न सावन, न सावन के झूले
डॉ. महेश परिमल
अपनी पूरी मस्ती और शोख अदाओं के साथ सावन कब हमारे सिरहाने आकर चुपचाप खड़े हो गया, हमें पता ही नहीं चला. हमारी आँखों का सावन तो कब का सूख चुका. हाँ बिटिया कॉलेज जाने की तैयारी करते हुए कुछ गुनगुनाती है, तब लगता है, उसका सावन आ रहा है. कई आँखें हैं, जिनमें हरियाला सावन देखता हूँ, पर उससे भी अधिक सैकड़ों आँखें हैं, जिनमें सावन ने आज तक दस्तक ही नहीं दी है. उन्हें पता ही नहीं, क्या होता है और कैसा होता है सावन?
सावन कई रूपों में हमारे सामने आता है. किसान के सामने लहलहाती फसल के रूप में, व्यापारी के सामने भरे हुए अनाज के गोदामों के रूप में, अधिकारी के सामने नोटों से भरे बैग के रूप में और नेता के सामने चुनाव के पहले मतदाता के रूप में और चुनाव के बाद स्वार्थ में लिपटे धन के रूप में. सबसे अलग सावन होता है युवाओं का. प्रेयसी या प्रिय का दिख जाना ही उनके लिए सावन के दर्शन से कम नहीं होता. इनके सावन की मस्ती का मज़ा तो न पूछो, तो ही अच्छा!
इस सावन को अपनी मस्ती में सराबोर देखना हो, तो किसी भी गाँव में चले जाएँ, जहां पेड़ों पर झूला डाले किशोरियाँ, नवयुवतियाँ या फिर महिलाएँ अनायास ही दिख जाएँगी. सावन के ये झूले मस्ती और अठखेलियों का प्रतीक होते हैं. यही झूला हम सबको मिला है माँ की बाँहों के झूले के रूप में. कभी पिता, कभी दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, भैया-भाभी या फिर दीदी की बाँहों का झूला. भला कौन भूल पाया है?
बचपन का सावन याद है आपको? मुझे याद है, मेरे सामने जातियों में बँटी देश की सामाजिक व्यवस्था के सावन का चित्र है. पूरे गाँव में आम, नीम, इमली के पेड़ों पर कई जगह झूले बाँधे जाते थे, हम सब उस पर झूलते थे. ऐसा नहीं था कि केवल किशोरियाँ या स्त्रियाँ ही झूलती हों. किशोर, अधेड़, बच्चे सभी झूलते थे. विशेष बात यह थी कि सभी जाति के लोग झूलते थे. जिस झूले पर ब्राह्मण का छोरा झूलता, उसी पर पहले या बाद में हरिजन की छोरी या छोरा भी झूलता था. एक बात अवश्य थी, सब साथ-साथ नहीं झूलते थे. जातिगत दूरी बनी ही रहती थी. यह दूरी झूले, रस्सी, पेड़ और स्थान को लेकर नहीं थी, व्यक्ति को लेकर थी. कुछ लोग हमें अपने समय पर झूलने का आनंद नहीं लेने देते थे. हम साथियों के साथ उन्हें झूलता देखते रहते. दिन में तो हमें झूलने का अवसर कम ही मिलता. पर रात को, उस वक्त तो मैदान साफ मिलता. हम कुछ लोग रात में ही झूलते. खूब झूलते.
मुझे याद है, कुछ हरिजन छोरे भी मेरे दोस्त थे. दिन में तो झूले जातियों में बँट जाते थे. पर रात में यह दायरा हम तोड़ देते थे. उस वक्त सारे भेदभाव अंधेरे में डूब जाते. हम दो-दो या तीन-तीन दोस्त साथ-साथ झूलते. झूलने का मज़ा तब तक नहीं आता, जब तक कोई लोकगीत न हो. हम बच्चे थे, लोकगीत तो याद नहीं थे, सो पाठ्यपुस्तक की कोई कविता, कोई फिल्मी गीत या फिर कबीर, रसखान, सूर-तुलसी के पद, मीरा के दोहे या फिर झाँसी की रानी के गीत ही गाने लगते. बड़ा अच्छा लगता. रात गहराती, बिजली चमकती, बादल गरजते, तो हम चुपचाप माँ के पास आकर दुबक जाते. ऐसा होता था हमारा सावन.
आज सावन बदल गया है. आने के पहले खूब तपिश देता है, अपने आगमन का विज्ञापन करता है. छतरी, बरसाती, रेनकोट, तालपत्री के रूप में. पर जब कभी यह रात में आ धमकता है, तो सारे विज्ञापन धराशायी हो जाते हैं. न तालपत्री काम आती है, न पन्नियाँ, और न ही रेनकोट. गृहस्थी की पूरी झाँकी तैरती रहती है, ढहने की तैयारी करती झोपड़ी में. सावन वहाँ भी आता है, पर रात में ही कुछ मज़दूर लग जाते हैं, बंगले का पानी उलीचने में. नाली खोद दी जाती है, पानी झोपड़पट्टी की तरफ जाने के लिए. रात में बिजली धोखा न दे जाए, इसलिए नया इन्वर्टर खरीदा जाता है. बच्चों के झूलने के लिए एक सीट वाला आधुनिक झूला हॉल में लगा दिया जाता है, पर इसमें वह मज़ा कहाँ? जो उस झोपड़पट्टी के सामने एक पेड़ पर साइकिल के खराब टायरों से बना है. बच्चे उस पर झूलते हैं, मस्तियाते-बतियाते हैं और फिर गिरने पर रो-रोकर घर चले जाते हैं.
सावन.... कभी पनीली आँखों का सावन, सूखी आँखों का रेगिस्तानी सावन, खाली बैठे शहरी मज़दूर का सावन, लोकगीतों के साथ खेतों में बुवाई करती महिलाओं का सावन, बीज के लिए कर्ज़ देते व्यापारी का सावन, बाइक पर सरपट भागते युवाओं का सावन, घर में कैद होकर खेलते बच्चों का सावन... कितने रूप हैं तेरे सावन....? तुम्हारे रंग की भी कोई सीमा नहीं. सावनी रंग जिस चेहरे पर है, समझो उसके पौ-बारह. यूँ ही हर किसी के चेहरे पर नहीं खिलता सावनी रंग.
रंगों की रंगत में सावनी झूलों की डोर अब भीगने लगी है. टूटते लोगों का सहारा भी बनता है सावन और तिनका-तिनका लोगों को तोड़ भी देता है सावन. हम तुम्हें सर-आँखों पर बिठा सकते हैं, पर तबाही का मंजर लेकर मेरे देश के किसी शहर में मत आना सावन. नहीं तो न बाँहों के झूले होंगे, न मस्ती, न अठखेलियाँ. खुशियों को लेकर आओ, तो स्वागत है तुम्हारा मेरे देश के हरियाले-मस्त सावन........
डॉ. महेश परिमल
रविवार, 26 अगस्त 2007
न सावन, न सावन के झूले
लेबल:
ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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