मंगलवार, 11 जनवरी 2022

बुरा जो देखन मैं चला





जीवन में जितनी अधिक चुनौतियां होंगी, हम उतने ही सजग होंगे। चुनौतियां हमारी परीक्षा लेने आती हैं, ताकि हम भावी चुनौतियों का सामना भी उसी शिद्दत से कर कर पाएं। कई लोग अपना काम चुपचाप करने में विश्वास रखते हैं, तो कुछ लोग थोड़े-से भी काम का प्रचार-प्रसार करते दिखाई देते हैं। सच है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी को है, पर अपने काम का इतना अधिक प्रचार-प्रसार करना भी भला कहां की भलमनसाहत है। इस प्रचार-प्रसार में दिखावा अधिक होता है। लगातार इस काम में मशगूल होने से लोग यही अपेक्षा करने लग जाते हैं कि आप रोज ऐसा ही करें। किसी वजह से यदि वे ऐसा नहीं कर पाते, तो लोग उन पर ऊंगलियां उठाना शुरू कर देते हैं। वास्तव में ऐसे लोग अपने काम से समाज में अच्छे बने रहना चाहते हैं।

देखा जाए, तो समाज में अच्छे-बुरे का मापदंड हमने ही तय किए हैं। सबका अपना-अपना मापदंड होता है, ठीक अपने-अपने आस्मां की तरह। जिसे बुरा कहा जाए, वह वास्तव में बुरा होता ही नहीं, जिसे अच्छा मानकर पलक-पांवड़े बिछाए थे, वह तो बुरा निकला। अब शहद को ही ले लीजिए। यह एक ऐसा पदार्थ है, जो कभी नहीं सड़ता। यह मनुष्य जाति के लिए अमृत के समान है। इसमें एंटीआक्साइड की भरपूर मात्रा होती है। पर कोई कुत्ता इसे चाट ले, तो वह मर सकता है। गाय का देशी घी भी अमृत की तरह ही है। पर इस घी पर यदि मक्खी बैठ जाए, तो वह मर जाती है। शहद और देशी घी को बराबर मात्रा में मनुष्य ग्रहण कर ले, तो उसकी मौत हो सकती है, क्योंकि बराबर मात्रा में मिलने से यह विष बन जाता है। मिश्री भी हमारे शरीर के लिए लाभकारी है, पर यदि इसे गधा खा ले, तो वह मर सकता है। ठीक इसी तरह निंबोली मानव जाति के लिए अमृत के समान है, पर यदि इसे कौवा खा ले, तो वह तुरंत मर जाता है। 

मानव के साथ भी ऐसा ही होता है। समाज में ऐसे भी लोग हैं, जिसे लोग बुरा कहते हैं। बुरा से आशय उनकी आदतें नहीं, बल्कि वे लोगों से कम मिलते-जुलते हैं। प्रचार-प्रसार से दूर रहते हैं। सोशल मीडिया में भी अधिक सक्रिय नहीं होते। अपनी बात कहने में संकोच करते हैं। इन्हें अपना काम प्यारा होता है। ये लोगों की झूठी प्रशंसा नहीं करते, इसलिए समाज का एक वर्ग इन्हें असामाजिक कहता है। ऐसे लोगों को यह अच्छी तरह से पता होता है कि सोशल मीडिया में अधिक सक्रिय रहने से समय की बरबादी अधिक होती है। वर्तमान में जो हालात चल रहे हैं, उसमें लोगों से अधिक मिलना-जुलना भी किसी खतरे से कम नहीं। तो फिर क्यों न इस समय को किसी ऐसे काम में लगाया जाए, जो परिवार-समाज के किसी काम आ सके। यहां यह कहना समीचीन होगा कि बुरे बनकर हम बहुत कुछ अच्छा कर सकते हैं, पर अच्छे बनकर हम कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते हैं।

प्रश्न स्वाभाविक है कि अच्छा बनकर अच्छे कार्य कैसे नहीं किए जा सकते‌? सारे अच्छे कार्य अच्छे लोगों द्वारा ही किए जाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि अच्छे कार्य करने के लिए उन्हें बुरे लोग ही प्रेरित करते हैं। लोग जिन्हें बुरा समझते हैं, वास्तव में बुरे नहीं होते, उनके हालात बुरे होते हैं। कई बार ऐसे लोग समाज को कुछ सुझाव देते हैं, तो लोगों को वे नागवार गुजरते हैं। जैसे एक वृद्धाश्रम के उद्घाटन के लिए एक विद्धान को बुलाया गया। अपने संबोधन में उस विद्वान ने कहा कि मैं चाहता हूं कि यह वृद्धाश्रम जितनी जल्द हो सके, उतनी जल्दी बंद हो जाए। लोगों ने इसका गलत अर्थ लगाया, क्योंकि उन्होंने वृद्धाश्रम की उन्नति की बात नहीं की। वृद्धाश्रम खुलने पर कोई खुशी जाहिर नहीं की। न ही इससे जुड़े लोगों की प्रशंसा की। इसलिए वे सभी के लिए बुरे बन गए। वास्तव में वे अपने संबोधन में समाज की इस बुराई को ही जड़ से खत्म करने की बात कर रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि घर के सदस्यों का व्यवहार इतना कठोर हो जाए कि बुजुर्गों को वृद्धाश्रम भेजने के लिए तैयार हो जाएं। परोक्ष रूप से वे घर के बड़े-बूढ़ों की इज्जत करने की बात कर रहे थे। पर अच्छी बात कहकर भी वे बुरे बन गए। दूसरी ओर जिन लोगों ने वृद्धाश्रम की प्रगति की बात की, वे अच्छे बन गए। यहीं से शुरू होता है अच्छे-बुरे का अंतर।

