डॉ. महेश परिमल
कश्मीर घाटी बरसों से खून की होली खेल रही है। इस होली में कई चेहरे रंग से पुते हुए हैं, जिन्हें कश्मीरी अपना मानते हैं। सरकार ने उन्हें कश्मीरियों की रक्षा के लिए नियुक्त किया है। जनता इन पर विश्वास करना चाहती है, पर सरकार ने ही इन्हें ऐसे विशेषाधिकार दे रखे हैं, जिसका लगातार दुरुपयोग हो रहा है। सेना के वे जवान और अधिकारी जिन पर हमें हमेशा नाज रहता है, आज वही अपने विशेषाधिकार के कारण चर्चा में हैं। कई बार कश्मीरी जनता को लगता है कि इससे तो बेहतर सीमा पार से आने वाले आतंकी हैं, जो कम से कम जो भी करते हैं, बोलकर करते हैं। हमारे ये अधिकारी तो जो भी करते हैं, अपने विशेषाधिकार के तहत करते हैं। इस पूरे मामले कंेद्र सरकार की लापरवाही बार-बार सामने आ रही है। जो अधिकारी या जवान जनता पर कहर बरपाते हैं, उन पर स्थानीय पुलिस कार्रवाई नहीं कर सकती। इसके लिए प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास पहुँचाया जाता है, पर केंद्र सरकार इसकी इजाजत ही नहीं देती। जिससे लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। कई युवाओं ने तो बंदूक भी उठा ली है। थोड़ी सी सजगता दिखाते हुए केंद्र सरकार दोषी अधिकारियों एवं जवानों को जो भी सजा दे, उसका ऐसा प्रचार करे, ताकि जनता को पता चल जाए कि उन पर जुल्म करने वाले का क्या हश्र हुआ। इससे भारतीय कानून पर उनका विश्वास दृढ़ होगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। सरकार कश्मीरी जनता पर अत्याचार करने वाले को संरक्षण दे रही है।कश्मीर में आतंकवाद के खात्मे के लिए आम्र्ड फोर्सिस स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत सेना को जो विशेष अधिकार दिए गए हैं, उससे घाटी की जनता यह मानने लगी है कि इस कानून का उपयोग कम और दुरुपयोग अधिक हो रहा है। सेना के जवान और अधिकारी जनता पर अत्याचार करते हैं और उन पर कार्रवाई तक नहीं होती। ऐसे में विरोध स्वाभाविक है। यह सच है कि इसी कानून के तहत आज घाटी शांत है। इसी कानून के खौफ से कई आतंक संगठनों का सफाया हो चुका है। अब केवल कुछ ही आंतकवादी शेष हैं, जो सीमा पार से संचालित हैं। इसलिए इस कानून का दुरुपयोग ही हो रहा है, यह कहना उचित नहीं है। हाँ पर केंद्र सरकार की हीला-हवाली के कारण यह कानून अब बदनाम हो रहा है। अगर इस कानून का दुरुपयोग करने वाले सेना के अधिकारी और जवानों पर तत्काल कार्रवाई की जाती, तो संभव है कश्मीरी जनता का विश्वास न खोती। पर केंद्र सरकार अपनी आदतों से मजबूर है। जो मुस्तैदी कानून का दुरुपयोग करने वालों ने दिखाई, उससे दोगुनी मुस्तैदी सरकार को दिखानी थी। लेकिन अब देर हो चुकी है, चारों ओर इसके खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं। यहाँ तक कि कश्मीर के मुख्यमंत्री भी इसमें शामिल हो गए हैं।देश की सीमाओं पर आने वाले कुछ राज्यों में सेना को विशेषाधिकार देने के लिए 1958 से आम्र्ड फोर्सिस स्पेशल पावर्स एक्ट नामक विशेष कानून अमल में लाया गया। इसका प्रयोग सबसे पहले असम और मणिपुर में किया गया। इस कानून में यह प्रावधान है कि सेना को कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के घर में घुसकर तलाशी ले सकता है, उसके मालिक को बंदी बना सकता है। इस कानून का मूल उद्देश्य तो आतंकवाद पर काबू पाना था, पर कुछ वर्षो से इसके दुरुपयोग की खबरेंआने लगी हैं। घाटी के इस कानून के खिलाफ आंदोलन हो रहे हैं। अब अन्य राज्यों में इसके खिलाफ आवाज बुलंद होने लगी है। मणिपुर में तो बरसों से आंदोलन चल रहा है। पर सरकार इस दिशा में कुछ नहीं कर पा रही है। इससे सेना के अधिकारी बौखला गए हैं, उनका मानना है कि यदि इस कानून को वापस ले लिया गा, तो आतंकवाद पर नियंत्रण नहीं हो पाएगा। आतंकवादी बेखौफ हो जाएँगे। निर्दोष मारे जाएँगे। सेना के उच्च अधिकारियों के इस तर्क के आगे सरकार दुविधा में है। बरसों से सरकार की इस दुविधा का लाभ सेना के अधिकारी और जवान बखूबी उठा रहे हैं।