डॉ. महेश परिमल
इस देश में जब भी किसी को कोई विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त होती है, लोग उसे हाथो-हाथ लेते हैं। कई कंपनियां उसके हित में आगे आती हैं। उसे विशेष पुरस्कार से नवाजा जाता है। कई स्वयं सेवी संस्थाएं भी उनका सम्मान करने के लिए आगे आ जाती है। क्रिकेट में भी जब भी धोनी की टीम ने कोई विशेष उपलब्धि हासिल की है, सरकार ने आगे बढ़कर सभी खिलाड़ियों को करोड़ों रुपए ऐसे ही दे दिए हैं। उन पर धनवर्षा होती है। आईपीएल के लिए भी क्रिकेटरों की बोली लगती है। ओलम्पिक में भी कोई भारतीय खिलाड़ी विशिष्ट योग्यता प्राप्त करता है, तो उसे भी सरकार की ओर से सम्मान एवं पुरस्कार दिए जाते हैं। पर अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक महान उपलब्धि प्राप्त कर विश्व में भारत का नाम रोशन करने वाले इसरो के वज्ञानिकों को ऐसा कोई अवार्ड नहीं मिला, जिससे वे प्रोत्साहित हों। इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि को शायद सरकार समझ नहीं पाई। सरकार को समझना चाहिए कि भारत की स्पेस सिद्धि वर्ल्ड कप और ओलम्पिक गोल्डमेडल से भी काफी बड़ी है। सरकार क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने में पीछे नहीं रहती, पर वैज्ञानिकों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। आखिर इनकी मेहनत को क्यों अनदेखा किया जाता है?
आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवनर स्पेस सेंटर से क्कस्रुङ्क ने सुबह 9 बजे एक धमाके के साथ उड़ान शुरू की थी। इस दौरान पूरे देश को ऐसा लग रहा था, मानो कोई मैच देखा जा रहा हो। बीस मिनट तक लोग हैरत में ही रहे। इसके बाद चार चरणों में क्कस्रुङ्क ष्ट २३ अपनी यात्रा पूरी की। पहले चरण में फ्रांस का उपग्रह और उसके बाद अन्य चार उपग्रहों को छोड़ा गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उपस्थित थे। उन्होंने एक-एक वैज्ञानिक से मुलाकात की। पर उनके लिए किसी तरह के अवार्ड की घोषणा नहीं की। वह तो ठीक है, पर देश की इतनी सारी कापरेरेट कंपनियां हैं, किसी ने भी आगे बढ़कर इसरो के वैज्ञानिकों को इनाम आदि देने के लिए आगे नहीं आई। भारत की यह स्पेस सिद्धि वर्ल्ड कप या ओलम्पिक से भी बढ़कर है। क्योंकि इसरो के इस प्रयास को विश्वस्तर पर सराहा गया है।
दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा था, तब वैज्ञानिकों के पास कुछ सीमित उपकरण ही थे। तब तो हालात ऐसे थे कि रॉकेट के कुछ भाग साइकिल पर लादकर लाया जाता था। यह सुनकर आज भले ही हमें आश्चर्य हो, पर तब हालाता ऐसे ही थे। आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने का निश्चय किया। उस समय डॉ. होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई को नहीं भूलना चाहिए। जिनके अथक प्रयासों से आज हम इस मुकाम पर पहुंचे हैं। इसके बाद डॉ. सतीश धवन ने भी उपलब्धियों के झंडे गाड़े। समझ में नहीं आता कि ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले को सरकार 3 करोड़ रुपए देती है, वर्ल्ड कप जीतने पर धोनी के टीम के सभी सदस्यों को एक-एक करोड़ रुपए दिए जाते हैं, इसके बाद प्रायोजकों वाला राशिव अलग। पर इसरो के वज्ञानिकों की इतनी बड़ी उपलब्धियों को प्राप्त करने के नाम पर कुछ नहीं दिया गया। हमारे देश में बॉलीवुड और क्रिकेट इस कदर हावी है कि देशवासियों को उसके सिवाय कुछ दिखता ही नहीं। ऐसे में यदि देश से प्रतिभाओं का पलायन होता है, तो लोग अफसोस करते हैं। जब हम ही हमारे देश की प्रतिभा को संभालकर नहीं रख पाएंगे, तो प्रतिभाओं को दूसरे देश जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना ही होगा।
