डॉ. महेश परिमल
अभी-अभ्री अखबारों में एक चित्र देखा, थाईलैंड में बाढ़ आई, लोगों में भागम-भाग मच गई। पूरा घर पानी पर तैरता दिखाई दे रहा था, बाहर का दृश्य तो और भी भयानक था। लोग अपने बच्चों को विभिन्न संसाधनों से बचाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में उनके बीच देश के प्रधानमंत्री भी पहुँच गए। वे भी अपनी पेंट मोड़कर बचाव दल के साथ राहत कार्य में जुट गए। क्या हमारे देश के लिए ऐसा दृश्य संभव है? कदापि नहीं। हमारे देश के मंत्रियों को बाढ़ का दृश्य हेलीकाप्टर में बैठकर ही देखना अच्छा लगता है। वे दूर से ही तबाही का आकलन कर लेते हैं। दूसरी और सुदूर छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले में मारे गए पुलिस के जवानों को एम्बुलेंस न मिल पाने के कारण उनके पार्थिव शरीर को नगर पालिका के कचरे ढोने वाले वाहन से पुलिस मुख्यालय पहुँचाया गया। शहीदों का ऐसा अपमान। वे जवान तो कोई अपने स्वार्थ के लिए नहीं लड़ रहे थे। उनका भी परिवार था, लेकिन वे उससे दूर होकर अपने कर्तव्य की राह पर चल रहे थे। ऐसे में वे यदि मारे गए, तो उनके पार्थिव शरीर के साथ ऐसा सलूक! ईश्वर न करे, क्या कभी किसी नेता या मंत्री का पार्थिव शरीर इस तरह से ले जाया जा सकता है? जहाँ शहीदों का सम्मान न होता हो, उस देश या राज्य को रसातल में जाने से कोई नहीं रोक सकता। जाँच का विषय यह भी हो सकता है कि क्या उन शहीदों के शव को तिरंगे में लपेटकर मुख्यालय लाया गया? यदि नहीं लाया गया है, तो यह शहीदों का अपमान है, यदि लाया गया है, तो तिरंगे का अपमान है। क्योंकि तिरंगे को कचरागाड़ी में नहीं रखा जा सकता?
कितने शर्म की बात है, जहाँ नेताओं की गाड़ियों के आगे-पीछे वाहनों का काफिला चलता हो, रास्ते जाम कर दिए जाते हों, नेताओं को सर-आँखों पर बिठाकर उन्हें हर तरह की सुविधाएँ दी जा रही हों, वहीं नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में मारे गए जवानों के पार्थिव शरीर को नगरपालिका की कचरा ढोने वाले वाहन से पुलिस मुख्यालय लाया जाए। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इसके पहले भी यही हालात सामने आए हैं। एक बात तो सच है कि जो देश या राज्य शहीदों की इज्जत नहीं करता, वह एक दिन रसातल में चला जाता है। जवान शहीदों के पार्थिव शरीर को कचरा गाड़ी में लाने की बात को छत्तीसगढ़ के कवि हृदय डीजीपी विश्वरंजन ने भी स्वीकार किया है। कोई यह बता सकता है कि देश के कितने नेताओं की संतान सेना में हैं?
यही राज्य है, जहाँ ढेर सारी कारों के साथ मुख्यमंत्री का काफिला चलता है। दो-तीन एकड़ की जमीन पर मुख्यमंत्री निवास होता है। 5 एकड़ की जमीन पर राजभवन होता है। दूसरी ओर टेंट में रहकर नक्सलियों का मुकाबला करने वाले जवानों को एक बोतल पानी के लिए 5 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है। एक मंत्री बीमार पड़ जाए, तो तुरंत ही उसके लिए विशेष विमान की व्यवस्था हो जाती है। डॉक्टरों की फौज तैयार हो जाती है। पर नक्सलियों से जूझने के लिए हमारे जवानों को बिना किसी तैयारी के भेज दिया जाता है। जवान नाहक ही मारे जाते हैं। उसके बाद भी उनका सम्मान नहीं हो पाता। परिजन उनके मृत शरीर के अंतिम दर्शन के लिए तरसते रहते हैं और सरकारी लापरवाहियों के चलते मृत शरीर भी समय पर नहीं पहुँच पाते। किस बात पर आखिर हम गर्व करें कि हमारी सरकार संवेदनशील है। विमान से बाढ़ का दृश्य देखने वाले और कारों के काफिले के साथ चलने वाले देश के कथित वीआईपी आज हमारे लिए सबसे बड़े सरदर्द बन गए हैं।
इस देश को जितना अधिक वीआईपी ने नुकसान पहुँचाया है, उतना तो किसी ने नहीं। कितने वीआईपी ऐसे हैं, जिन्होंने बस्तर के जंगलों में जवानों के साथ रात बिताई है? उनकी जीवनचर्या को दिल से महसूस किया है? उनकी पीड़ाओं को समझने की छोटी-सी भी कोशिश की है? उनके साथ भोजन कर उनके सुख-दु:ख में शामिल होने का एक छोटा-सा प्रयास किया है। सरकारी अफसर जाते तो हैं, पर रेस्ट हाउस तक ही सीमित रहते हैं। थोड़ी-सी भी असुविधा उनके लिए बहुत बड़ी पीड़ा बन जाती है। कितने अफसर हैं, जो जमीन से जुड़े हैं, जिन्हें आदिवासियों की तमाम समस्याओं की जानकारी है। उनका निराकरण कैसे किया जाए, इसके लिए उनके पास क्या उत्तम विचार हैं? जवानों को नक्सलियों के सामने भेज देना ठीक वैसा ही है, जैसे शेर के सामने बकरी को भेजना। अत्याधुनिक हथियारों से लैस नक्सलियों के सामने जंग खाई हुई आदिकाल की बंदूकें भला कहाँ तक टिक पाएँगी?
