मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

राम कुमार रामार्य की पाँच ग़ज़लें

1 . बोतलों में बंद पानी

पर्वतों चट्टान पर ठहरा नहीं ,स्वच्छंद पानी ।
लिख रहा बंजर पड़े मैदान पर ,नव-छंद पानी ॥

सभ्यता के होंठ पर दो बूंद तृप्ती छींटकर ,
बह नहीं सकता नदी सा ,बोतलों में बंद पानी ॥

है चमक आंखों में ,चेहरों में चमक है ,
इसलिए निर्मल कि रचता ,कुछ नहीं छल-छंद पानी ॥

आग की लपटों से लहरें ,होड़ ले लेकर लड़ें ,
जीत के इतिहास में रुतवा ,रखे बुलंद पानी ॥

रोज कितने फूटते हैं ,द्वेष के विष कूट-काले ,
डाल देता दहकते अंगार पर ,आनंद पानी ॥

जब जहां दिल चाहता बस फूट पड़ता है वहां ,
कब कहां करता किसी से ,कोई भी अनुबंध पानी ॥

2. भीड़ की भैंगी नज़र

क्यों भला अब दिल को मैं तड़पाऊँगा ?
याद तेरी आएगी तो गाऊँंगा ॥

भीड़ की भैंगी नज़र लग जाएगी ,
दर्द को एकांत में सहलाऊँंगा ॥

हर शहर में शोर है , बारूद है ,
किस जगह मैं प्यार को ले जाऊँंगा ॥

है बहुत बदला हुआ माहौल , उफ्
क्या पता मैं कैसा चेहरा पाऊँगा !!

एक सच ,सौ मौत मरता है यहाँ ,
मैं भी इक दिन मुफ्त मारा जाऊँंगा ॥

आऊँगा ,मैं आऊँगा ,मैं आऊँगा ,
फिर वही कोरा हृदय मैं लाऊँगा ॥
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3 . गुल्लक की पूँजी


पागलपन की हद तोड़ी तो होश में आया ।
यादों की डयोढी छोड़ी तो होश में आया ॥

उसके बोल , अदाएं उसकी , हीरे मोती ,
गुल्लक की पूंजी जोड़ी तो होश में आया ॥

बंधी रह गई अस्तबलों में भरी जवानी ,
उम्र हुई बूढ़ी घोड़ी तो होश में आया ॥

पकी हुई सूखी बल्ली दो टूक हो गई ,
इक दुखती उंगली तोड़ी तो होश में आया ॥

मेरे पीछे सूनापन था ,सन्नाटा था ,
आज यूँ ही गर्दन मोड़ी तो होश में आया ॥

आदर्शों के इन्द्रधनुष झूठे होते हैं ,
'ज़ाहिद' उम्र बची थोड़ी तो होश में आया ॥

4 . अक्ल के अंधे

नींद आती नहीं है ,ख्वाब दिखाने आए ॥
अक्ल के अंधे गई रात जगाने आए ॥

जिस्म में जान नहीं है मगर रिवाज़ तो देख ,
चल के वैशाखी मेें ये देश चलाने आए ॥

बीच चौराहे में फिर कोई मसीहा लटका ,
मुर्दे झट जाग उठे ,लाश उठाने आए ॥

जिसको बांहों में ,बंद मुट्ठियों में रखना है ,
ऐसी इक चीज़ को ये अपना बनाने आए॥

कुछ गए साल गए वक्त क़ा खाता लेकर ,
मेरे नामे पै चढ़ा क़र्ज़ बताने आए ॥

सर पै 'जाहिद'के हादिसों की यूं लाठी टूटी ,
जैसे अब सरफिरे की अक्ल ठिकाने आए ॥


5 . है हवा गर्म


अच्छे लगते हुए हर लम्हे बचाए कल के ।
आज तक हम सभी बस इस तरह आए चल के ॥

कुछ को छोड़ा किया ,पकडा किया ,अनदेखा किया ,
यूं परेशानी के पेशानी से साए ढलके ॥

तुमने कुछ अलहदा कुछ मैंने अलहदा पाए ,
दाने जो बालियों से हमने उठाए मल के ॥

दोस्त!क्यों रंज की ,शिकवे गिले की बात करें ,
शदमानी के तो लम्हे ही हैं आए पल के ॥

जिस तरफ से लगे अच्छा कि उधर से देखो ,
चेहरा ख्यालातो तसव्वुर के बजाए ढलके ॥

ज़िन्दगी तो वही 'ज़ाहिद' जहां ख़ुदाख्याली हो ,
है हवा गर्म ,सबा अब के ना आए जल के ॥

डॉ . रामकुमार रामार्य, सिवनी रोड , नैनपुर

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