सरकार की दुविधा इस बात को लेकर है कि इससे नागरिकों के मूल अधिकारों की भावना आहत होती है। सेना पर आरोप है कि इस कानून का दुरुपयोग करते हुए अधिकारियों एवं जवानों ने कश्मीरी जनता फर्जी एनकांउटर किया है। कई युवतियों एवं महिलाओं पर बलात्कार किया है। ऐसे अपराध करने वालों पर राज्य सरकार सीधी कार्रवाई नहीं कर सकती। इसके लिए पहले उसे केंद्र सरकार के गृह विभाग और रक्षा विभाग से मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी लेनी पड़ती है। मंजूरी के बिना आरोपी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। यही कारण है कि सेना के अधिकारी और जवान बेलगाम हो गए हैं। नागरिकों पर अत्याचार, युवतियों से बलात्कार आदि अपराध उनके लिए बाएँ हाथ का काम हो गए हैं। किसी के घर घुसकर उनकी धरपकड़ करना, हत्या करना उनके लिए बहुत ही आसान है। यदि वे किसी की हत्या भी कर देते हैं, तो कुछ दिनों बाद उसकी लाश आबादी से दूर कहीं लावारिस हालत में मिलती है। यदि किसी खूबसूरत कन्या पर उनकी निगाहें ठहर जाती हैं, तो पूछताछ के बहाने पुलिस छावनी में बुलाकर उससे बलात्कार किया जाता है। 2003 में राज्य सरकार ने ऐसे 35 मामलों में कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार से अनुमति माँगी, पर एक मामले के लिए भी अनुमति नहीं मिली। इसे केंद्र सरकार की लापरवाही न कहें तो और क्या कहें?घाटी में सेना एवं अर्ध सैनिक बलों द्वारा कश्मीरी कन्याओं से बलात्कार की अनेक घटनाएँ सामने आई हैं। 1997 में अनंतनाग जिले में सेना के जवान ने एक गृहिणी के घर में घुसकर उस पर बलात्कार किया। इसकी एफआईआर पुलिस ने लिखी। पुलिस ने सेना के जवान पर कार्रवाई करने के लिए 2006 में कें्रद्र सरकार से अनुमति माँगी। पर केंद्र सरकार ने आज तक इसकी अनुमति नहीं दी। इसी लापरवाही के कारण सेना के जवानों का हौसला बढ़ता है। वे बेखौफ होकर इस तरह की करतूतें करते रहते हैं। इससे नागरिकों में असुरक्षा की भावना घर कर जाती है। 1999 में राफियाबाद जिले में सेना के एक मेजर ने भी एक घर में घुसकर गृहिणी से बलात्कार किया था,उसके खिलाफ भी कार्रवाई करने के लिए राज्य सरकार ने केंद्र से अनुमति माँगी थी, पर आज तक अनुमति नहीं मिली। जम्मू-कश्मीर में पुलिस और सेना मिलकर ज्वाइंट आपरेशन फर्जी एनकाउंटर करने के कई उदाहरण सामने आए हैं। इसमें यदि किसी पुलिस अधिकारी पर हत्या का आरोप लगता है, तो उसे सजा हो जाती है। पर यही आरोप सेना के अधिकारी पर लगाया जाए, तो उसे सजा नहीं होती। केंद्र सरकार से अनुमति न मिलने के कारण इन पर कार्रवाई नहीं हो पाती बेखौफ होकर आजाद घूमते रहते हैं। 2007 में फर्जी एनकाउंटर की अनेक घटनाएँ इस क्षेत्र में हुई हैं। इनमें से चार में से एक घटना तो ाीनगर के संबल में घटी थी। इस घटना में पुलिस और सेना के जवानों ने मिलकर एक ग्रामीण को उसके घर से उठाया। उसे जंगल ले जाया गया। वहाँ उसे मार डाला गया। दूसरे दिन पुलिस ने यह घोषणा कर दी कि विदेशी आतंकवादियों ने मुठभेड़ में वह मारा गया। 