शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

http://epaper.haribhoomi.com/epapermain.aspx
हरिभूमि में प्रकाशित मेरा आलेख 

आज वर्ल्ड एम्ब्रियोलॉजी डे
याद आते हैं डॉ. सुभाष
डॉ. महेश परिमल
विश्व की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी ने 25 जुलाई 1978 को ब्रिटेन में जन्म लिया था। उसका नाम  मेरी लुइस ब्राउन था। भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी 3 अक्टूबर 1978 को हुई थी। उसका नाम कनुप्रिया अग्रवाल है। जब इन दोनों टेस्ट ट्यूब बेबी इस संसार में आई, तब इस शोध को मान्यता नहीं मिली थी। इस शोध को मान्यता मिलने के बाद भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म मुम्बई में 6 अगस्त 1986 को डॉ. इंदिरा आहूजा के हाथों हुआ, उसका नाम था हर्षा चावड़ा। हर्षा आज 25 वर्ष की हो गई है। भारत में पहली टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हुआ, तब विज्ञान के इस चमत्कार का सहजता के साथ स्वीकारने के बजाए देश के नेताओं ने राजनीतिक रंग दे दिया। इसलिए हर्षा का जन्मोत्सव नहीं हो पाया। टेस्ट ट्यृब बेबी को जन्म देने वाले डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय और उनके सहयोगी सुनीत मुखर्जी और एस.के.भट्टाचार्य का अपमान किया गया। यह सिद्धि पश्चिम बंगाल की थी। इस सिद्धि की प्रशंसा तो नहीं हो पाई, पर इसके जन्मदाता डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय को इंटरनेशनल कॉफ्रेंस में जाने से भी रोक दिया गया। भारत को पहली टेस्ट ट्यूब बेबी देने वाले डॉ. मुखोपाध्याय 19 जून 1981 को अपने निवास स्थान में आत्महत्या कर ली थी। भारत में पहली व्रिटो-फर्टीलाइजन से सिद्धि प्राप्त करने वाले इस डॉक्टर के महत्व को 2005 में समझा गया। बाद में इनका मरणोपरांत सम्मान भी किया गया। इस घटना पर तपन सिन्हा ने एक फिल्म भी बनाई थी, जिसका नाम था ‘एक डॉक्टर की मौत’, इस फिल्म में प्रमुख भूमिका पंकज कपूर और शबाना आजमी ने निभाई थी।
ये सब कुछ इसलिए याद करना पड़ रहा है, क्योंकि कल शुक्रवार यानी 25 जुलाई को ‘वर्ल्ड एम्ब्रीयोलॉजी डे’ है। इस शोध के कारण विश्वभर में 50 लाख से अधिक टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म हो चुका है। एम्ब्रीयोलॉजिस्ट का काम स्पर्म और एग के कलेक्शन के बाद फर्टाइल करने का होता है। फिर एम्ब्रीयो के डेवलपमेंट पर नजर रखी जाती है। हर्षा 25 वर्ष की उम्र को पार कर चुकी है। उसकी मां का नाम मणि चावड़ा है। उसकी 25 वर्षगांठ पर वह मुम्बई के सिद्धि विनायक मंदिर गई थी। क्योंकि बर्थ डे केक के लिए उसके पास धन नहीं था। हर्षा कहती है कि मुझमें और अन्य युवतियों में कोई फर्क नहीं है। मैं सभी से नि:संकोच कहती हूं कि मैं टेस्ट ट्यूब बेबी हूं। पहली मैं एक प्राइवेट जॉब कर रही थी, पर बीच में बीमार होने के कारण जॉब छोड़ना पड़ा। इस समय उसके पास कोई जॉब नहीं है। वह पूरी तरह से स्वस्थ है। उसकी मम्मी मणि चावड़ा गर्व के साथ बताती है कि मुझे गर्व है कि आईवीएफ (इन व्रिटो फर्टीलाइजेशन) द्वारा मेरी पुत्री का जन्म हुआ है। हर्षा का जब जन्म हुआ, तब उनकी मम्मी की उम्र 35 वर्ष थी।
