सोमवार, 13 अप्रैल 2009

ईमानदार प्रत्याशी यानी नक्कारखाने की तूती

डॉ. महेश परिमल

3 करोड़ खर्चकर संसद पहुँचने वाला ईमानदार रह सकता है?
भारत में चुनाव आते ही विदेशी बैंकों से काफी धन निकाला जाता है। देश में विदेश से धन की आपूर्ति शुरू हो जाती है। भारत के नेता जो लगातार 5 वर्ष तक भ्रष्टाचार के रूप में जो कुछ कमाते हैं, उसका कुछ हिस्सा ही एक बार फिर चुनाव में प्रत्याशी बनकर इनवेस्ट कर देते हैं। यह सभी जानते हैं कि एक प्रत्याशी सरकार द्वारा नीयत राशि से कई गुना अधिक खर्च कर चुनाव जीतता है, लेकिन इस पर अंकुश लगाने में चुनाव आयोग भी स्वयं को लाचार पाता है। आजकल ईमानदार प्रत्याशी का मतलब है कि यह नक्कारखाने में तूतीँ। अब राजनीति ईमानदारों का क्षेत्र नहीं रहा। क्योंकि संसद के चुनाव में कम से कम तीन करोड़ रुपए खर्च करने वाला प्रत्याशी क्या सचमुच ईमानदार रह सकता है? यह एक गंभीर प्रश्न है, जिसे इस बार हमें हल करना हैँ।
चुनाव में धन के बेपनाह खर्च पर लगाम रखने के लिए सन 1951 के लोकप्रतिनिधित्व कानून की धारा 77 में यह कहा गया है कि यदि कोई प्रत्याशी लोकसभा चुनाव में खड़ा हुआ है, तो वह अधिक से अधिक 25 लाख रुपए और विधानसभा चुनाव लडऩे वाला अधिक से अधिक 5 लाख रुपए खर्च कर सकता है। इस धारा मेें एक यह चालाकी की गई है कि सत्ता की ओर से चुनाव प्रचार के लिए जो कुछ भी खर्च किया जाएगा, उसका समावेश प्रत्याशी के खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। अभी यह हाल है कि सत्ता पक्ष की तरफ से प्रत्याशी के लिए पोस्टरों, बैनरों और पाम्पलेट्स आदि छापी जाती है, तो इसे प्रत्याशी के खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। इसके अलावा पार्टी की तरफ से उसे यदि प्रचार के लिए वाहन की व्यवस्था की जाती है, तो उसका खर्च भी प्रत्याशी के खर्च में नहीं जोड़ा जाएगा। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि कोई प्रत्याशी लोकसभा में जाने के लिए उम्मीदवार बनकर लोगों का प्रतिनिधित्व करना चाहता है, तो उसे चुनाव में 25 लाख रुपए भी खर्च करने की क्या आवश्यकता है? भारतीय कानून ने ही यह व्यवस्था दी है कि प्रत्याशी चुनाव में 25 लाख रुपए तक खर्च कर सकता है। इसका मतलब यही है कि जिसमें 25 लाख रुपए खर्च करने की कुब्बत हो, वह चुनाव में खड़ा हो। यही कारण है कि आज मध्यम वर्ग को कोई भी व्यक्ति चुनाव में खड़ा होने की सोच भी नहीं सकता।
यहाँ यह बात विचारणीय है कि यदि उम्मीदवार नि्िरश्चत रूप से ईमानदार, लायक और लोकप्रिय है और लोग उसके चरित्र और उसके काम को जानते-समझते हैं, तो फिर उस लायक उम्मीदवार को क्या आवश्यकता है पोस्टरों, बैनरों और पांपलेट्स की? अपना प्रचार करने के लिए उसे किराए के आदमियों की जरूरत क्यों पड़ती है? यदि वह सचमुच लायक है, तो वह नहीं उसका काम बोलेगा। उसे तो एक शब्द बोलने की जरूरत ही नहीं होगी। जिस उम्मीदवार में सांसद बनने की काबिलियत नहीं होती, उसे यह सब सहन करना पड़ता है। उसे पदयात्रा करनी पड़ती है। सभाओं को संबोधित करना पड़ता है। सभा के लिए किराए के आदमियों की व्यवस्था करनी पड़ती है। उन्हें धन भी देना पड़ता है। लोक प्रतिनिधित्व कानून ने ही यह व्यवस्था दी है कि प्रत्याशी 25 लाख रुपए खर्च कर सकता है। इसमें जो इतना धन खर्च कर सकता है, वह लोकप्रिय न भी हो, तो चलेगा। बस वही चुनाव में खड़ा हो जाता है।
