मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

पाँच सामयिक कुंडलियाँ

हाथ उठाने चल पड़े , बिना रीढ़ बेपांव ।
जाग रहें हैं चोर सब , सोया सारा गांव ।
सोया सारा गांव ,सयाने खांस रहे हैं ,
युवक सभी ,मां के पल्लू से झांक रहे हैं ।
दुखिया दास कबीर , बात किस किस की माने ?

देश उठाने चले हैं ये, या हाथ उठाने ?
अपना देश महान है , अपने हृदय विशाल ।
गीदड़ पूजित हो रहे पहन शेर की खाल ।
पहन शेर की खाल , लकड़बग्गे भी हंसते ,
मगर हिरण खरगोश हैं भोले ,प्रायः फंसते ।
जंगल देखे , जंगल में मंगल का सपना ।
हासिलाई में केवल दंगा , अपना अपना ।


सिंह जहां है बादशा‘ , हाथी बस गजराज ।
उस जंगल का रोज ही होता सत्यानाश ।
होता सत्यानाश , नीलगायों सी जनता ,
हाहाकार करे ,पर इससे कब क्या बनता ?
दु£िया दास कबीर , अहिंसा जहां धर्म है ।
साधु साध्वी हिंसक! उनमें शर्म कहां है ?


पूंछ उमेंठी भैंस की ,भैंस हो गई रेल ।
चारा से भी चू पड़ा ,चमत्कार का तेल ।
चमत्कार का तेल, छछूंदर लगा रही है ,
खोटा सिक्का घिसकर सोना बना रही है।
हुए नारीमय पुरुष सब,कटा-कटाकर पूंछ ,
चली नचाती बंदरिया ,इक बंदर बेपूंछ।

पूछ रहा है रेल से , रोलर एक सवाल।
लौह-पांत ने क्यों भरी ,इतनी बड़ी उछाल ?
इतनी बड़ी उछाल, कि अपनी जगह गिर गए।
अभिमन्यु को घेर रहे थे ,स्वयं घिर गए।
सब अपराधी हंस रहे ,रहे अलावा कूद ।
कौन किसे है छल रहा ,देश रहा है पूछ।

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