विश्व में हर्षा को पहचान देने वाली डॉ. इंदिरा आहूजा थी। भारतीय पद्धति के अनुसार भारतीय डॉक्टरों की सहायता से डॉ. इंदिरा ने यह उपलब्धि हासिल की थी। हर्षा के जन्म ने अनेक ऐसे दम्पति के जीवन में एक रोशनी के रूप में हुआ, जो नि:संतान थे। हर्षा आशा की एक किरण के रूप में इन दम्पतियों के सामने आई। इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च से पता चला कि देश के 10 प्रतिशत युगल इंफर्टीलिटी का सामना कर रहे हैं। इसके बाद स्पर्म काउंट, इंफेक्शन, पुरुषों में इरेक्टाइल डिस्फेक्शन, फेलोपीयन ट्यूब में नुकसान आदि समस्याओं का समावेश होता है। इन व्रिटो फर्टीलाइजेशन थोड़ी पेचीदा प्रक्रिया है।  इस विधि के माध्यम से पुरुष के शुRाणु व महिला के अंडाणु को अलग-अलग ट़यूब में एकत्र कर टेस्ट ट्यूब चिकित्सा प्रणाली से महिला के गर्भाशय में स्थापित किया जाता है। इससे शिशु का प्रजनन संभव होता है। प्रजनन Rिया की सफलता के लिए गर्भवती महिलाओं को समय-सयम पर चिकित्सकों का परामर्श लेते रहना भी आवश्यक होता है। यह पद्धति इतनी अधिक कारगर हुई है कि आज की तारीख में देश में 400 आईवीएफ क्लिनिक हैं। विदेश में भी यही पद्धति लागू है। इस पद्धति का लाभ लेने के लिए भारत आते हैं, क्योंकि विदेश में यह पद्धति काफी महंगी है।
दुर्गा यानी कनुप्रिया अग्रवाल के जन्म के 8 वर्ष बाद हर्षा चावड़ा का जन्म हुआ था। दुर्गा के जन्म के समय विवाद नहीं हुआ था, क्योंकि उस समय केवल पश्चिम बंगाल सरकार ही इस तकनीक के विरोध में थी। कई संप्रदाय इसे भगवान के खिलाफ जाना बताते थे। उनका मानना था कि अगर भगवान न चाहे, तो किसी दम्पति को संतान नहीं हो सकती। पर आईवीएफ तकनीक ने एक इतिहास ही बना दिया। इस इतिहास को बनाने वाले डॉ.सुभाष मुखोपाध्याय को पश्चिम बंगाल सरकार ने काफी परेशान किया। अंतत: उन्हें आत्महत्या करनी पड़ी। 27 वर्ष बाद उनके काम को सराहना मिली। उनके दावे को मान्यता मिली। हमारे देश में अक्सर ऐसा ही होता है। पहले उसकी कद्र नहीं की जाती, पर जब उसके काम की कद्र विदेशों में होती है, तो उसे अपने देश में भी हाथो-हाथ लिया जाता है। प्रतिभा पलायन का एक कारण यह भी है। डॉ. मुखोपाध्याय की आत्महत्या का दु:ख इसलिए अधिक है, क्योंकि उनके काम को सराहना उस राज्य से नहीं मिली, जो राज्य स्वयं को बौद्धिक कहते नहीं अघाता। उस समय वहां कम्युनिस्ट पार्टी का शासन था। डॉ. मुखोपाध्याय की मौत के बाद उनके काम को सराहना मिली। आज वे सभी दम्पति उन्हें अपनी शुभकामनाएँ दे रहे होंगे, जिनके जीवन में टेस्ट ट्यूब के माध्यम से संतान की प्राप्ति हुई।
  डॉ. महेश परिमल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels