मजदूर दिवस पर विशेष
डॉ. महेश परिमल
शमशेर की एक कविता है, ‘कब आएँगे हाथों के दिन’. आज हाथों के दिन तो हमारे करीब हों या न हों, पर मासूम हाथों के दिन अभी तक लद नहीं पाएँ हैं, वे आज भी शिवाकाशी में पटाखों से झुलसते हैं, खड़िया मिट्टी का काम करते हुए अपने हाथों को गला रहे हैं, बीड़ी बनाते हुए तम्बाखू की ज़हरीली गंध को अपने नथूनों में पाल रहे हैं या फिर नरम कालीन बनाते हुए अपने हाथों को कठोर कर रहे हैं। उनकी साँसों या तो बारुदी गंध समाई हुई है या फिर महीन रेशे के रूप में मासूम फेफड़ों पर जम रही है। आज मजदूर दिवस पर हमें यह सोचना है कि बाल मजदूर भी एक मजदूर हैं, इन्हें स्कूल में होना चाहिए, न कि होटलों-कारखानों में।
शायद आपने कभी नहीं सोचा होगा कि शिक्षक को जब भी अपनी कोई बात समझानी होती है, तब चॉक का इस्तेमाल करते हैं, दूसरी ओर कभी कहीं भी कोई खुशी का अवसर आता है, तब लोग पटाखे चलाकर अपनी खुशियाँ जाहिर करते हैं। दीप पर्व पर तो यह पूरे देश में खुले रूप में दिखाई देता है, पर क्या कभी किसी ने सोचा कि इसके पीछे कई नन्हे हाथों का कमाल है। ये वही नन्हें हाथ हैं, जिनकी आँखों में एक सपना पलता है, कुछ करने का, पढ़ने और आगे बढ़ने का, लेकिन रोटी के संघर्ष में उनकी आँखों में पलने वाले सपने धुँधले हो गए हैं। छोटी उम्र में ही अपने अभिभावकों को अपने होने की कीमत अदा करते हैं। सरकारी भाषा में इन्हें बाल श्रमिक कहा जाता है। बाल श्रमिक या बाल मज़दूर यानी 14 वर्ष से कम आयु के बच्चे अपनी आजीविका चलाने के लिए स्वयं या अपने माता-पिता के साथ काम पर जाते हैं या काम करते हैं।
बाल श्रमिकों के नाम पर चाहे कितनी भी योजनाएँ बनें या कितनी भी घोषणाएँ हों, लेकिन कुछ हो नहीं पाता। हाँ सरकारी आँकड़ों पर निश्चित ही कुछ ऐसा हो जाता है, जिससे लगे कि हाँ हमारे देश में बाल श्रमिकों की संख्या में कमी आई है। लेकिन देखा जाए, तो हमारे देश में बाल श्रमिकों की संख्या सर्वाधिक है। भारत के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश में साढ़े चार करोड़ से लेकर करीब ग्यारह करोड़ के बीच बाल श्रमिक हैं। इस संख्या को देखते हुए शासन द्वारा बाल श्रम को रोकने के लिए जहाँ कानूनी प्रावधान किए गए हैं, वहीं ऐसे बच्चों की शिक्षा के लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराने हेतु ठोस पहल के रूप में बाल श्रमिक शालाओं की भी स्थापना की गई है। अब यह बहुत कम लोग जानते हैं कि बाल श्रमिकों के लिए प्रारंभ की गई शालाएँ कैसी चल रही हैं। जब शिक्षकों की फौज होने के बाद भी सरकारी शालाओं की स्थिति दयनीय है,तो बाल श्रमिकों के लिए स्थापित की गई शालाओं की क्या स्थिति होगी, इसे बताने की जरूरत नहीं है। होने को तो कई विभागों में एक श्रम विभाग भी है, पर वहाँ किसी श्रमिक का एक आवेदन कितने वर्षो तक फाइलों में कैद रहता है, इसे भी बताने की आवश्यकता नहीं है। कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने निश्चित ही इस दिशा में कुछ ठोस कार्य किए हैं, पर उनके कार्य ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान हैं।
आखिर कहाँ खो गई हमारी संवेदनाएं? होटल में बच्चे द्वारा लाया गया पानी का गिलास टूट जाए, तो हम उसे पिटता देखते रहते हैं। ठंडे कमरों में बाल श्रमिक पर गरमा-गरम बहसें होती हैं। सरकार की योजनाएं कहीं थक-हार सिमट जाती हैं। इन्हीं मासूम चेहरों में छिपा होता है, वह दर्द, हमारा कसूर केवल इतना ही है कि हम गरीब हैं। हमारे माता-पिता मजदूर हैं, इसलिए हम भी मजदूर हैं। आखिर कब बदलेगी ये तस्वीर!
डॉ. महेश परिमल
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