2006 में अब्दुल पदरु नामक मिस्त्री गुम हो गया। उसके परिजनों ने पुलिस में इसकी रिपोर्ट लिखवार्ठ। इस मिस्त्री के मोबाइल रिकॉर्ड से पता चला कि पुलिस ही उसे गाँव से बाहर ले गई थी। बाद में उसे मार डाला गया था। इस संबंध में जब जाँच हुई तो गिरफ्तार पुलिस अधिकारी ने बताया कि उसने इस तरह की 5 वारदात को अंजाम दिया है। इन सभी को पाकिस्तानी नागरिक बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार डाला गया। जब इनकी लाशे कब्र से निकाली गई और उसका डीएनए टेस्ट लिया गया, तो पता चला कि वे सभी भारतीय थे। इनमें से एक लाश तो श्रीनगर के इमाम की थी। जिन्हें पाकिस्तानी आतंकवादी बताकर मार डाला गया था। इस मामले में पुलिस के 12 कर्मचारियों की धरकपड़ भी की गई थी। पाथरीबाल में हुए पाँच फर्जी एनकाउंटर में सेना के अनेक अधिकारियोंे की मिलीभगत थी। इस कारण इसी जाँच सीबीआई को सौंपी गई। सीबीआई ने सेना के 5 अधिकारियों पर अपहरण, हत्या, षडच्यंत्र रचने और सबूतों को नष्ट करने के आरोप में मामला चलाया। इस दौरान एक कर्नल को पदोन्नत कर ब्रिगेडियर बना दिया गया। शुरुआत में सेना ने ही इस अधिकारी के खिलाफ जाँच का आदेश दिया था, अब सीबीआई यह कह रही है कि सेना के अधिकारी उन्हें जाँच में सहयोग नहीं कर रहे हैं। यह मामला अभी सुप्रीमकोर्ट में है, और मामले से संबद्ध अधिकारियों की धरपकड़ नहीं हो पाई है।घाटी में हो रही इस तरह की वारदात के खिलाफ अनेक स्वयं सेवी संस्थाएँ आवाज उठा रही हैं। सेना के अधिकारी इन संस्थाओं के कार्यकत्र्ताओं को परेशान करने का कोई मौका नहीं चूकते। 1995 सेना के मेजर अवतार सिंह ने श्रीनगर के वकील जलील अंद्रबी की धरपकड़ की थी। 19 दिन बाद उस वकील की लाश मिली। इस मामले की जाँच हाईकोर्ट की विशेष टीम से करवाई। इस टीम ने जलील की मौत के लिए मेजर अवतार सिंह को दोषी माना। सेना के अधिकारियों ने बताया कि मेजर अवतार सिंह जब तक सेवा में थे, तब तक उन्होंने कोई अपराध नहीं किया। यह जाँच चल ही रही थी कि मेजर अवतार सिंह अमेरिका चले गए। बाद में पता चला कि इस तरह के फर्जी मुठभेड़ की 11 घटनाओं में मेजर अवतार सिंह का हाथ था। ऐसे में यह विश्वास कैसे किया जाए कि सेना जो कुछ करती है, वह सही होता है?यह सच है कि कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। इससे कोई इंकार भी नहीं कर सकता। यदि घाटी के नागरिकों के सामने यह विकल्प रखा जाए कि वे चाहें तो पाकिस्तान में रहें या फिर भारत में, तो वहाँ की जनता भारत में ही रहना चाहेगी। इन हालात में सेना को जो विशेषाधिकार दिया गया है, उसका दुरुपयोग न हो, जनता पर अत्याचार न हो, नागरिकों का विश्वास सेना और पुलिस पर बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि यदि विशेषाधिकार का दुरुपयोग होता है, तो उस पर जल्द और सख्त कार्रवाई की जाए। यदि इस विशेषाधिकार को खत्म कर दिया जाता है, तो आतंकवादी इसका फायदा उठाने से नही चूकेंगे। यह आवश्यक है कि इस तरह के सख्त कानून हों, पर इसके दुरुपयोग पर दोषी जवान या अधिकारी को जो सजा मिले, उसकी सूचना घाटी के नागरिकों को मिले, ताकि उन्हें लगे कि उन पर अत्याचार करने वाले को आखिर सजा मिली। गंेद अब केंद्र सरकार के पाले में है, देखते हैं वह क्याकरती है। घाटी के नागरिकों की सुरक्षा के लिए वह जो भी कदम उठाएगी, वह निश्चित रूप से देशहित में होगा। यदि सरकार ऐसा नहीं कर पाती, तो सेना और पुलिस के अत्याचार के खिलाफ लोग और भी आक्रामक होने लगेंगे। युवा अपने हाथों में हथियार उठा लेंगे, तब जो भी होगा, बहुत बुरा होगा। ऐसी स्थिति तब और भयावह हो जाती है, जब कश्मीरी यह समझने लगे कि यह देश हमारा होते हुए भी पराया गन गया है। अपने ही देश में अपनों के साथ ही परायापन आखिर कब तक सहन होगा?
डॉ. महेश परिमल
बुधवार, 30 नवंबर 2011
अपनों के ही खून से रँगे हैं सेना और पुलिस के हाथ
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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