डॉ. महेश परिमल
राजनीति में कुछ भी हो सकता है। कुछ भी चीज यहाँ स्थायी नहीं है। न तो निष्ठा और न ही ईमानदारी। चुनाव में बसपा को गाली देने वाली, सपा को गुंडा कहने वाली कांग्रेस आज दोनों ही दलों पर डोरे डाल रही है। ममता के नखरे अब सहन नहीं होते, इसलिए सपा का दामन थामने की कोशिशें हो रही हैं। उत्तराखंड में बसपा को साथ लेकर सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। उत्तराखंड के 30 विधायक भाजपा अध्यक्ष अजय भट्ट के नेतृत्व में उज्जैन में नजरबंद हैं। सभी ने महाकाल के दर्शन कर यह मनौती माँगी कि उनकी सरकार बन जाए। उधर कर्नाटक में भ्रष्टाचार के दलदल में गले तक डूबे येद्दियुरप्पा अपने समर्थक विधायकों को एक रिसोर्ट में रखकर एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। इसके लिए वे आलाकमान पर दबाव भी डाल रहे हैं। भाजपा आलाकमान ने येद्दियुरप्पा के सामने घुटने ही टेक दिए हैं। उधर उत्तराखंड में कांग्रेस अपनी जबान से पलट गई है। चुनाव के पूर्व यह कहा गया था कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री थोपा नहीं जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वहाँ सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री के रूप में थोप दिया गया। जाहिर है असंतोष तो भड़केगा ही। इसका नेतृत्व किया हरीश रावत ने। क्योंकि उन्होंने वहाँ कांग्रेस को जिताने के लिए बहुत ही मेहनत की। वे स्वयं मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। अब बहुगुणा के सामने यह चुनौती है कि अपना बहुमत किस तरह से साबित करें। कहा तो यह जा रहा है कि मामला सुलझ गया है। पर जब तक पूरी स्थिति साफ नहीं होती, कुछ कहना भी मुश्किल है।
उत्तराखंड और कर्नाटक की राजनीति में सत्ता के लिए खींचतान तेज हो गई है। यहाँ अवसरवादी राजनीति को खुले रूप में देखा जा सकता है। दोनों ही राज्यों में देश के दो मुख्य दलों का शासन है। कर्नाटक में भाजपा की नैया डोल रही है। दूसरी ओर उत्तराखंड में आंतरिक कलह सतह पर आ गया है। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को 25 मार्च को बहुमत सिद्ध करना है। यहाँ कांग्रेस ने ही असंतोष को जन्म दिया है। अब स्थिति नहीं सँभल पा रही है। यहाँ कांग्रेस ने भाजपा से केवल एक सीट ही अधिक प्राप्त की है। निर्दलीय और बसपा के साथ मिलकर कांग्रेस ने यहाँ सरकार बनाई है। सरकार बनाने में हरीश रावत को हाशिए पर रखकर जब विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया, तो रावत समर्थक विधायक असंतुष्ट हो गए। हरीश राव के पास 15 विधायक हैं। वे कांग्रेस नहीं छोड़ेंगे, इसकी तो पुष्टि करते हैं। पर दूसरी ओर अपने ही पड़ोसी और भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी से भी मुलाकात कर लेते हैं। भले ही इस मुलाकात का कोई अर्थ न निकलता हो, पर आखिर कहीं न कहीं कुछ तो है, जो उनके कदम भाजपाध्यक्ष के घर की ओर चल पड़े। इसलिए वे अब सरकार में अपने समर्थकों को बिठाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि गृह, वित्त ओर उद्योग मंत्री तो उनके हों। कांग्रेस मुश्किल में है, क्योंकि यदि हरीश रावत की माँग पूरी हो जाती है, तो विजय बहुगुणा का कद घट जाएगा।
