गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

चुनाव सामने और मतदाता है कंफ्यूज

डॉ. महेश परिमल
जो राजनीति को अच्छी तरह से समझते हैं, क्या वे बता सकते हैं कि इन दिनों कौन-सा दल किसके साथ गठबंधन कर रहा है? वह कहाँ उसका विरोध कर रहा है और कहाँ समर्थन। मेरा विश्वास है कि यह तस्वीर अभी तक धुंधली ही है। जब इसे राजनीतिज्ञ नहीं समझ पा रहे हैं, तो फिर आम मतदाता की क्या बिसात? वह तो मूर्ख बनने के लिए ही तैयार बैठा है। लुभावने नारे, प्यारे-प्यारे वादों के साथ नेताओं ने अपने भाषणों से उनकी आँखों में एक सपना पलने के लिए छोड़ दिया है। अब मतदाता पालते रहे, उस सपने को, जिसे कभी पूरा नहीं होना है। उसे शायद नहीं मालूम कि मशीन का बटन दबाते ही उसका मत तो पहुँच गया किसी न किसी नेता के पास, पर उसका संबंध टूट गया पूरे 5 साल के लिए सभी नेताओं से।
अब देखो, देखते ही देखते प्रधानमंत्री पद के कितने दावेदार हमारे सामने आ गए हैं। उधर दिल्ली के एक सिख पत्रकार ने गृहमंत्री चिदम्बरम पर जूता क्या फेंका, दो नेताओं की टिकट ही कट गई। एक बॉल से दो आऊट। इससे चुनाव की हवा ही बदल गई है। इस चुनाव की जब रणभेरी बजी थी, तब किसी ने नहीं सोचा था कि वरुण गांधी और जनरल सिंह जैसी घटनाएँ होंगी। अब जब हो गर्ई हैं, तो राजनीति में भी उबाल आ गया है। सारे नेता जोड़-जुगत में लग गए हैं। पर शायद उन्हें नहीं मालूम की 16 मई को यही मतदाता एक नई इबारत लिखने जा रहे हैं, जो देश की तस्वीर बदल देगी। अभी साथ मिलकर चुनाव लडऩे वाले दल चुनाव के बाद भी साथ-साथ होंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इसके विपरीत एक-दूसरे पर अनर्गल आरोप लगाने वाले चुनाव के बाद एक ही पंगत में भोजन के लिए बैठ जाएँ, तो इसे अनोखा न समझा जाए।
इस समय देश में जो गठबंधन की राजनीति चल रही है, उससे मतदाता तो चकरा गया है। पहले देश में दो ही प्रमुख दल थे, एक कांगे्रस और दूसरी भाजपा। अब तीसरे मोर्चे की बात सामने आ गई है। मतदाता इस तीसरे मोर्चे को हजम करें, इसके पहले ही लालू-मुलायम-पासवान का चौथा मोर्चा सामने आ गया है। संभव है मतदान के पूर्व कोई पाँचवाँ मोर्चा भी आ जाए। अभी जो चौथा मोर्चा है, वह केंद्र में यूपीए सरकार का घटक दल है। चुनाव में यही दल कांगे्रस के खिलाफ हैं। इसके बाद भी अमरसिंह यह कह रहे हैं कि सोनिया गांधी के बिना देश पर गैरसाम्प्रदायिक सरकार बन ही नहीं सकती। रामविलास पासवान कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी तरफ से मनमोहन सिंह ही हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में यूपीए घटक दल कांगे्रस के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं, पर पश्चिम बंगाल मेें कांगे्रस यूपीए में नहीं है, ऐसा ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांगे्रस के साथ सीटों का बँटवारा कर रही है। इन हालात में मतदाताओं की क्या हालत होगी, यह पीड़ा वह किससे कहे? वह चकरा गया है, दिग्भ्रमित हो रहा है, क्या करुँ, कहाँ जाऊँ की स्थिति है। है कोई उसकी सुनने वाला?