आज कोई एक प्रत्याशी ऐसा बता दें, जिसमें अपने चुनाव प्रचार के लिए एक पैसा भी खर्च न किया हो और चुनाव जीत गया हो? भारतीय कानून ने ही यह व्यवस्था दी है कि प्रत्याशी बेपनाह खर्च कर मतों की खरीद-फरोख्त कर सकता है। उसी का दुष्परिणाम है कि चुनाव प्रचार के शोरभरे माहौल में यदि कोई ईमानदार प्रत्याशी खड़ा भी हुआ है, तो उसकी आवाजा नक्कारखाने में तूती की तरह होती है। उसे कोई सुन नहीं पाता। इसी कारण आजकल ईमानदार लोगों ने राजनीति को अलविदा कह दिया है। अब मैदान उनके हाथ में है, जो जीतने के लिए ऐन केन प्रकारेण बल का प्रयोग कर सकता हो। यदि यह कहा जाए कि जनता खुद अपना प्रतिनिधि चुने, तो उसके लिए हमारे कानून में ऐसी व्यवस्था है ही कहाँ?
चुनाव आयोग ने यह तय कर दिया कि लोकसभा प्रत्याशी 25 लाख रुपए खर्च कर सकता है। तो प्रश्न यह उठता है कि यह 25 लाख रुपए उसे कौन देगा? और क्यों देगा? यदि उम्मीदवार यह कहे कि यह खर्च मैं अपनी कमाई से कर रहा हूँ, तो उसे कर्ण का अवतार माना जाना चाहिए। उसे यह अच्छी तरह से पता होता है कि जितना खर्च वह चुनाव में करेगा, उससे कई गुना तो उसे भविष्य में भ्रष्टाचार के माध्यम से मिल जाएगा। इस तरह से वह चुनाव में खर्च कर अपने धन का इनवेस्टमेंट करता है। यदि कोई उम्मीदवार यह दावा करता है कि चुनाव जीतने के लिए उसने कोई खर्च नहीं किया है, जो भी किया है, उसके मित्र या फिर पार्टी की तरफ से किया गया है, तो इस दावे की गहराई में जाएँ, तो कई रहस्य अपने आप ही खुल जाएँगे।
पहले पार्टी की तरफ से मिलने वाले धन की चर्चा की जाए। यदि अपने प्रत्याशी को पार्टी धन देती है, तो फिर पार्टी के पास यह धन कहाँ से आया? पार्टी कोई बिजनेस तो करती नहीं? पार्टी के पास जो धन आता है, वह उद्योगपतियों, कालाबाजारियों, असामाजिक तत्वों, माफियाओं की तरफ से आता है। सूचना के अधिकार के तहत कोई इस खर्च को जानना चाहे, तो उसे समुद्र में जमी बर्फ की वह शिला ही दिखाई देगी, जो बाहर से काफी छोटी दिखाई देती है, पर भीतर से विशालकाय है। इस देश में एक धार्मिक संस्था को भी अपने खर्च का हिसाब सरकार को देना होता है, लेकिन राजनैतिक दलों को अभी तक इससे दूर रखा गया है। यदि राजनैतिक दलों के लिए भी यह नियम बना दिए जाएँ कि उन्हें भी अपना खर्च बताना होगा, तो सभी को पता चल जाएगा कि उन्हें धन कहाँ से प्राप्त होता है। प्रत्याशी को धन देने वाले जो मित्र होते हैं, वे कौन हैं? उन्होंने अपने किस स्वार्थ के कारण उसे धन दिया है, वह धन उन्हें किस तरह से वापस मिलेगा, यह जानने का अधिकार भारतीय जनता के पास है, अब समय आ गया है कि जनता अपने इस अधिकार का प्रयोग करे। अफसोस इस बात का है कि जनता के इस अधिकार की कोई इज्जत ही नहीं करता।
आखिर जनता कब तक ऐसे प्रत्याशियों का चुनाव करती रहेगी, जो उसे पसंद ही नहीं है। यदि उसे अपना मत देकर विजयी बना दिया, तो फिर उसके पास कौन सा अधिकार बचता है, जिसके आधार पर वह उस प्रत्याशी को वापस बुला सके, जिसने जनता के प्रतिनिधि होने का केवल सपना ही दिखाया। जनता का तो कोइ्र्र काम उसने नहीं किया। बस अपना ही घर भरा। अब तो मतपत्र में एक कॉलम और होना चाहिए, जिसमें यह लिखा हो कि इसमें से कोई नहीं। यदि इस पर अधिक लोगों की सहमति होती है, तो वहाँ पर दूसरे प्रत्याशियों को सामने लाकर चुनाव कराया जाए। इससे ईमानदार और काम करने वाले चेहरे सामने आएँगे। संभवत: लोकतंत्र का चेहरा ही बदल जाए। यही समय है जनता स्वयं को महत्वपूर्ण माने। अब यदि समय गया, तो समझो 5 साल की फुरसत। जनता की तरफ झाँकने वाला भी कोई नहीं होगा।
डॉ. महेश परिमल

1 टिप्पणी:

  1. मतपत्र में तो शायद कालम बन गया है ... पर बार बार चुनाव के खर्च का बोझ जनता पर नहीं पडेगा क्‍या ?

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