उधर कर्नाटक में भाजपा संगठन मजबूत है। देश के दक्षिण प्रांत में पहली बार भाजपा ने जीत हासिल की है। कर्नाटक में भाजपा के दो कट्टर प्रतिस्पर्धी हैं। एक है कांग्रेस और दूसरी ओर हैं भूतपूर्व प्रधानमंत्री हरदन हल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा की जनता दल (एस)। भाजपा के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं। हाल में विधानसभा में तीन भाजपा विधायक पोर्न फिल्म देखते हुए कैमरे में कैद हो गए हैं। इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई हैं। माइंस लॉबी और येद्दियुरप्पा के बीच सांठगाँठ के कारण भाजपा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। कर्नाटक में पिछले दो वर्षो में जितने भी उपचुनाव हुए, उसमें भाजपा की ही जीत हुई है। यह भी एक सच्चई है। भाजपा के प्रतिष्ठित लोगों को संगठन में अधिक दिलचस्पी है। उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भ्रष्ट मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी से निकाला, तब भाजपा ने उन्हें अपने साथ शामिल कर लिया। कुशवाहा को पार्टी में लेना भाजपा को भारी पड़ा। क्योंकि कुशवाहा के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर हो गए। पूरे देश में भाजपा की फजीहत हुई। इस डर से भाजपा ने कुशवाहा को टिकट नहीं दिया। किंतु उनका उपयोग प्रचार के लिए किया। यही कारण है कि आज येद्दियुरप्पा की हिम्मत बढ़ गई। वे मुख्यमंत्री बनने के लिए छटपटा रहे हैं। भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहती, पर हालात ऐसे हैं कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के सिवाय दूसरा को चारा भी नहीं है, क्योंकि उनके समर्थक विधायकों की संख्या विरोधियों से अधिक है। भाजपा येद्दियुरप्पा को छोड़ भी दे, पर प्रजा को क्या जवाब देगी, यह कहना मुश्किल है। कर्नाटक में भाजपा जो भी कदम उठाएगी, उसका विरोध तो तय है। हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली करारी हार के कारण कर्नाटक को संभालना भी मुश्किल हो रहा है। भ्रष्टाचार के आरोप में जिन्हें मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था, आज वही मुख्यमंत्री बनने का दावा कर रहे हैं। अपने 55 विधायकों के साथ येद्दियुरप्पा आज आंखें तरेर रहे हैं। देखा जाए तो वहाँ वर्तमान मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा का काम-काज उत्तम है। किंतु समर्थक विधायकों की संख्या के कारण भाजपा उलझन में है। उधर उत्तराखंड में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, इसलिए उसे बसपा और निर्दलियों की मदद लेनी पड़ रही है। इसके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि विजय बहुगुणा बेदाग हैं। उन पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। उनके पास हालांकि बहुमत नहीं है, यहाँ आकर कांग्रेस को यह लग रहा है कि हरीश रावत को अवसर न देकर भारी भूल हो गई है। 25 मार्च को विजय बहुगुणा विश्वास मत जीत भी जाते हैं, तो भी एक संशय रहेगा ही कि उनकी सरकार अधिक समय तक चल भी पाएगी या नहीं।
