डॉ. महेश परिमल
चुनाव के समय जनता खामोश हो, तो उसे उसकी सरलता न समझा जाए, बल्कि यह समझा जाए कि वह कुछ नया करने का सोच रही है। उसके पास परिवर्तन के लिए केवल एक ही शस्त्र है, जिसे वह अपना अधिकार समझती है। पर अपना कीमती वोट देते ही वह ठगी जाती है। लेकिन इस बार जनता ने अपने वोट की कीमत समझी और बहुत ही होशियारी से अपनी बात भी कह दी। अच्छे-अच्छे तीसमारखां भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर ये हुआ क्या? किसी ने भी इस परिणाम की कल्पना भी नहीं की थी। स्वयं अरविंद केजरीवाल ने भी नहीं। इसलिए खामोश जनता भी कुछ कहना चाहती है, खामोश की इस भाषा को आज हर नेता को समझने की आवश्यकता है। अब सभी विश्लेषण सामने आ रहे हैं कि अहंकार ही भाजपा को ले डूबा। यह अहंकार इतना घना था कि भाजपा को समाज दलित, पीड़ित वर्ग की पीड़ा दिखाई नहीं दी। भाजपा को अमीरों की पार्टी मानने वाले अब आश्वस्त हो चुके हैं कि यह आरोप गलत नहीं है। आप की जीत ने भाजपा को कई सबक दिए हैं। इसे यदि भाजपा अभी समझ लेती है, तो उसे अगले विधानसभा चुनावों में जीत का डंका बजाने में आसानी होगी। पर नहीं समझी, तो समझ लो, इस बार भी भाजपा बुरी तरह से औंधे मुंह गिरेगी। इस चुनाव की सबसे बड़ी बात यह रही कि कांग्रेस के जिस घमंड ने भाजपा को जिताया, उसी घमंड ने भाजपा को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
केवल ढाई वर्ष पुरानी आम आदमी पार्टी ने बरसों पुरानी कांग्रेस-भाजपा को धूल चाटने को विवश कर दिया है। भाजपा ने 225 से अधिक रैलियां की, उसका उसे कोई फायदा नहीं हुआ। जो तीन सीटें भाजपा ने जीती हैं, वह केवल प्रत्याशियों ने अपने बल पर जीती है। इसमें पार्टी की कोई भूमिका नहीं है। आम आदमी पार्टी की जीत से अब दोनों प्रमुख दलों को किस तरह का बोधपाठ लेना चाहिए, यह सोचने की बात है। फिर भी कुछ बिंदुओं पर चर्चा की जा सकती है:-
कांग्रेस-भाजपा के लिए सबसे बड़ा बोधपाठ यही है कि राजनीति में किसी का अभिमान अधिक समय तक नहीं टिकता। कांग्रेस को 15 साल तक शासन करने के बाद अभिमान आ गया था, वह यह समझने लगी थी कि दिल्ली में उसका कोई विकल्प नहीं है। प्रजा ने दिसम्बर 2013 में ही कांग्रेस के इस घमंड को तोड़कर रख दिया। लोकसभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली विधानसभा की 70 में से 60 सीटों में लीड मिली थी, इससे उसे यह अभिमान हो गया था कि उसे कोई हरा नहीं सकता। इस तरह से ऐतिहासिक जीत हासिल करने वाले अरविंद केजरीवाल को भी यदि घमंड आ गया, तो दिल्ली की जनता उसे भी नहीं बख्शेगी।
चुनाव में सबसे अधिक शर्मनाक हार का सामना करने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए यह सबक है कि नेहरू-गांधी परिवार अब पार्टी को तार नहीं सकते। सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका गांधी की परछाई से बाहर आकर उन्हें नए नेता की तलाश करनी होगी।
दिल्ली में भाजपा सरकार बनाने का दावा सीना ठोंककर करने वाले अमित शाह के लिए यह सबक है कि स्थानीय लोगों की उपेक्षा कर कभी भी कोई चुनाव जीता नहीं जा सकता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह सबक है कि प्रजा केवल लच्छेदार भाषण से ही खुश नहीं होती। आप उन्हें जो वचन देते हैं, उससे वह एक बार तो निश्चित रूप से भले ही भ्रम में रहकर अपना वोट तो देती है, पर बाद में वह उसका परिणाम भी जानना चाहती है। अपने 9 महीने के शासनकाल में प्रधानमंत्री ने केवल बातें ही बनाई है, कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया, जिसका परिणाम तुरंत मिला हो। अपनी किस्मत की बदौलत चलने वाली सरकार अधिक समय तक टिक नहीं सकती।
देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए यह बोधपाठ है कि प्रजा से कभी ऐसे वादे न किए जाएं, जिस पूरा करने की क्षमता न हो। लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री ने 100 दिनों के अंदर काला धन वापस लाने का वादा किया था, पर वह पूरा नहीं हो पाया। गंगा नदी को शुद्ध करने का वचन दिया था, वह आज भी प्रदूषित ही है। देश से मांस का निर्यात बंद करने का वादा भी प्रधानमंत्री भूल गए। अरविंद केजरीवाल ने भी दिल्ली की जनता से कई ऐसे वादे किए हैं, जो पूरे नहीं किए जा सकते। प्रजा ठोस कार्य चाहती है, झूठे आश्वासन नहीं।
भाजपा-कांग्रेस के लिए बोधपाठ यह है कि गरीबों, दलितों, किसानों, मजदूरों, युवाओं, महिलाओं की उपेक्षा कर उसके हितों को नुकसान पहुंचे, ऐसे कदम उठाकर कोई अधिक समय तक सत्ता पर नहीं रह सकता। भाजपा की गरीबी विरोधी और उद्योग की तरफ झुकाव से गरीब और किसान नाराज हुए हैं। एनडीए सरकार ने जो उतावलापन जमीन संपादन के मामले में विधेयक लाकर किया है, उससे भी किसान भयभीत हैं। विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के घर वापसी जैसे नारे से मुस्लिम नाराज हुए हैं। यदि केंद्र सरकार ने गरीब तबकों की खुशहाली के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो सत्ता में रहना मुश्किल है।
प्रधानमंत्री और भाजपाध्यक्ष के लिए यह बोधपाठ है कि पार्टी से बरसों से अपनी सेवाएं देने वाले निष्ठावान कार्यकर्ताओं और नेताओं की उपेक्षा कर किरण बेदी जैसे लोगों को पैराशूट प्रत्याशी बनाकर जनता पर थोप देने से विजयश्री प्राप्त नहीं की जा सकती।
भारत के चुनाव केवल मेनपॉवर, मनीपॉवर, कीचड़ उछाल और चारित्र्यहनन के आधार पर नहीं जीते जाते। भाजपा ने दिल्ली की गद्दी पाने के लिए सभी तरह के उपायों को आजमाया। भाजपा के पास कार्यकर्ताओं और नेताओं की कमी नहीं थी, बेशुमार दौलत भी लुटाई, केजरीवाल पर कीचड़ उछालने में कोई कसर बाकी न रखी। दूसरी ओर केजरीवाल ने यह जानने की कोशिश की कि दिल्ली की जनता आखिर चाहती क्या है। इसे सामने रखते हुए उन्होंने प्रचार किया। सकारात्मक अभिगम अपनाया। इसलिए उनकी विजय हुई।
भाजपा के खिलाफ जब सारे दल एक हो जाते हैं, तब वह मुश्किल में पड़ जाती है। अगले कुछ महीनों में ही बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां सफलता के परचम गाड़ना आवश्यक है। यदि दिल्ली चुनाव से मिलने वाले बोधपाठ को ध्यान में रखा जाएगा, तो सफलता मिल सकती है।
उपरोक्त बोधपाठ के अलावा अब ऐसे कई विश्लेषण सामने आ गए हैं, जो प्रधानमंत्री और भाजपाध्यक्ष की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। चुनाव के पहले सभी दलों द्वारा विषवमन किया गया है, उसके बाद उन्हीं दलों से अच्छे से व्यवहार करना बहुत मुश्किल है। इसलिए ऐसा भी न बोलो कि बाद में अपना वही व्यवहार उन्हें आपत्तिजनक लगे। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि राजनीतिक दल अपने व्यवहार में कुछ बदलाव करेंगे, पर यह तो करना ही होगा कि अपनी सारी नीतियां, अपने विचारों में आम आदमी और उनकी समस्याओं को भी रखें। इससे मुसीबत के समय वही आम आदमी ही काम आएगा। यदि आम आदमी को हाशिए पर लाया गया, तो वही आम आदमी जब भी अपनी ताकत दिखाएगा, तो वह एक बुलंद फैसला ही होगा।
डॉ. महेश परिमल
