शुक्रवार, 29 जुलाई 2011
पुलिसिया चेहरे की वीभत्स सच्चाई
डॉ. महेश परिमल
कहीं पढ़ा था कि आपका स्वभाव ही आपका भविष्य है। इस सारगर्भित वाक्य में एक बहुत ही बड़ी सच्चई छिपी है। हमारे देश की पुलिस का स्वभाव कैसा है, इसे हम सभी जानते हैं। इसके बाद ग्वालियर के जीआरपी थाने में एक युवक सुनील तोमर की हत्या से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे देश मंे पुलिसिया चेहरा आज भी बदशक्ल है। पुलिस विभाग में उमराव सिंह उइके और रामनरेश जैसे लोग बहुत ही कम है, जो अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनते हैं।
ग्वालियर के जीआरपी थाने में एक युवक की हत्या के बाद यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि पुलिस अपनी छवि सुधारने के लाख प्रयास करे, जब तक वह पुलिस वालो ंके भीतर से यह धारणा नहीं निकाल देती कि वे कानून से ऊपर हैं, तब तक कुछ भी होना संभव नहीं है। पुलिस आज भी स्वयं को कानून से ऊपर मानती है। उसने कभी भी अपने को आम आदमी का रक्षक नहीं माना। सदैव उसके शोषण ही किया। आज एक अपराधी से अधिक आम आदमी पुलिस से केवल इसलिए डरता है, क्योंकि उसे मालूम है कि पुलिस विभाग के एक अदने से सिपाही के पास भी असीमित अधिकार हैं। वह एक आम आदमी को तो आसानी से फँसा सकता है, पर किसी रसूखदार पर हाथ डालने पर वह उतना ही अधिक डरता है। यह बात अब पूरी तरह से स्पष्ट हो गई है कि वर्जिश से पुलिस अपनी चाल बदल सकती है, पर चेहरा नहीं बदल सकती।
ग्वालियार के जीआरपी थाने में एक युवक की बेरहमी से पीट-पीटकर मार डाला गया। चह चीखता रहा, चिल्लाता रहा, पर पुलिस वाले उसे तब तक मारते रहे, जब तक वह मर नहीं गया। फिर उसकी लाश को चंबल के घने जंगलों में फेंक दिया गया। यह पुलिस का एक ऐसा वीभत्स चेहरा है, जिसे हम सभी जानते-समझते हैं। सभ्य समाज के लिए यह चेहरा असामाजिक है। कोई भी अपने उत्सव में पुलिस की उपस्थिति को स्वीकार नहीं करता। क्योंकि पुलिस कानून की रक्षक के रूप में नहीं आती, वह तो रसूखदारों को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाली मानी जाती है। जिसे बचाना हो, उसे पुलिस आसानी से बचा भी लेती है, लेकिन जिसे फँसाना हो, उसे भी बहुत आसानी से फँसा देती है। पुलिस अत्याचार के किस्से हम सभी सुनते रहते हैं, पर बहुत कम ही ऐसे किस्से होते हैं, जिसमें पुलिस ने ईमानदारी का परिचय दिया हो। उमराव सिंह उइके और रामनरेश ने अपनी आँखों के सामने सुनील तोमर की हत्या देखी, वे चाहते तो खामोश रहकर अपनी बाकी जिंदगी बसर कर सकते थे। पर ईश्वर पर विश्वास रखने वालों की आत्मा जाग गई, उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी और उस हत्या के बारे में मीडिया को बता दिया।
हमारे कानून में अभी तक पुलिस की हद तय नहीं की गई है। यह सच है कि पुलिस को क्रूर बनना पड़ता है। आज जिस तेजी से अपराध बढ़ रहे हैं, उस तेजी से अपराधियों के हौसले बुलंद हो रहे हैं। पुलिस के पास आज भी अंग्रेजों के जमाने के हथियार हैं। जबकि अपराधी अत्याधुनिक हथियारों से लैस हो गए हैं। पुलिस के हौसले भी बुलंद हैं, पर उन्हें खुलकर काम करने का अवसर मिला ही नहीं। पुलिस का सबसे अधिक दुरुपयोग राजनीतिज्ञ करते हैं। वे इसे अपनी सुरक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। पुलिस जनता के रक्षक हैं, जनता के प्रतिनिधि के नहीं। कई बार मन मसोसकर पुलिस वाले अपनी डच्यूटी निभाते हैं। कई बार न चाहते हुए भी उन्हें वह काम करना पड़ता है, जिसे वे नहीं करना चाहते। आज पुलिसिया चेहरे की वीभत्स सच्चई से तो हर कोई वाकिफ है, पर उसके पीछे एक निस्पृह, लाचार, विवशता भरा चेहरा किसी ने देखने की कोशिश नहीं की। वह भी एक आम आदमी है। उसका भी परिवार है। यदि वह ईमानदारी से जीना चाहे, अपनी डच्यूटी करना चाहे, तो भी उसे ऐसा नहीं करने दिया जाता। लगातार डच्यूटी से कई बार वह डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। कई बार अपने ही साथियों या फिर अधिकारियों पर हिंसक रूप से सवार होकर उनका खून कर देता है। कई बार मुफ्त में मिलने वाली शराब का सहारा लेकर पत्नी-बच्चों को पीटकर अपना तनाव बाहर निकालता है। पुलिस के इस चेहरे से कितने लोग वाकिफ हैं?