1975 में हमने सोवियत वैज्ञानिकों की मदद से उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा था, इसमें भारत की कोई तकनीक नहीं थी। 1972 में रुस से हुए समझौते के अनुसार आर्यभट्ट को छोड़ा गया था। हाल ही में क्कस्रुङ्क ष्ट २३ की सफलता के पीछे पूरी तरह से भारतीय तकनीक थी। स्पेस साइंस के साथ कई संस्करण जुड़े हुए हैं। पहले हालत यह थी कि एक साधन भी विदेश से नहीं मिलता था, तो पूरा प्रोजेक्ट ही अटक जाता था। स्पेस टेक्नालॉजी पूरी तरह से विदेश पर निर्भर थी।क्कस्रुङ्क ष्ट २३ पूरी तरह से देश में निर्मित तकनीक पर आधारित है। अब हम इस दिशा में इतने अधिक आत्मनिर्भर हो चुके हैं कि विदेशों के उपग्रह भी छोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसे भी हमारे वैज्ञानिकों ने सिद्ध करके दिखा दिया है। पिछली सरकार के समय स्पेस-देवास घोटाला सामने आया था। यदि यह घोटाला सफल हो गया होता, तो लाखों-करोड़ों का घोटाला होता। स्पेस साइंस के महत्व को हमने देर से समझा है। विश्व की अपेक्षा हमने कम कीमत पर प्रोजेक्ट बनाए हैं। अब जब सार्क देशों को एक उपग्रह भेंट देने के प्रयास हो रहे हैं, तब भारत बिग ब्रदर की भूमिका करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसरो की टीम का राष्ट्रपति ने अभिनंदन किया है, परंतु कोई भी कापरेरेट कंपनी इसरो के वैज्ञानिकों का सम्मान करने के लिए आगे नहीं आई। जिससे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ता। आज की मांग यही है कि सरकार एवं देश की कापरेरेट कंपनियों को ऐसे प्रयास करना चाहिए जिससे हमारे वैज्ञानिको का उत्साहवर्धन हो। इन्होंने क्रिकेट टीम या ओलम्पिक में गोल्ड मेडल प्राप्त करने वालों से भी बड़ा काम किया है। यही नहीं उनके प्रयासों से देश का नाम भी ऊंचा हुआ है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में देश को बहुत बड़ी उपलब्धि दिलाने वाले इसरो के वैज्ञानिकों को ठीक उसी तरह से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिस तरह से क्रिकेटरों को किया जाता है।
इसरो के वैज्ञानिकों के लिए यदि सरकार ने कुछ नहीं किया, तो यह काम और कौन करेगा? इस दिशा में सरकार को ही पहल करनी होगी। यदि सरकार ऐसा नहीं कर पाती, तो यही वैज्ञानिक कल नासा में काम करते हुए दिखाई दें, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। देश की प्रतिभाओं का पलायन रोकने के लिए हमें कुछ ऐसा करना ही होगा, जिससे देश के लिए काम करने का उनका हौसला बुलंद हो। ताकि भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ले सके।
डॉ. महेश परिमल
इस देश में जब भी किसी को कोई विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त होती है, लोग उसे हाथो-हाथ लेते हैं। कई कंपनियां उसके हित में आगे आती हैं। उसे विशेष पुरस्कार से नवाजा जाता है। कई स्वयं सेवी संस्थाएं भी उनका सम्मान करने के लिए आगे आ जाती है। क्रिकेट में भी जब भी धोनी की टीम ने कोई विशेष उपलब्धि हासिल की है, सरकार ने आगे बढ़कर सभी खिलाड़ियों को करोड़ों रुपए ऐसे ही दे दिए हैं। उन पर धनवर्षा होती है। आईपीएल के लिए भी क्रिकेटरों की बोली लगती है। ओलम्पिक में भी कोई भारतीय खिलाड़ी विशिष्ट योग्यता प्राप्त करता है, तो उसे भी सरकार की ओर से सम्मान एवं पुरस्कार दिए जाते हैं। पर अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक महान उपलब्धि प्राप्त कर विश्व में भारत का नाम रोशन करने वाले इसरो के वज्ञानिकों को ऐसा कोई अवार्ड नहीं मिला, जिससे वे प्रोत्साहित हों। इसरो के वैज्ञानिकों की उपलब्धि को शायद सरकार समझ नहीं पाई। सरकार को समझना चाहिए कि भारत की स्पेस सिद्धि वर्ल्ड कप और ओलम्पिक गोल्डमेडल से भी काफी बड़ी है। सरकार क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने में पीछे नहीं रहती, पर वैज्ञानिकों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता। आखिर इनकी मेहनत को क्यों अनदेखा किया जाता है?
आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवनर स्पेस सेंटर से क्कस्रुङ्क ने सुबह 9 बजे एक धमाके के साथ उड़ान शुरू की थी। इस दौरान पूरे देश को ऐसा लग रहा था, मानो कोई मैच देखा जा रहा हो। बीस मिनट तक लोग हैरत में ही रहे। इसके बाद चार चरणों में क्कस्रुङ्क ष्ट २३ अपनी यात्रा पूरी की। पहले चरण में फ्रांस का उपग्रह और उसके बाद अन्य चार उपग्रहों को छोड़ा गया। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उपस्थित थे। उन्होंने एक-एक वैज्ञानिक से मुलाकात की। पर उनके लिए किसी तरह के अवार्ड की घोषणा नहीं की। वह तो ठीक है, पर देश की इतनी सारी कापरेरेट कंपनियां हैं, किसी ने भी आगे बढ़कर इसरो के वैज्ञानिकों को इनाम आदि देने के लिए आगे नहीं आई। भारत की यह स्पेस सिद्धि वर्ल्ड कप या ओलम्पिक से भी बढ़कर है। क्योंकि इसरो के इस प्रयास को विश्वस्तर पर सराहा गया है।
दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा था, तब वैज्ञानिकों के पास कुछ सीमित उपकरण ही थे। तब तो हालात ऐसे थे कि रॉकेट के कुछ भाग साइकिल पर लादकर लाया जाता था। यह सुनकर आज भले ही हमें आश्चर्य हो, पर तब हालाता ऐसे ही थे। आजादी के बाद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने का निश्चय किया। उस समय डॉ. होमी जहांगीर भाभा और विक्रम साराभाई को नहीं भूलना चाहिए। जिनके अथक प्रयासों से आज हम इस मुकाम पर पहुंचे हैं। इसके बाद डॉ. सतीश धवन ने भी उपलब्धियों के झंडे गाड़े। समझ में नहीं आता कि ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले को सरकार 3 करोड़ रुपए देती है, वर्ल्ड कप जीतने पर धोनी के टीम के सभी सदस्यों को एक-एक करोड़ रुपए दिए जाते हैं, इसके बाद प्रायोजकों वाला राशिव अलग। पर इसरो के वज्ञानिकों की इतनी बड़ी उपलब्धियों को प्राप्त करने के नाम पर कुछ नहीं दिया गया। हमारे देश में बॉलीवुड और क्रिकेट इस कदर हावी है कि देशवासियों को उसके सिवाय कुछ दिखता ही नहीं। ऐसे में यदि देश से प्रतिभाओं का पलायन होता है, तो लोग अफसोस करते हैं। जब हम ही हमारे देश की प्रतिभा को संभालकर नहीं रख पाएंगे, तो प्रतिभाओं को दूसरे देश जाकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना ही होगा।
1975 में हमने सोवियत वैज्ञानिकों की मदद से उपग्रह आर्यभट्ट छोड़ा था, इसमें भारत की कोई तकनीक नहीं थी। 1972 में रुस से हुए समझौते के अनुसार आर्यभट्ट को छोड़ा गया था। हाल ही में क्कस्रुङ्क ष्ट २३ की सफलता के पीछे पूरी तरह से भारतीय तकनीक थी। स्पेस साइंस के साथ कई संस्करण जुड़े हुए हैं। पहले हालत यह थी कि एक साधन भी विदेश से नहीं मिलता था, तो पूरा प्रोजेक्ट ही अटक जाता था। स्पेस टेक्नालॉजी पूरी तरह से विदेश पर निर्भर थी।क्कस्रुङ्क ष्ट २३ पूरी तरह से देश में निर्मित तकनीक पर आधारित है। अब हम इस दिशा में इतने अधिक आत्मनिर्भर हो चुके हैं कि विदेशों के उपग्रह भी छोड़ने की क्षमता रखते हैं। इसे भी हमारे वैज्ञानिकों ने सिद्ध करके दिखा दिया है। पिछली सरकार के समय स्पेस-देवास घोटाला सामने आया था। यदि यह घोटाला सफल हो गया होता, तो लाखों-करोड़ों का घोटाला होता। स्पेस साइंस के महत्व को हमने देर से समझा है। विश्व की अपेक्षा हमने कम कीमत पर प्रोजेक्ट बनाए हैं। अब जब सार्क देशों को एक उपग्रह भेंट देने के प्रयास हो रहे हैं, तब भारत बिग ब्रदर की भूमिका करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। इसरो की टीम का राष्ट्रपति ने अभिनंदन किया है, परंतु कोई भी कापरेरेट कंपनी इसरो के वैज्ञानिकों का सम्मान करने के लिए आगे नहीं आई। जिससे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ता। आज की मांग यही है कि सरकार एवं देश की कापरेरेट कंपनियों को ऐसे प्रयास करना चाहिए जिससे हमारे वैज्ञानिको का उत्साहवर्धन हो। इन्होंने क्रिकेट टीम या ओलम्पिक में गोल्ड मेडल प्राप्त करने वालों से भी बड़ा काम किया है। यही नहीं उनके प्रयासों से देश का नाम भी ऊंचा हुआ है। अंतरिक्ष के क्षेत्र में देश को बहुत बड़ी उपलब्धि दिलाने वाले इसरो के वैज्ञानिकों को ठीक उसी तरह से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिस तरह से क्रिकेटरों को किया जाता है।
इसरो के वैज्ञानिकों के लिए यदि सरकार ने कुछ नहीं किया, तो यह काम और कौन करेगा? इस दिशा में सरकार को ही पहल करनी होगी। यदि सरकार ऐसा नहीं कर पाती, तो यही वैज्ञानिक कल नासा में काम करते हुए दिखाई दें, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। देश की प्रतिभाओं का पलायन रोकने के लिए हमें कुछ ऐसा करना ही होगा, जिससे देश के लिए काम करने का उनका हौसला बुलंद हो। ताकि भावी पीढ़ी उनसे प्रेरणा ले सके।
डॉ. महेश परिमल
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