अभी-अभी मराठा नेेता शरद पवार का बयान आया कि वे भी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं। बिगड़ती तबीयत और बढ़ती उमर के कारण प्रधानमंत्री बनने का यह आखिरी अवसर है। इनकी पार्टी ने केवल महाराष्ट्र में ही कांग्रेस के साथ सीटों का बँटवारा किया है। अन्य राज्यों में उनकी पार्टी कांगे्रस के खिलाफ खड़ी है। श्री पवार यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चुनाव परिणाम आने के बाद कांगे्रस के साथ रहकर किसी भी हालत में वे कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। इसीलिए उन्होंने चुनाव के बाद तीसरे मोर्चे में शामिल होकर प्रधानमंत्री बनने के विकल्प खुले रखे हैं। यही कारण है कि आज कांगे्रस में शरद पवार का कोई विश्वास नहीं कर रहा है। कभी वे उड़ीसा में बीजेडी के नवीन पटनायक और वामपंथियों के साथ मंच पर बैठकर अपने स्वभाव का परिचय दे दिया है।
पिछली लोकसभा चुनाव के बाद वामपंथियों के बाहरी समर्थन से यूपीए ने केंद्र में सरकार बनाई थी। अमेरिका के साथ परमाणु-समझौते के मुद्दे पर वामपंथियों ने समर्थन वापस ले लिया। उसके बाद कांगे्रस ने समाजवादी पार्टी के सहयोग से सरकार बचा ली थी। अभी यही वामपंथी पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। चुनाव के बाद वे एक बार फिर कांगे्रस के साथ सरकार बना लें, तो इसमें किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वामपंथियों का पहला विकल्प केंद्र में कांगे्रस और भाजपा की भागीदारी के सिवाय तीसरे मोर्चे सरकार बनाने की होगी। यदि यह संभव नहीं हो पाया, तो भाजपा नेताओं में से ही कुछ नेता अलग मोर्चा बनाकर केंद्र के करीब सरक रहे हैं। ऐसी आशंका वामपंथियों को होगा, तो साम्प्रदायिक परिबलों सद़भाव को दूर रखने के नाम पर यूपीए सरकार को समर्थन देकर या उसमें शामिल होने से भी पीछे नहीं रहेंगे। यदि केंद्र में वामपंथियों के सहयोग से सरकार बनी, तो सोचो वामपंथियों की कट्टर शत्रु ममता बनर्जी का क्या होगा?
उत्तर प्रदेश-बिहार में लालू-मुलायम-पासवान की तिकड़ी का गणित बहुत ही अधिक अटपटा है। यूपी में मुृख्य लड़ाई मुलायम-मायावती के बीच है। बिहार में मुख्य लड़ाई नीतिश कुमार और लालू प्रसाद के बीच है। इन दोनों राज्यों में कांगे्रस एक तरह से हाशिए पर ही है। लालू की व्यूहरचना नीतिश कुमार और कांगे्रस को पटखनी देने की है। मुलायम-लालू का गणित ऐसा है कि उनके हाथ में यदि 40-50 सांसद हो जाएँ, तो यूपी में वे तीसरे मोर्चे की मदद के बिना भी सरकार नहीं बना सकते। केंद्र में यदि मुलायम-लालू के समर्थन से यूपीए सरकार बनती है, तो वे उन 40-50 सांसदों के साथ भारी सौदेबाजी कर सकते हैं। यदि तीसरे या चौथे मोर्चे की सरकार बनती है, तो वे प्रधानमंत्री पद के भी दावेदार हो सकते हैं।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रकाश करात की नजर भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर है। कम्युनिस्ट पार्टी को यदि 70-80 सीटें मिल जाती हैं, और तीसरे मोर्चे की सरकार बनती है, तो सबसे बड़े दल के रूप में प्रकाश करात, शरद पवार, लालू, मुलायम आदि को ठेंगा दिखाते हुए प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो सकते हैं। अभी तो वे कांगे्रस द्वारा परमाणु समझौते के मामले पर कांगे्रस द्वारा काटी गई नाक का बदला लेने के लिए सभी राज्यों में जितना हो सके, कांगे्रस को नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि तीसरे मोर्चे की सरकार न बने, तो भाजपा और मोर्चे को सत्ता से दूर रखने के लिए कांगे्रस के साथ एक बार फिर हाथ मिलाने की तैयारी कर रहे हैं। इस हालात में पहले की तरह यूपीए सरकार की लगाम अपने हाथ में रखने की तमाम कोशिशें प्रकाश करात करेंगे। लालू-मुलायम-पासवान और पवारकी चौकड़ी मिलकर कांगे्रस को घायल करना चाहती है। पर खत्म करना नहीं चाहती, क्योंकि यदि कांगे्रस खत्म हो गई, तो भाजपा आएगी। भाजपा के भय से ये चौकड़ी आखिर कांगे्रस को ही समर्थन देकर यूपीए सरकार रचने के लिए तैयार हो जाएगी।