देश की राजनीति में सरकार का तख्तापलट कोई नई बात नहीं है। कर्नाटक में भाजपा के पास बहुमत है, जबकि उत्तराखंड में कांग्रेस के असंतुष्ट समीकरण बदलने की ताकत रखते हैं। कर्नाटक में यदि येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तो संभव है वहाँ भाजपा सरकार ही न रहे। आश्चर्य इस बात का है कि येद्दियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के इतने आरोपों के बाद भी उनके समर्थकों की संख्या सदानंद गौड़ा के समर्थकों से अधिक है। भाजपा की विवशता यह है कि अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में बिना येद्दियुरप्पा के जीत नहीं सकती। चुनाव जीतने के लिए येद्दियुरप्पा का सहयोग आवश्यक हैं। विधायकों की संख्या और समर्थन के कारण उन्होंने अपनी शर्म हया छोड़ दी है। वरना भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगने के बाद भी वे इतने अधिक कद्दावर कैसे हो गए? पार्टी के पास इतनी हिम्मत भी नहीं कि उन पर आरोपों के चलते उनके खिलाफ सीबीआई जाँच की सिफारिश करती। येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर विधायक दल विभाजित हो गया है। भाजपा अध्यक्ष नीतीन गडकरी मानते हैं कि लिंगायत जाति के लोगों का समर्थन प्राप्त किए बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता। उधर लालकृष्ण आडवाणी मानते हैं कि यदि येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो कांग्रेस को चुनाव में एक मुद्दा मिल जाएगा। संभव है इसी मुद्दे पर कांग्रेस जीत हासिल कर ले। गडकरी को कर्नाटक की चिंता है, जबकि आडवाणी को दिल्ली की। लोकसभा सीट उड्डीपी जहाँ से सदानंद गौड़ा ने इस्तीफा दिया था, वहाँ हाल ही हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जीत हुई है। इस लोकसभा सीट पर 7 विधानसभा सीट है, जिसमें से 6 भाजपा के पास है, उसके बाद भी भाजपा लोकसभा सीट हार गई। इस कारण सदानंद गौड़ा की ताकत घट गई। वहाँ भाजपा के प्रत्याशी को जिताने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, उसके बाद भी भाजपा प्रत्याशी जीत नहीं पाया। उड्डीपी के चुनाव में येद्दियुरप्पा प्रचार के लिए नहीं गए, इसलिए उनके समर्थकों ने भी वहाँ जाना टाल दिया। कर्नाटक के कुल 70 विधायकों में से 55 को येद्दियुरप्पा ने बेंगलोर के एक रिसोर्ट में बंधक बनाकर रखा है। इन्हीं का कमाल था कि उड्डीपी में लिंगायत समुदाय ने उनके इशारे को समझ लिया और भाजपा हार गई। भाजपा उनकी इस चाल को समझ तो गई, पर येद्दियुरप्पा के पास अपनी ताकत दिखाने का इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था।
भाजपा के लिए येदि किसी सरदर्द से कम नहीं हैं। यदि उन्हें कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो दिल्ली उसके हाथ से निकल जाएगी। क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ना चाहती है। कर्नाटक की मुख्यमंत्री की गद्दी पर यदि येद्दि आसीन होते हैं, तो पार्टी का भ्रष्टाचार विरोधी रूप बिखर जाएगा। भ्रष्टाचार को लेकर किए गए तमाम दावों की हवा ही निकल जाएगी। देश की राजनीति ही ऐसी है जो ईमानदार और निष्ठावान हैं, उनकी छवि प्रजा के सामने अच्छी नही है। जो विशुद्ध रूप से बेईमान हैं, वे नागरिकों के सामने अच्छी छवि वाले माने जाते हैं। अब प्रजा भी यह मानने लगी है कि राजनीति में कोई भी ईमानदार नहीं है। ईमानदारी से कोई पार्षद का भी चुनाव नहीं लड़ सकता। यदि कोई बेईमानी से चुनाव जीतता है, तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मतलब साफ है कि ईमानदार वे हैं, जिन्हें बेईमानी करने का मौका नहीं मिला। राजनीति का ककहरा ही बेईमानी से शुरू होता है। इसलिए आज चारों ओर बेईमानी का ही दबदबा है। जिसके पास जितनी अधिक धन-दौलत है, वही जनता की अच्छी तरह से सेवा कर सकता है। जिन ईमानदारों के पास धन नहीं है, वे कभी भी जनता की सेवा नहीं कर सकते। बेईमानों के पास अपार धन-संपदा होती है। इसका उदाहरण भारतीय राजनीति में साफ देखा जा सकता है। अभी राज्यसभा चुनाव के लिए जिन्होंने अपनी सम्पत्ति दर्शायी है, उसी से पता चल जाता है कि पिछले 5 सालों में उनकी सम्पत्ति में कितना अधिक इजाफा हुआ है। आखिर ये सम्पत्ति कहाँ से आई, कैसे आई, यह जानने की कोई कोशिश नहीं करता। किसी ने इस दिशा में यदि थोड़ी सी भी सक्रियता दिखाई, वह हमेशा-हमेशा के लिए खामोश भी हो जाता है। देश में जनता को सूचना का अधिकार प्राप्त है, पर अपने इस अधिकार का उपयोग करने वाले न जाने कितने लोग खामोश हो गए, इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। कुछ भी हो, पर आज भारतीय राजनीति जिस चौराहे पर है, उससे तो यही लगता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ से चलने वाली राजनीति आज और अधिक आक्रामक हो गई है।
बीएस येद्दियुरप्पा
कर्नाटक विधानसभा में विपक्ष के नेता बन 1994 में पहली बड़ी जिम्मेदारी मिली। 1999 में चुनाव हारे। फिर कर्नाटक और केंद्र की राजनीति में अनंत कुमार के बढ़ते बर्चस्व के चलते 2005 में राजनीति से सन्यास लेने का विचार किया। लेकिन किस्मत पलटी। 2007 में मुख्यमंत्री बने। दक्षिण भारत में यह भाजपा की पहली सरकार थी। सात दिन बाद सरकार गिर गई। 2008 के चुनाव जीत फिर मुख्यमंत्री बने। लोकायुक्त की रिपोर्ट में अवैध खनन में शामिल पाए जाने के चलते 31 जुलाई 2011 को इस्तीफा देना पड़ा। हाईकोर्ट द्वारा लोकायुक्त की रिपोर्ट खारिज करने के बाद फिर मुख्यमंत्री बनाए जाने का दबाव बनाया। लेकिन पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने 31 मार्च को विधानसभा सत्र खत्म होने तक इंतजार करने को कहा।
डॉ. महेश परिमल
राजनीति में कुछ भी हो सकता है। कुछ भी चीज यहाँ स्थायी नहीं है। न तो निष्ठा और न ही ईमानदारी। चुनाव में बसपा को गाली देने वाली, सपा को गुंडा कहने वाली कांग्रेस आज दोनों ही दलों पर डोरे डाल रही है। ममता के नखरे अब सहन नहीं होते, इसलिए सपा का दामन थामने की कोशिशें हो रही हैं। उत्तराखंड में बसपा को साथ लेकर सरकार बनाने की कोशिश हो रही है। उत्तराखंड के 30 विधायक भाजपा अध्यक्ष अजय भट्ट के नेतृत्व में उज्जैन में नजरबंद हैं। सभी ने महाकाल के दर्शन कर यह मनौती माँगी कि उनकी सरकार बन जाए। उधर कर्नाटक में भ्रष्टाचार के दलदल में गले तक डूबे येद्दियुरप्पा अपने समर्थक विधायकों को एक रिसोर्ट में रखकर एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। इसके लिए वे आलाकमान पर दबाव भी डाल रहे हैं। भाजपा आलाकमान ने येद्दियुरप्पा के सामने घुटने ही टेक दिए हैं। उधर उत्तराखंड में कांग्रेस अपनी जबान से पलट गई है। चुनाव के पूर्व यह कहा गया था कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री थोपा नहीं जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, वहाँ सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री के रूप में थोप दिया गया। जाहिर है असंतोष तो भड़केगा ही। इसका नेतृत्व किया हरीश रावत ने। क्योंकि उन्होंने वहाँ कांग्रेस को जिताने के लिए बहुत ही मेहनत की। वे स्वयं मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। अब बहुगुणा के सामने यह चुनौती है कि अपना बहुमत किस तरह से साबित करें। कहा तो यह जा रहा है कि मामला सुलझ गया है। पर जब तक पूरी स्थिति साफ नहीं होती, कुछ कहना भी मुश्किल है।
