रविवार, 15 अप्रैल 2012

फलक-आफरीन की मौत से खत्म हुआ देश का गौरव



डॉ. महेश परिमल
दो मासूमों की एक ही कहानी। दोनांे का अपराध यही था कि वे नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थीं। दोनों ही सामाजिक विषमताओं का अत्याचार का शिकार हुई। मामला हत्या का नहीं, बल्कि उससे भी बड़ा है। देश में लचीले कानून के तहत सब कुछ ऐसा हो रहा है, जिससे अपराधियों को कानून का भय नहीं है। कानून से खेलना उनकी आदत में शुमार है। जेल में जितने अपराधी हैं, उससे अधिक खतरनाक अपराधी समाज में खुले आम घूम रहे हैं। मासूम फलक और आफरीन की मौत समाज के लिए कलंक है। अपनी मौत से वे ये बता गई कि समाज में ऐसे हत्यारे भी मौजूद हैं, जो जननी को मौत के घात उतारने में देर नहीं करते।
यूनिसेफ की रिपोर्ट की अनुसार भारत में कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने का उद्योग अब बहुत ही फल-फूल गया है। इसका वार्षिक व्यापार अब 1000 करोड़ रुपए को हो गया है। देश भर के शहरों एवं कस्बों में ऐसे छोटे-छोटे क्लिनिक खुल गए हैं, जहाँ लिंग परीक्षण कर मादा भ्रूण की हत्या की जाती है। हमारे समाज में बेटी का स्थान आज भी बेटे से कमतर ही है। यह तो हाल ही में हुए जनसंख्या की गणना में सामने आया। जिसमें बताया गया है किदेश में 1000 पुरुष के एवज में स्त्रियों की संख्या 914 है। यदि भ्रूण को गर्भ में ही न मारा जाए, तो उनकी हालत फलक-आफरीन जैसी होती है। दो महीने तक मौत से जूझने वाली वह मासूम आखिर 15 मार्च कोजिंदगी की लड़ाई हार गई। ठीक उसी तरह 8 अप्रैल को पिता के अत्याचार का शिकार बनी आफरीन ने आखिर बेंगलोर की अस्पताल में कल ही दम तोड़ दिया। यह हमारा ही देश है, जहाँ वर्ष में दो बार नारी के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। लोग उपवास रखकर देवी के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं। यही नहीं कन्या भोज कराकर वे स्वयं को गौरवांवित महसूस करते हैं। दूसरी तरफ कोख में ही मादा भ्रूण की हत्या करने में जरा भी नहीं हिचकते। शायद इसे ही कलयुग कहते हैं।
नई दिल्ली की ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल साइंसीस हास्पिटल में इसी वर्ष 18 जनवरी को दो वर्ष की मासूम फलक को घायलवस्था में भर्ती किया गया। फलक के माथे पर चोट के निशान थे, यही नहीं उसके शरीर पर कई स्थान पर दांत से काटने के भी निशान मिले। उसके गाल को दागा गया था। फलक को अस्पताल लाने वाली 16 वर्ष की एक युवती ने स्वयं को फलक की माँ बताया था। वह युवती झूठी निकली। वास्तव में फलक एक कॉलगर्ल की अवैध संतान थी। कॉलगर्ल ने अपना पाप छिपाने के लिए इस मासूम को अपने एक दलाल को दत्तक के रूप में दे दिया था। इस दलाल ने बच्ची की देखभाल का काम उक्त युवती को सौंपा था। यह युवती भी जातीय अत्याचार का शिकार हुई थी। इसी युवती ने गुस्से में फलक को दीवार पर दे मारा था। उसके बाद उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया था।  इस समय फलक के बचने की आशा बिलकुल भी नहीं थी। फिर भी डॉक्टरों ने उसे बचाने की भरपूर कोशिश की। कई ऑपरेशन किए, पर उस मासूम को बचाया नहीं जा सका। फलक की माँ को खोजने के लिए पुलिस ने जाल बिछाया, तो एक सेक्स रेकेट का पता चला। इसमें फलक की माँ जैसी न जाने कितनी कॉलगर्ल फँसकर छटपटा रही थीं। फलक का गुनाह इतना ही था कि वह नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती थी। उनका जन्म यदि नर संतान के रूप में होता, तो शायद वह बच जाती।
हमारे देश में बेटी को बोझ समझा जाता है। बेटा आँख का तारा होता है। बरसों पहले राजस्थान में बेटी के जन्म पर उसे दूध के बरतन में डूबोकर मार डालने की परंपरा थी।  मादा भ्रूण की हत्या इस परंपरा की अगली कड़ी है। आफरीन को उसके पिता ने ही सिगरेट से दाग-दाग कर बुरी तरह से घायल कर दिया था। वह बेटा चाहता था, बेटी उसे पसंद नहीं थी, अपनी नापसंद को उसने एक वहशी बनकर मौत के हवाले कर दिया। बेटी के जन्म पर उसने अपनी पत्नी पर अत्याचार करना नहीं छोड़ा। ऐसे वहशी नर्क में जाएँगे, पर उसके पहले क्या उसे जिंदा रहने का हक है? बेबी आफरीन की मौत के बाद अनेक संवेदनशील संदेश ट्विटर पर आने लगे। पहले ही घंटे में 500 संदेश आए। फिल्म निर्माता एवं निर्देशक करण जौहर ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी आफरीन का बाप मानवजाति के लिए कलंक है।’ मेघना गुलजार ने अपने ब्लॉग में लिखा- ‘बेबी फलक के बाद अब बेबी आफरीन, ईश्वर न जाने और कितनी बेटियाँ होंगी, जो अखबार की हेडलाइन पर चमकेंगी। दु:खद और शर्मनाक।’ मिनी माथुर ने तो बेबी आफरीन के पिता को फाँसी पर लटकाने की माँग करती हैं। वे कहती हैं- ‘फाँसी की सजा अपवादस्वरूप ही दी जाती है, पर कोई बाप यदि अपनी ही बेटी को सिगरेट से दागे, उसका गला दबाए, तो उसे कैसे माफ किया जा सकता है? उसे तो फाँसी पर ही लटकाया जाना चाहिए।’