चुनाव के समय जनता खामोश हो, तो उसे उसकी सरलता न समझा जाए, बल्कि यह समझा जाए कि वह कुछ नया करने का सोच रही है। उसके पास परिवर्तन के लिए केवल एक ही शस्त्र है, जिसे वह अपना अधिकार समझती है। पर अपना कीमती वोट देते ही वह ठगी जाती है। लेकिन इस बार जनता ने अपने वोट की कीमत समझी और बहुत ही होशियारी से अपनी बात भी कह दी। अच्छे-अच्छे तीसमारखां भी नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर ये हुआ क्या? किसी ने भी इस परिणाम की कल्पना भी नहीं की थी। स्वयं अरविंद केजरीवाल ने भी नहीं। इसलिए खामोश जनता भी कुछ कहना चाहती है, खामोश की इस भाषा को आज हर नेता को समझने की आवश्यकता है। अब सभी विश्लेषण सामने आ रहे हैं कि अहंकार ही भाजपा को ले डूबा। यह अहंकार इतना घना था कि भाजपा को समाज दलित, पीड़ित वर्ग की पीड़ा दिखाई नहीं दी। भाजपा को अमीरों की पार्टी मानने वाले अब आश्वस्त हो चुके हैं कि यह आरोप गलत नहीं है। आप की जीत ने भाजपा को कई सबक दिए हैं। इसे यदि भाजपा अभी समझ लेती है, तो उसे अगले विधानसभा चुनावों में जीत का डंका बजाने में आसानी होगी। पर नहीं समझी, तो समझ लो, इस बार भी भाजपा बुरी तरह से औंधे मुंह गिरेगी। इस चुनाव की सबसे बड़ी बात यह रही कि कांग्रेस के जिस घमंड ने भाजपा को जिताया, उसी घमंड ने भाजपा को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
केवल ढाई वर्ष पुरानी आम आदमी पार्टी ने बरसों पुरानी कांग्रेस-भाजपा को धूल चाटने को विवश कर दिया है। भाजपा ने 225 से अधिक रैलियां की, उसका उसे कोई फायदा नहीं हुआ। जो तीन सीटें भाजपा ने जीती हैं, वह केवल प्रत्याशियों ने अपने बल पर जीती है। इसमें पार्टी की कोई भूमिका नहीं है। आम आदमी पार्टी की जीत से अब दोनों प्रमुख दलों को किस तरह का बोधपाठ लेना चाहिए, यह सोचने की बात है। फिर भी कुछ बिंदुओं पर चर्चा की जा सकती है:-
कांग्रेस-भाजपा के लिए सबसे बड़ा बोधपाठ यही है कि राजनीति में किसी का अभिमान अधिक समय तक नहीं टिकता। कांग्रेस को 15 साल तक शासन करने के बाद अभिमान आ गया था, वह यह समझने लगी थी कि दिल्ली में उसका कोई विकल्प नहीं है। प्रजा ने दिसम्बर 2013 में ही कांग्रेस के इस घमंड को तोड़कर रख दिया। लोकसभा चुनाव में भाजपा को दिल्ली विधानसभा की 70 में से 60 सीटों में लीड मिली थी, इससे उसे यह अभिमान हो गया था कि उसे कोई हरा नहीं सकता। इस तरह से ऐतिहासिक जीत हासिल करने वाले अरविंद केजरीवाल को भी यदि घमंड आ गया, तो दिल्ली की जनता उसे भी नहीं बख्शेगी।
चुनाव में सबसे अधिक शर्मनाक हार का सामना करने वाली देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए यह सबक है कि नेहरू-गांधी परिवार अब पार्टी को तार नहीं सकते। सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका गांधी की परछाई से बाहर आकर उन्हें नए नेता की तलाश करनी होगी।
दिल्ली में भाजपा सरकार बनाने का दावा सीना ठोंककर करने वाले अमित शाह के लिए यह सबक है कि स्थानीय लोगों की उपेक्षा कर कभी भी कोई चुनाव जीता नहीं जा सकता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह सबक है कि प्रजा केवल लच्छेदार भाषण से ही खुश नहीं होती। आप उन्हें जो वचन देते हैं, उससे वह एक बार तो निश्चित रूप से भले ही भ्रम में रहकर अपना वोट तो देती है, पर बाद में वह उसका परिणाम भी जानना चाहती है। अपने 9 महीने के शासनकाल में प्रधानमंत्री ने केवल बातें ही बनाई है, कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया, जिसका परिणाम तुरंत मिला हो। अपनी किस्मत की बदौलत चलने वाली सरकार अधिक समय तक टिक नहीं सकती।