उत्तराखंड और कर्नाटक की राजनीति में सत्ता के लिए खींचतान तेज हो गई है। यहाँ अवसरवादी राजनीति को खुले रूप में देखा जा सकता है। दोनों ही राज्यों में देश के दो मुख्य दलों का शासन है। कर्नाटक में भाजपा की नैया डोल रही है। दूसरी ओर उत्तराखंड में आंतरिक कलह सतह पर आ गया है। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को 25 मार्च को बहुमत सिद्ध करना है। यहाँ कांग्रेस ने ही असंतोष को जन्म दिया है। अब स्थिति नहीं सँभल पा रही है। यहाँ कांग्रेस ने भाजपा से केवल एक सीट ही अधिक प्राप्त की है। निर्दलीय और बसपा के साथ मिलकर कांग्रेस ने यहाँ सरकार बनाई है। सरकार बनाने में हरीश रावत को हाशिए पर रखकर जब विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाया, तो रावत समर्थक विधायक असंतुष्ट हो गए। हरीश राव के पास 15 विधायक हैं। वे कांग्रेस नहीं छोड़ेंगे, इसकी तो पुष्टि करते हैं। पर दूसरी ओर अपने ही पड़ोसी और भाजपाध्यक्ष नीतिन गडकरी से भी मुलाकात कर लेते हैं। भले ही इस मुलाकात का कोई अर्थ न निकलता हो, पर आखिर कहीं न कहीं कुछ तो है, जो उनके कदम भाजपाध्यक्ष के घर की ओर चल पड़े। इसलिए वे अब सरकार में अपने समर्थकों को बिठाना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि गृह, वित्त ओर उद्योग मंत्री तो उनके हों। कांग्रेस मुश्किल में है, क्योंकि यदि हरीश रावत की माँग पूरी हो जाती है, तो विजय बहुगुणा का कद घट जाएगा।
उधर कर्नाटक में भाजपा संगठन मजबूत है। देश के दक्षिण प्रांत में पहली बार भाजपा ने जीत हासिल की है। कर्नाटक में भाजपा के दो कट्टर प्रतिस्पर्धी हैं। एक है कांग्रेस और दूसरी ओर हैं भूतपूर्व प्रधानमंत्री हरदन हल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा की जनता दल (एस)। भाजपा के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं। हाल में विधानसभा में तीन भाजपा विधायक पोर्न फिल्म देखते हुए कैमरे में कैद हो गए हैं। इससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई हैं। माइंस लॉबी और येद्दियुरप्पा के बीच सांठगाँठ के कारण भाजपा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। कर्नाटक में पिछले दो वर्षो में जितने भी उपचुनाव हुए, उसमें भाजपा की ही जीत हुई है। यह भी एक सच्चई है। भाजपा के प्रतिष्ठित लोगों को संगठन में अधिक दिलचस्पी है। उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भ्रष्ट मंत्री बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी से निकाला, तब भाजपा ने उन्हें अपने साथ शामिल कर लिया। कुशवाहा को पार्टी में लेना भाजपा को भारी पड़ा। क्योंकि कुशवाहा के खिलाफ विरोध के स्वर मुखर हो गए। पूरे देश में भाजपा की फजीहत हुई। इस डर से भाजपा ने कुशवाहा को टिकट नहीं दिया। किंतु उनका उपयोग प्रचार के लिए किया। यही कारण है कि आज येद्दियुरप्पा की हिम्मत बढ़ गई। वे मुख्यमंत्री बनने के लिए छटपटा रहे हैं। भाजपा उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहती, पर हालात ऐसे हैं कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के सिवाय दूसरा को चारा भी नहीं है, क्योंकि उनके समर्थक विधायकों की संख्या विरोधियों से अधिक है। भाजपा येद्दियुरप्पा को छोड़ भी दे, पर प्रजा को क्या जवाब देगी, यह कहना मुश्किल है। कर्नाटक में भाजपा जो भी कदम उठाएगी, उसका