आज समय दिखावे का है, जो जितना अधिक दिखावा करता है, वह उतना ही प्रशंसा बटोरता है। लोगों को उनके दिखावे से कोई मतलब नहीं होता, लोग उसकी एक भूल या गलती की प्रतीक्षा करते रहते हैं। जहां उसकी एक बुराई सामने आई कि पिल पड़ते हैं। एक झटके में उनकी सारी प्रशंसाएं वायु में घुलनशील हो जाती है। सारे अच्छे कार्य धरे के धरे रह जाते हैं। इसलिए यदि हम थोड़े-से बुरे बनकर अपना कार्य करें, तो लोग हमें अधिक गंभीरता से नहीं लेंगे। हमारे काम में बाधा भी नहीं पहुंचाएंगे। हमें अपना काम करने की पूरी स्वतंत्रता होगी। हम अपने काम में निखार लाते जाएंगे। इसलिए जब लोग हमें बुरा कहें, तो उसे गंभीरता से न लें, बल्कि इसके लिए उन्हें धन्यवाद करें, उनका आभार मानें कि उन्होंने आपको अपना काम पूरी तन्मयता से करने का आधार दे दिया। समाज में ऐसे भी लोग हैं, जिन्हें अच्छे कार्यों के लिए सम्मान प्राप्त हुआ, लेकिन बाद में बुरे कार्य के लिए अपमानित भी होना पड़ा। कई बार तो सम्मान लौटाने की भी नौबत आ जाती है। ऐसा भी अच्छा होना किस काम का? इसलिए बुरा बनकर अपने आप में मस्त रहें, शायद इसे ही जीवन कहते हैं।

जो शिक्षित है, सोचता है, समझता है। सभी की बात सुनता है, पर अपनी बात कहने में संकोच करता है, वह लोगों के लिए बुरा हो सकता है। पर स्वयं के लिए कभी बुरा नहीं हो सकता। ऐसे संकोची लोग अपने काम से मतलब रखते हैं। हमें समाज में बहुत से ऐसे लोग मिल ही जाएंगे, जो प्रशंसा से दूर रहते हैं। लोग भले ही उनकी प्रशंसा न करें, पर बुराई भी नहीं करते। ऐसे लोग ही कुछ लोगों की दृष्टि में बुरे होते हैं। इसलिए हमें हमारी सोच को विस्तार देते हुए समाज के उन लोगों की ओर ध्यान देना होगा, जिसे लोग बुरा कहते हैं। हमें यह पता लगाना होगा कि आखिर लोग उन्हें बुरा क्यों कहते हैं। यदि वे वास्तव में बुरे होते, तो पूरा समाज ही उन्हें धिक्कारता। पर ऐसा तो नहीं है। अपने समय में वे मेधावी भी रहे हैं। वे बुरे इसलिए हैं कि वे आज के दिखावे वाले समाज में स्वयं को फिट नहीं पाते। उन्हें नए जीवन मूल्य स्वीकार्य नहीं हैं। वे पिज्जा नहीं खाते, बर्गर नहीं खाते, ऑर्डर देकर भोजन के बजाए वे शहर के किसी छोटे से ढाबे या झोपड़ीनुमा होटल में बैठकर पकौड़े खाने का आनंद लेते हैं। इसमें उनकी यही सोच होती है कि समुद्र में पानी डालने से कुछ नहीं होगा, पानी वहीं डाला जाए, जहां उसकी जरूरत है। पिज्जा से किसी बड़े ब्रांड की कमाई हो जाएगी, पर पकौड़ों से उस झुग्गीनुमा होटल वाले के घर का चूल्हा जल जाएगा।

दीपावली पर यही संदेश बार-बार सामने आया भी। अगर किसी गरीब से दीये खरीदेंगे, तो उसकी दीवाली मन जाएगी। बड़ी कंपनियों के दीये खरीदने से हमारी शान में जरूर इजाफा हो जाएगा, पर गरीब से दीये खरीदने के बाद मिलने वाली सुकून की दौलत भला हम कहां से पाएंगे? तो आप भी ढूंढने निकल पड़ें, ऐसे बुरे लोगों को, सचमुच वे आपके आसपास ही होंगे। जो आपको अपनी कथित बुराई से चमत्कृत भी कर देंगे। एक कोशिश तो करें आप…..

डॉ. महेश परिमल

 

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