पुलिस के उच्च अधिकारी भी ये स्वीकारते हैं कि हमारे साथी रसूखदारों पर हाथ डालने से घबराते हैं। इसकी वजह आज की राजनीति है। आज पुलिस किसी भी असामाजिक तत्व को गिरफ्तार करती है, तो तुरंत ही स्थानीय नेताओं के फोन आने लगते हैँ। उन पर दबाव डाला जाता है, उसकी रिहाई के लिए। आखिर ये दबाव डालने वालों का उस असामाजिक व्यक्ति से क्या संबंध है, इसे जानने की आवश्यकता नहीं। इन हालात में पुलिसवाला वही करता है, जो उसके अधिकारी चाहते हैं। उनके अधिकारी भी आईपीएस की परीक्षा पास करके आते हैं। शायद इस परीक्षा में ही किसी प्रकार की खोट है, जो उन्हें देश के खिलाफ काम करने वालों को संरक्षण देना सिखाती है। पुलिस और अंडरवर्ल्ड के संबंध बहुत ही पुराने हैं। इनके साथियों को बचाने के लिए पुलिस विभाग के पास काफी धन आता है। राज्य या देश की सीमाओं से लगे थानों की नीलामी होती है। पुलिसवालों का उठना-बैठना भी बड़े लोगों के बीच होता है। इनसे पुलिस वालों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है। पुलिसवालों पर जब कभी मुसीबत आती है, तो यही राजनेता ही उनकी सहायता करते हैं। ऐसे में पुलिसवालों का भी यह कर्तव्य बन जाता है कि वे आम आदमी को छोड़कर रसूखदारों की सेवा करें। आम आदमी से उन्हें कुछ नहीं मिलता। आम आदमी उन्हें केवल अपना आशीर्वाद ही दे सकता है। जिसकी पुलिसवालों को आवश्यकता ही नहीं। उन्हें तो चाहिए वह वरदहस्त, जो उन्हें नेतिक बल दे।
देश में ऐसे बहुत ही कम उदाहरण मिलेंगे, जिसमें अत्याचारी पुलिसवाले को सजा मिली हो। जिन्हें भी सजा मिली है, उन्होंने अत्याचार की सीमाएँ पार की, इसलिए वे धरे गए। अभी भी ऐसा बहुत कुछ रोज ही होता है, जो कानून के दायरे में नहीं आता। पुलिस वालों को मानवीयता का पाठ पढ़ाने से पहले उनके अधिकारियों का ब्रेनवॉश आवश्यक है। सुधार की प्रक्रिया ऊपर से ही होनी चाहिए। अपराधियों को पकड़ने के लिए क्रूरता नहीं, समझबूझ की आवश्यकता होती है, जो हमारे पुलिसवालों में नहीं है। उन्हें अपराधी से अधिक चालाक और होशियार होना होगा। अपराधियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए आम आदमी का सहारा लेना ही होगा। तभी वह अपराधियों तक पहुँच सकती है। इसलिए यदि पुलिस की छबि सुधारनी है, तो आम आदमी से मानवीयता, रसूखदारों से कठोरता और अपराधियों से क्रूरता से पेश आना होगा। यही सबक वह याद कर ले, तो वह सचमुच पुलिस धर्म निभा सकते हैं।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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