पर आकर सिलसिला खत्म हो जाता है। इसके बाद उन दो में से एक का काफी जद्दोजहद बाद चयन होता है। जो दल केंद्र सरकार के समर्थक होते हैं, उनके प्रत्याशियों के चयन में अक्सर कोई फेरफार नहीं होता। समर्थक दल के प्रत्याशी बार-बार अपने क्षेत्र से जीतते ही रहते हैं। इसमें व्यतिक्रम नहीं आता। कई बार मतदाताओं के सामने आयातित प्रत्याशी को खड़ा कर दिया जाता है। ऐसे प्रत्याशियों को लालू यादव ‘हेलीकाप्टर ’ कहते हैं, जो ऊपर से आते हैं और ऊपर ही चले जाते हैं। कभी आम जनता या अपने संसदीय क्षेत्र में दिखाई नहीं देते। ऐसे प्रत्याशी यदि पार्टी में किसी महत्वपूर्ण पद पर होते हैं, तो उनकी जीत में कोई बाधा नहीं आती, पर क्षेत्र के लिए प्रत्याशी नया हो, तो काफी मुश्किलें आती हैं। कई बार ऐसे प्रत्याशी जीत ही नहीं पाते हैं। कई बार मतदाता अपनी समझदारी का परिचय देते हुए ऐसे आरोपित प्रत्याशियों को एक सिरे से ही नकार दते हैं। पार्टी को अपनी इस गलती का अहसास बहुत बाद में होता है।
जिन प्रत्याशियों को नागरिकों के बीच रहना आता है, वे जमीन से जुड़े होते हैं, ऐसे लोग मतदाताओं का विश्वास बहुत ही जल्द प्राप्त कर लेते हैं। पर कुछ प्रत्याशियों को मतदाता आखिर तक अपना नहीं मान पाते। राहुल गांधी और डॉ. मनमोहन को लेकर लोग ऐसा ही सोचते हैं कि वे अपने नहीं हैं, पर सोनिया गांधी को लेकर मतदाताओं में अपनापा देखा जाता है। इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए रोटी-कपड़ा और मकान का नारा दिया था, अरविंद केजरीवाल सड़क-बिजली और पानी के नारे के साथ जनता के सामने आए। रोटी-कपड़ा और मकान के नारे में इंदिरा गांधी का अनुभव काम आया। पर अरविंद केजरीवाल ज्वलंत मुद्दों के साथ भले ही सामने आएं हों, पर उनमें अनुभव की कमी के कारण उनका सड़क पर आना भी लोगों को नागवार गुजरा। जनता क्या चाहती है, उसकी नब्ज पर हाथ रखकर प्रत्याशी आगे बढ़ें, तो जीत सुनिश्चित होती है। पिछले दस वर्षो में हम सबने देखा कि इतनी अधिक चलनियों से गुजरने के बाद भी प्रत्याशी जीत तो जाते हैं, पर बाद भी उनमें सत्ता का मोह ऐसा जागता है कि वे भ्रष्टाचारी, सेक्सकांड में उलझने वाले या फिर दलाली के चक्कर में फंस जाते हैं। इससे पार्टी बदनाम होती है। कई सांसद तो संसद में प्रश्न पूछने के लिए भी रिश्वत लेते हैं। यह भी जगजाहिर हो चुका है। इसके लिए होना तो यह चाहिए कि सांसद के काम की हर साल समीक्षा होनी चाहिए। यदि इसमें वह फिट नहीं बैठते, तो पार्टी को उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए, ताकि दूसरे सांसदों को सबक मिले। टिकट देने में जितनी उदारता बरती जाए, उतने ही सख्त उनके कार्यकलापों के लिए भी होना चाहिए, तभी पार्टी और उसके द्वारा चयनित प्रत्याशियों की छवि बेदाग होती है।
डॉ. महेश परिमल
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