कितना आपत्तिजनक होता है वीआईपी का सफर? जब इनका काफिला चलता है, तो सारे कानून कायदों से ऊपर होकर चलता है। पुलिस के कई जवान इनकी सुरक्षा में होते हैं। इन्हें किसी तरह की तकलीफ न हो, इसलिए पूरे साजो-सामान के साथ इनका काफिला आगे सरकता है। इस दौरान किसी को न तो सुरक्षा जवानों की हालत पर किसी को तरस आता है और न ही उनकी पीड़ाओं पर कोई मरहम लगाता है। अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए उनका एक दौरा कितने के लिए त्रासदायी होता है, यह अभी तक किसी वीआईपी ने जानने की कोशिश नहीं की। ये वीआईपी शायद नहीं जानते कि समस्याओं को जानने के लिए आम आदमी बनना पड़ता है। आम आदमी बनकर ही अपनों की समस्याओं से वाकिफ हुआ जा सकता है। अपराधी को पकड़ने के लिए चुपचाप जाना पड़ता है, न कि चीखती हुई लालबत्ती गाड़ी में। ऐसे में अपराधी तो क्या उसका सुराग तक नहीं मिलेगा।
देश में जब सुरक्षा बलों की भर्ती होती है, तब उनसे तमाम प्रमाणपत्र माँगे जाते हैं, उनके शरीर का नाप लिया जाता है। उनके परिवार के लोगों की जानकारी ली जाती है। प्रशिक्षण के पहले कई परीक्षाएँ देनी होती हैं। इसके बाद गहन प्रशिक्षण का सिलसिला शुरू होता है। तब कहीं जाकर एक जवान तैयार होता है। लेकिन नक्सली बनने के लिए केवल एक ही योग्यता चाहिए, आपके भीतर पुलिस के खिलाफ कितनी ज्वाला है? इसी ज्वाला को वे लावा बनाते हैं? ताकि वह पुलिस वालों पर जब भी टूटे, लावा बनकर ही टूटे। यदि हमें नक्सलियों के खिलाफ जवान तैयार करने हैं, तो नक्सलियों द्वारा पीड़ित परिवार के सदस्यों को तैयार करना होगा। इनके भीतर की आग को बराबर जलाए रखना होगा, इनकी पूरी देखभाल करनी होगी। इस देखभाल करने में जरा भी चूक हुई कि वह नक्सलियों की शरण में चला जाएगा, फिर वहाँ उसका ऐसा ब्रेनवॉश होगा, जिससे उसे लगेगा कि उनके परिजनों को मारकर नक्सलियों ने ठीक ही किया।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि नक्सलियों के खिलाफ जिन्हें भी खड़ा करना है, पहले उसका विश्वास जीतें, फिर पूरे विश्वास के साथ उसे नक्सलियों के सामने भेजें, जवान को भी विश्वास होगा कि इस दौरान यदि मुझे कुछ हो जाता है, तो मेरे परिवार को समुचित सुविधा सरकार देगी। विश्वास की यह नन्हीं सी लौ जलती रहे, तो इसे विश्वास का सूरज बनते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल
बुधवार, 27 जुलाई 2011
शर्म आती है इस बेशर्मी पर
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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थाईलैंड के प्रधानमंत्री का कृत्य स्तुत्य है।
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