हम अपने देश की संस्कृति पर गर्व करते हैं। पर क्या यह संस्कृति यही सिखाती है कि फलक और आफरीन की मौत इस तरह से हो? ये तो मासूम थीं, उनमें ईश्वर का वास था, तो क्या आज हमारी परंपरा ईश्वर को ही खत्म करने पर आमादा है? आज इस पर विचार किया जाना चाहिए कि आखिर कब तक इस तरह से मासूमों को मारा जाता रहेगा। ओछी और संकीर्ण मानसिकता के चलते आखिर कब तक मासूम अपने जीवन की बलि देती रहेंगी? मुझे तो लगता है कि बेबी आफरीन की मौत के बाद देश का गौरव भी मर गया है। हमारा समाज नारी भ्रूण के प्रति इतना आक्रामक आखिर क्यों है? ऐसे लोगों को इतनी कड़ी सजा दी जाए, जिससे और कोई किसी मासूम को मारने के पहले हजार बार सोचे। ऐसे लोगों को सजा देने में न्यायालय पूरी तरह से कठोर हो जाए, तभी समाज में एक संदेश जाएगा कि बेटी की हत्या करने पर कितनी खतरनाक सजा होती है? सजा वह जो सबक दे, सोचने के लिए विवश करे और वैसा अपराध जीवन में कभी न करने की इच्छाशक्ति पैदा करे। बेबी फलक और बेबी आफरीन सामाजिक विषमताओं की पैदाइश हैं। जो पालक लगातार बेटी पर खर्च करते हैं, उस पर उससे कोई लाभ हासिल नहीं होता, इसलिए उसे उपेक्षित करते हैं। बेटी को पढ़ा-लिखा दिया, तो उसका लाभ उसके ससुराल वालों को ही मिलेगा, पालकों को नहीं, यही मानसिकता आज बेटी को कोख में ही मार डालने की प्रवृत्ति को हवा दे रही है। बेटे से यह अपेक्षा होती है कि वह माता-पिता का सहारा बनेगा। इसलिए उसकी शिक्षा में भी भारी खर्च किया जाता है। हमारे देश में ऐसा भी समाज है, जिसमे बेटी और बेटे की थाली जो भोजन परोसा जाता है, उसमें भी भेदभाव किया जाता है। बेटा बड़ा होकर दहेज लाएगा और कमाकर भी लाएगा, लेकिन बेटी दहेज के रूप में सम्पत्ति ले जाएगी और कमाएगी भी तो ससुराल जाकर। जब तक इस तरह की मानसिकता हमारे समाज में व्याप्त है, तब तक न तो समाज आगे बढ़ सकता है और न ही देश। बेटी के जन्म पर शोक की लहर आज भी दौड़ जाती है, जबकि बेटे के जन्म पर हर्ष मनाया जाता है।
आज की बेटियों को लगता है कि वे घर में ही उपेक्षित हैं। तब वह घर में बेटा बनकर सारे काम करती है। उसका लालन-पालन भी बेटे की तरह होता है। उसे बेटे जैसे ही कपड़े पहनाए जाते हैं। कॉलेज की उच्च शिक्षा प्राप्त करती है। माता-पिता की सेवा में वह इतना अधिक डूब जाती हैं कि अपना जीवन भी होम कर देती हैं। वे शादी नहीं करतीं, क्योंकि शादी के बाद माता-पिता की देखभाल कौन करेगा? इसलिए उनकी उम्र निकल जाती है। योग्य वर नहीं मिलता। माता-पिता के न रहने पर आखिर एकाकीपन जीवन को अपना लेती हैं और घुट-घुटकर जीने को विवश हो जाती हैं। इस तरह की लड़कियों की संख्या आज समाज में लगातार बढ़ रही है। अपनी मौत से बेबी फलक और बेबी आफरीन ने समाज के सामने यह चुनौती दी है कि आखिर कब तक बेटी की उपेक्षा करोगे। यदि बेटी न होती, तो समाज में पुरुष भी नहीं होते। बेटी नहीं होगी तो बेटे के लिए दुल्हन कहाँ से लाओगे? बेटी को कोख में मारने में सहायक की भूमिका निभाने वाली माँ से भी यही सवाल कि ऐसा ही यदि उनकी माँ ने भी सोचा होता, तो क्या वे आज अपनी बेटी को मारने में सहायक हो पाती? बेटे से तो वंश चलता है, यह सच है, पर वह किस वंश का पोषक है, यह कोई बता सकता है। बेटी दो कुलों की शोभा बनती है। इसे समाज क्यों भूल जाता है। यदि बेटा ही महत्वपूर्ण है,तो आज देश में वृद्धाश्रमों की संख्या इतनी तेजी से क्यों बढ़ रही है? कौन देगा इसका जवाब? जरा वृद्धाश्रम जाकर उन बूढ़ी आँखों से एक बार पूछो तो कि आखिर बेटा उन्हें अपने घर पर क्यों नहीं रखता? क्या इसी दिन के लिए उन्होंने बेटे की कामना की थी और बेटी को कोख में मार डालने का फैसला लिया था?
डॉ. महेश परिमल

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