विरोध तो तय है। हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली करारी हार के कारण कर्नाटक को संभालना भी मुश्किल हो रहा है। भ्रष्टाचार के आरोप में जिन्हें मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था, आज वही मुख्यमंत्री बनने का दावा कर रहे हैं। अपने 55 विधायकों के साथ येद्दियुरप्पा आज आंखें तरेर रहे हैं। देखा जाए तो वहाँ वर्तमान मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा का काम-काज उत्तम है। किंतु समर्थक विधायकों की संख्या के कारण भाजपा उलझन में है। उधर उत्तराखंड में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, इसलिए उसे बसपा और निर्दलियों की मदद लेनी पड़ रही है। इसके बाद भी यह नहीं कहा जा सकता कि विजय बहुगुणा बेदाग हैं। उन पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं। उनके पास हालांकि बहुमत नहीं है, यहाँ आकर कांग्रेस को यह लग रहा है कि हरीश रावत को अवसर न देकर भारी भूल हो गई है। 25 मार्च को विजय बहुगुणा विश्वास मत जीत भी जाते हैं, तो भी एक संशय रहेगा ही कि उनकी सरकार अधिक समय तक चल भी पाएगी या नहीं।
देश की राजनीति में सरकार का तख्तापलट कोई नई बात नहीं है। कर्नाटक में भाजपा के पास बहुमत है, जबकि उत्तराखंड में कांग्रेस के असंतुष्ट समीकरण बदलने की ताकत रखते हैं। कर्नाटक में यदि येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तो संभव है वहाँ भाजपा सरकार ही न रहे। आश्चर्य इस बात का है कि येद्दियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के इतने आरोपों के बाद भी उनके समर्थकों की संख्या सदानंद गौड़ा के समर्थकों से अधिक है। भाजपा की विवशता यह है कि अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में बिना येद्दियुरप्पा के जीत नहीं सकती। चुनाव जीतने के लिए येद्दियुरप्पा का सहयोग आवश्यक हैं। विधायकों की संख्या और समर्थन के कारण उन्होंने अपनी शर्म हया छोड़ दी है। वरना भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगने के बाद भी वे इतने अधिक कद्दावर कैसे हो गए? पार्टी के पास इतनी हिम्मत भी नहीं कि उन पर आरोपों के चलते उनके खिलाफ सीबीआई जाँच की सिफारिश करती। येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर विधायक दल विभाजित हो गया है। भाजपा अध्यक्ष नीतीन गडकरी मानते हैं कि लिंगायत जाति के लोगों का समर्थन प्राप्त किए बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता। उधर लालकृष्ण आडवाणी मानते हैं कि यदि येद्दियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो कांग्रेस को चुनाव में एक मुद्दा मिल जाएगा। संभव है इसी मुद्दे पर कांग्रेस जीत हासिल कर ले। गडकरी को कर्नाटक की चिंता है, जबकि आडवाणी को दिल्ली की। लोकसभा सीट उड्डीपी जहाँ से सदानंद गौड़ा ने इस्तीफा दिया था, वहाँ हाल ही हुए उपचुनाव में कांग्रेस की जीत हुई है। इस लोकसभा सीट पर 7 विधानसभा सीट है, जिसमें से 6 भाजपा के पास है, उसके बाद भी भाजपा लोकसभा सीट हार गई। इस कारण सदानंद गौड़ा की ताकत घट गई। वहाँ भाजपा के प्रत्याशी को जिताने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी, उसके बाद भी भाजपा प्रत्याशी जीत नहीं पाया। उड्डीपी के चुनाव में येद्दियुरप्पा प्रचार के लिए नहीं गए, इसलिए उनके समर्थकों ने भी वहाँ जाना टाल दिया। कर्नाटक के कुल 70 विधायकों में से 55 को येद्दियुरप्पा ने बेंगलोर के एक रिसोर्ट में बंधक बनाकर रखा है। इन्हीं का कमाल था कि उड्डीपी में लिंगायत समुदाय ने उनके इशारे को समझ लिया और भाजपा हार गई। भाजपा उनकी इस चाल को समझ तो गई, पर येद्दियुरप्पा के पास अपनी ताकत दिखाने का इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था।
