डॉ. महेश परिमल
इस शीर्षक पंक्ति को हम सबने कभी न कभी, कहीं न कहीं निश्चित ही गुनगुनाया होगा. जिन्हें भूलने की आदत है, उन्हें यह बताना मुश्किल है कि उन्होंने उक्त पंक्तियाँ कब और कहाँ गुनगुनाई थी. पर जिनके भीतर अभी भी कोई बच्चा मचलता है, उन्हें शायद यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि माँ की गोद के बाद उन्होंने झूले का आनंद कब और कहाँ लिया था. बचपन की यादें तो कच्ची मिट्टी के घरौंदों सी होती है. उसमें रेत के टीलों की उड़ती धूल होती है, सावन के झूलों की अल्हड़ पेंगें होती है, रिमझिम फुहारों में भीगता मासूम तन और मन होता है, वहाँ झील या नदी के गहरे पानी में नहीं, नालों या पोखरों के पानी में कागज की कश्ती तैरती है और साथ ही तैर जाती है हवाओं में कचनार की कच्ची कली सी खिलखिलाहट, जो एक याद बन कर हर मोड़ पर साथ निभाती है.
माँ के हाथों में झूलने वाले बहुत से लोग होंगे, पर उसके बाद यदि और किसी झूले ने मन मोहा है, तो वह है सावन में पेड़ों पर बाँधा जाने वाला झूला. वह झूला भले ही पुराने टायरों से बना हो, पर उस पर झूलने का जो आनंद हमें प्राप्त हुआ है, वह आज न तो किसी आधुनिक मेले में आया है और न ही घर में बने झूले पर. उस झूले की बता ही कुछ और थी. अब तो न वैसा सावन है और न ही वैसे झूले. जिस तरह झूले के रूप बदले हैं, उसी तरह हमारे सामने सावन न जाने कितने रूप बदल रहा है.
सावन याने मस्ती का महीना. बारिश जब अपना तांडव दिखा चुकी होती है और सँभलने लगती है, बेघरबार हुए लोग अपना आशियाना फिर से समेटने लगते हैं, ज़िंदगी जागने लगती है, तब चुपके से सावन हमारे बगल में न जाने कब आ जाता है, हमें पता ही नहीं चलता. यूँ तो सावन के कितने ही रूप हैं, पर वह छलिए की तरह इस तरह हमारे सामने होता है कि हम उसे पहचान ही नहीं पाते. कॉलेज जाते हुए बिटिया जब कुछ गुनगुनाने लगती है, तब हमें लगता है कि उसका सावन आ गया. बेटा जब नई बाईक की माँग करने लगे, समझो उसे अपने सावन की तलाश है. गाँवों में जब कल की अल्हड़ युवती अपने बच्चे के साथ गुज़रती है, तब मालूम चलता है कि अरे! इस बार इसका रूप तो और भी निखर गया है. नवविवाहिताएँ अपने मायके इसी सावन में आती हैं, तब वह अपने ससुराल के सावन से गाँव के सावन की तुलना करने लगती है. कौन सा सावन अच्छा है? यह भी भला पूछने की बात है? सावन मास पर ही भक्ति की रसधारा सबसे अधिक बहती है. चाहे वे सावन सोमवार हों या फिर रक्षाबंधन, जन्माष्टमी, कजली तीज आदि व्रत-त्योहारों का यही मौसम है.
बारिश का कहर पूरे शहर पर जब डायन की तरह टूट पड़ता है, ऊँची-ऊँची हवेलीनुमा बंगलों की तरफ आने वाले पानी के बहाव को झोपड़पट्टियों की तरफ मोड़ दिया जाता है, तब हमारे सामने होता है मस्ती भरे सावन का क्रूर रूप. महीन भर पहले जब नलों का पानी नीचे की तरफ अधिक पहुँचता, तब नए संसाधनों को अपनाकर उसे रोकने की पूरी कोशिश होती, पर अब इंद्र देवता के अतिप्रसन्न होने पर उन्हीं आधुनिक संसाधनों से उसी पानी को नीचे की तरफ बहा देने का यह उपक्रम कुछ समझ में नहीं आता. कहाँ-कौन सा सावन है. असली सावन ऊपर है या नीचे?
उम्र के साथ-साथ सावन के रूप में भी परिवर्तन आता रहता है. छोटी उम्र का सावन तो बिलकुल निश्चल होता है. सावन का वह रूप तो यह भी नहीं देखता कि मेरे पहले झूलने वाला मेरा साथी किस धर्म को मानने वाला है. उसे तो प्रतीक्षा होती है तो केवल अपनी बारी की. उस समय होठों पर कोई गीत अवश्य होता. चाहे वह माँ से ही क्यों न सुना गया हो. गीत याद न आ रहा हो, तो कोई बात नहीं, अपने पाठ्यक्रम में कई कविताएँ तो हैं ही. याने झूले के साथ कु छ न कुछ गुनगुनाना तो है ही. इस गीत में एक रिदम होती है, एक ताल होती है. इसी से झाँकता है वह मासूम सा सावन.
जैसे-जैसे मानव अपने कद से और बड़ा और स्वार्थी होता है, वैसे-वैसे उस मासूम सावन का रूप बदलता रहता है. अब तो वह सावन बड़ी-बड़ी बातें सोचता है. किस तरह से किसके कांधे पर पाँव रखकर आगे बढ़ा जा सकता है. व्यापारी यह अच्छे से जानता है कि अधिक बारिश के बाद भी अपने अनाज को गोदामों में किस तरह से सुरक्षित रखा जाए, ताकि भविष्य में उसे और महँगे दामों में बेचा जा सके. साहूकार भी यही सोचता है कि आखिर सावन का मारा बेचारा मेरे पास ही आएगा कर्ज लेने. क्योंकि उसकी बिटिया जवान हो गई है और इस बार फसल पर इसी सावन ने पानी फेर दिया है. अब भले ही व्यापारी और साहूकार के रूप बदल गए हों, पर उनकी शोषक प्रवृत्ति में कोई बदलाव नहीं आया है.
विद्यार्थियों के लिए तो सावन नई किताबों, नई कापियों और नए-नए मित्रों के रूप में होता है. इन्हें तो रोज भीगने से मतलब है, भले ही सर्दी हो जाए, पर भीगना उतना ही आवश्यक है, जितना पढ़ने के लिए स्कूल जाना. क्लास में टीचर की डाँट का भी इन पर कोई असर नहीं होता. पूरा सावन एक-दूसरे को परखने में ही निकल जाता है.
हरियाला सावन, मासूम सावन, मदमाता सावन, इठलाता सावन, इतराता सावन, क्रूर सावन, शातिर सावन, पाजी सावन. इन सारे सावनों के बीच कहाँ है असली सावन, जो उल्लास का दूसरा नाम है, जो मस्ती का पर्याय है, जिसमें उमंग है, उत्साह है, स्फूर्ति है, आनंद है, ऐसा सावन आपको कहीं दिख जाएँ, तो क्या आप मुझे बताएँगे?
डॉ. महेश परिमल
रविवार, 26 अगस्त 2007
झूला-झूल, कदम्ब के फूल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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