इस चुनाव में कांगे्रस के दुश्मन बहुत हैं। पर उसका लाभ उठाने की स्थिति में भाजपा नहीं है। प्रधानमंत्री बनकर अटल बिहारी वाजपेयी ने 16 दलों को साथ लेकर पूरे 6 साल तक सरकार चलाई। लालकृष्ट आडवाणी के पास इतना धैर्य नहीं है। चुनाव के पहले ही बीजेडी और टीडीपी जैसे दलों ने उनका साथ छोड़ दिया है। बिहार में जेडी यू भाजपा की साथी पार्टी होकर चुनाव लड़ रही है, पर जेडी यू के नेेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार आडवाणी के साथ एक मंच पर बैठने को तैयार नहीं है, क्योंकि उनके पास मुस्लिम वोट नामक बड़ी बैंक है। उधर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भाजपा के मोर्चे से अलग होकर कांगे्रस के सहयोग से चुनाव लड़ रही है। भाजपा तो स्पष्ट बहुमत की आशा ही नहीं रख रही है। इसे भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज पहले ही कह चुकी है। भाजपा के लिए श्रेष्ठ परिस्थिति यह हो सकती है कि उसे कांग्रेस की अपेक्षा कुछ अधिक सीटें मिले और सबसे बड़े दल के रूप में सरकार बनाए। इस सरकार को टिकाए रखने के लिए उसे उड़ीसा की बीजेडी, मायावती और जयललिता जैसी कद्दावर महिलाओं से सौदेबाजी करनी पड़े। इसके बाद फिर उनके नखरे सहने के लिए तैयार रहे।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा, इसकी आशंका के साथ ही कई दलों ने उसका साथ छोडऩा शुरू कर सकते हैं और अपने लिए हरियाली भूमि की तलाश कर सकते हैं। ये साथी पंजाब के अकाली, महाराष्ट्र के शिवसैनिकों और बिहार के नीतिश कुमार का समावेश होता है। भाजपा से छिटके कुछ दल मिलकर पाँचवें मोर्चे की तैयारी कर सकते हैं। इसमें असम के गण परिषद, जम्मू-कश्मीर की नेशनल कांफ्रेंस, आंध्र की तेलुगु देशम, ममत बनर्जी की तृणमूल कांगे्रस, उड़ीसा की बीजेडी, जयललिता के अन्नाद्रमुक, पंजाब के अकाली दल और महाराष्ट्र की शिवसेना आदि जुड़ सकते हैं।
संभावित पाँचवें मोर्चे को भाजपा बाहर से समर्थन देकर सत्ता में आ सकती है, ऐसा करने से कांगे्रसियों और वामपंथियों की चाल उलटी पड़ सकती है। पाँचवें मोर्चे की रचना करने का माद्दा केवल शरद पवार में ही है। यही एक ऐसे शख्स हैं, जिसने तमाम प्रादेशिक पार्टियों के साथ हाथ मिलाया है। पहले के चार मोर्चों में वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाए, तो पाँचवाँ मोर्चा तैयार करने में उन्हें समय नहीं लगेगा। इस तरह से एक नहीं बल्कि एक दर्जन नेता प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। खैर यह तो मतदाता को नहीं चुनना है। पर अभी दलों के गठबंधन का जो समीकरण है, वह किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है। ऐसे में मतदाता क्या करे? यह तो समय ही बताएगा।
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. कौन-सा दल किसके साथ गठबंधन कर रहा है ... इसकी तस्‍वीर जानबूझकर धुंधली रखी जा रही है ... ताकि परिणाम के बाद उनकी मनमानी चल सके !

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