गुरुवार, 25 मई 2017
कविता - यादों के जंगल में - अनन्त आलोक
कविता का अंश...
कल रात भर
मैं तन्हा ही भटकता रहा
यादों के बियाबान जंगल में
जंगल भरा पड़ा था
खट्टी मीठी और कड़वी
यादों के पेड़ पौधों से
जंगल के बीचोंबीच उग आए थे
कुछ मीठे अनुभवों के विशालकाय दरख़्त
जो लदे पड़े थे मधुर एहसासों के फूलों-फलों से
बीच-बीच में उग आई थी
कड़़वे प्रसंगों की तीखी काँटेदार झाड़ियाँ
जिनके पास से गुज़रने पर
आज भी ताज़ा हो जाती है वो चुभन
और उछल पड़ता है दिल
मेरे एकदम सामने बैठी
जुगनुओं जड़ी चादर ओढ़े
मनमोहक, साँवली-सलोनी निशा
नींद की बोतल से भर भर
नैन कटोरे
पिलाती रही मुझे
रात रस
लेकिन मैं बहका नहीं
बढ़ता ही गया आगे
और आगे ।
जंगल में एक साथ
कईं दरख़्तों का सहारा ले
झुलती नन्हीं समृतियों की बेलें
पाँव से उलझ पड़ी अचानक
और मैं गिरते गिरते बचा !
जंगल ने पीछा नहीं छोड़ा मेरा
मैं भागना चाहता था
मैंने कईं बार छुपाया स्वयं को
रजाई में मगर जंगल था कि
उसके भी भीतर आ गया
उसने क़ैद करके रखा मुझे
सुबह होने तक ।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

कुछ कविताएँ - अश्वघोष
कविता का अंश..
सदियों से भूखी औरत
करती है सोलह शृंगार
पानी भरी थाली में देखती है
चन्द्रमा की परछाईं
छलनी में से झाँकती है पति का चेहरा
करती है कामना दीर्घ आयु की
सदियों से भूखी औरत
मन ही मन बनाती है रेत के घरौंदे
पति का करती है इन्तज़ार
बिछाती है पलकें
ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर
हर वक़्त गाती है गुणगान पति के
बच्चों में देखती है उसका अक्स
सदियों से भूखी औरत
अन्त तक नहीं जान पाती
उस तेन्दुए की प्रवृत्ति जो
करता रहा है शिकार
उन निरीह बकरियों का
आती रही हैं जो उसकी गिरफ़्त में
कहीं भी
किसी भी समय।
ऐसी ही अन्य प्रतिनिधि कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

सोमवार, 1 मई 2017
राधा का दर्द...
राधा का दर्द ....
कृष्ण और राधा स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दुसरे के सामने आ गए
विचलित से कृष्ण-
प्रसन्नचित सी राधा...
कृष्ण सकपकाए,
राधा मुस्काई
इससे पहले कृष्ण कुछ कहते
राधा बोल💬 उठी-
"कैसे हो द्वारकाधीश ??"
जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया
फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया
और बोले राधा से ...
"मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!
आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ
कुछ तुम अपनी कहो
सच कहूँ राधा
जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी..."
बोली राधा -
"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते
इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे
प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?
कुछ कडवे सच , प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?
कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?
एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर भरोसा कर लिया
और
दसों उँगलियों पर चलने वाळी
बांसुरी को भूल गए ?
कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी ?
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी
कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ ?
कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता
युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं
कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता
आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो
पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया ?
सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालाक होता है
उसका रक्षक होता है
आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
आपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी ?
क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे
आज भी धरती पर जाकर देखो
अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को
ढूंढते रह जाओगे
हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे
आज भी मै मानती हूँ
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है
मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं, i.
प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं
गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है,
पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" करते है".
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