देश की सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए यह बोधपाठ है कि प्रजा से कभी ऐसे वादे न किए जाएं, जिस पूरा करने की क्षमता न हो। लोकसभा चुनाव के पहले प्रधानमंत्री ने 100 दिनों के अंदर काला धन वापस लाने का वादा किया था, पर वह पूरा नहीं हो पाया। गंगा नदी को शुद्ध करने का वचन दिया था, वह आज भी प्रदूषित ही है। देश से मांस का निर्यात बंद करने का वादा भी प्रधानमंत्री भूल गए। अरविंद केजरीवाल ने भी दिल्ली की जनता से कई ऐसे वादे किए हैं, जो पूरे नहीं किए जा सकते। प्रजा ठोस कार्य चाहती है, झूठे आश्वासन नहीं।
भाजपा-कांग्रेस के लिए बोधपाठ यह है कि गरीबों, दलितों, किसानों, मजदूरों, युवाओं, महिलाओं की उपेक्षा कर उसके हितों को नुकसान पहुंचे, ऐसे कदम उठाकर कोई अधिक समय तक सत्ता पर नहीं रह सकता। भाजपा की गरीबी विरोधी और उद्योग की तरफ झुकाव से गरीब और किसान नाराज हुए हैं। एनडीए सरकार ने जो उतावलापन जमीन संपादन के मामले में विधेयक लाकर किया है, उससे भी किसान भयभीत हैं। विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के घर वापसी जैसे नारे से मुस्लिम नाराज हुए हैं। यदि केंद्र सरकार ने गरीब तबकों की खुशहाली के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया, तो सत्ता में रहना मुश्किल है।
प्रधानमंत्री और भाजपाध्यक्ष के लिए यह बोधपाठ है कि पार्टी से बरसों से अपनी सेवाएं देने वाले निष्ठावान कार्यकर्ताओं और नेताओं की उपेक्षा कर किरण बेदी जैसे लोगों को पैराशूट प्रत्याशी बनाकर जनता पर थोप देने से विजयश्री प्राप्त नहीं की जा सकती।
भारत के चुनाव केवल मेनपॉवर, मनीपॉवर, कीचड़ उछाल और चारित्र्यहनन के आधार पर नहीं जीते जाते। भाजपा ने दिल्ली की गद्दी पाने के लिए सभी तरह के उपायों को आजमाया। भाजपा के पास कार्यकर्ताओं और नेताओं की कमी नहीं थी, बेशुमार दौलत भी लुटाई, केजरीवाल पर कीचड़ उछालने में कोई कसर बाकी न रखी। दूसरी ओर केजरीवाल ने यह जानने की कोशिश की कि दिल्ली की जनता आखिर चाहती क्या है। इसे सामने रखते हुए उन्होंने प्रचार किया। सकारात्मक अभिगम अपनाया। इसलिए उनकी विजय हुई।
भाजपा के खिलाफ जब सारे दल एक हो जाते हैं, तब वह मुश्किल में पड़ जाती है। अगले कुछ महीनों में ही बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं, वहां सफलता के परचम गाड़ना आवश्यक है। यदि दिल्ली चुनाव से मिलने वाले बोधपाठ को ध्यान में रखा जाएगा, तो सफलता मिल सकती है।
उपरोक्त बोधपाठ के अलावा अब ऐसे कई विश्लेषण सामने आ गए हैं, जो प्रधानमंत्री और भाजपाध्यक्ष की कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। चुनाव के पहले सभी दलों द्वारा विषवमन किया गया है, उसके बाद उन्हीं दलों से अच्छे से व्यवहार करना बहुत मुश्किल है। इसलिए ऐसा भी न बोलो कि बाद में अपना वही व्यवहार उन्हें आपत्तिजनक लगे। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि राजनीतिक दल अपने व्यवहार में कुछ बदलाव करेंगे, पर यह तो करना ही होगा कि अपनी सारी नीतियां, अपने विचारों में आम आदमी और उनकी समस्याओं को भी रखें। इससे मुसीबत के समय वही आम आदमी ही काम आएगा। यदि आम आदमी को हाशिए पर लाया गया, तो वही आम आदमी जब भी अपनी ताकत दिखाएगा, तो वह एक बुलंद फैसला ही होगा।
डॉ. महेश परिमल
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