भाजपा के लिए येदि किसी सरदर्द से कम नहीं हैं। यदि उन्हें कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाया जाता है, तो दिल्ली उसके हाथ से निकल जाएगी। क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ना चाहती है। कर्नाटक की मुख्यमंत्री की गद्दी पर यदि येद्दि आसीन होते हैं, तो पार्टी का भ्रष्टाचार विरोधी रूप बिखर जाएगा। भ्रष्टाचार को लेकर किए गए तमाम दावों की हवा ही निकल जाएगी। देश की राजनीति ही ऐसी है जो ईमानदार और निष्ठावान हैं, उनकी छवि प्रजा के सामने अच्छी नही है। जो विशुद्ध रूप से बेईमान हैं, वे नागरिकों के सामने अच्छी छवि वाले माने जाते हैं। अब प्रजा भी यह मानने लगी है कि राजनीति में कोई भी ईमानदार नहीं है। ईमानदारी से कोई पार्षद का भी चुनाव नहीं लड़ सकता। यदि कोई बेईमानी से चुनाव जीतता है, तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मतलब साफ है कि ईमानदार वे हैं, जिन्हें बेईमानी करने का मौका नहीं मिला। राजनीति का ककहरा ही बेईमानी से शुरू होता है। इसलिए आज चारों ओर बेईमानी का ही दबदबा है। जिसके पास जितनी अधिक धन-दौलत है, वही जनता की अच्छी तरह से सेवा कर सकता है। जिन ईमानदारों के पास धन नहीं है, वे कभी भी जनता की सेवा नहीं कर सकते। बेईमानों के पास अपार धन-संपदा होती है। इसका उदाहरण भारतीय राजनीति में साफ देखा जा सकता है। अभी राज्यसभा चुनाव के लिए जिन्होंने अपनी सम्पत्ति दर्शायी है, उसी से पता चल जाता है कि पिछले 5 सालों में उनकी सम्पत्ति में कितना अधिक इजाफा हुआ है। आखिर ये सम्पत्ति कहाँ से आई, कैसे आई, यह जानने की कोई कोशिश नहीं करता। किसी ने इस दिशा में यदि थोड़ी सी भी सक्रियता दिखाई, वह हमेशा-हमेशा के लिए खामोश भी हो जाता है। देश में जनता को सूचना का अधिकार प्राप्त है, पर अपने इस अधिकार का उपयोग करने वाले न जाने कितने लोग खामोश हो गए, इसके आँकड़े चौंकाने वाले हैं। कुछ भी हो, पर आज भारतीय राजनीति जिस चौराहे पर है, उससे तो यही लगता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ से चलने वाली राजनीति आज और अधिक आक्रामक हो गई है।
बीएस येद्दियुरप्पा
कर्नाटक विधानसभा में विपक्ष के नेता बन 1994 में पहली बड़ी जिम्मेदारी मिली। 1999 में चुनाव हारे। फिर कर्नाटक और केंद्र की राजनीति में अनंत कुमार के बढ़ते बर्चस्व के चलते 2005 में राजनीति से सन्यास लेने का विचार किया। लेकिन किस्मत पलटी। 2007 में मुख्यमंत्री बने। दक्षिण भारत में यह भाजपा की पहली सरकार थी। सात दिन बाद सरकार गिर गई। 2008 के चुनाव जीत फिर मुख्यमंत्री बने। लोकायुक्त की रिपोर्ट में अवैध खनन में शामिल पाए जाने के चलते 31 जुलाई 2011 को इस्तीफा देना पड़ा। हाईकोर्ट द्वारा लोकायुक्त की रिपोर्ट खारिज करने के बाद फिर मुख्यमंत्री बनाए जाने का दबाव बनाया। लेकिन पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने 31 मार्च को विधानसभा सत्र खत्म होने तक इंतजार करने को कहा।
डॉ. महेश परिमल
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