डॉ. महेश परिमल
पूरे विश्व में आज जिस तरह से बाजारवाद हावी है, उससे यही लगता है कि इस दुनिया में मजदूरों का कुछ काम ही नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि आज देश मजदूरों से पूरी तरह से खत्म हो गया है। पर सच है कि मजदूर आज एक श्रमिक के रूप में नहीं, बल्कि वह एक दूसरे ही रूप में हमारे सामने है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिसको मई दिवस के नाम से जाना जाता है, इसकी शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया और बाद में पुलिस फायरिंग में कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में जब फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, उसी वक्त से दुनिया के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा।
भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान में समाजवाद की आवाज कम ही सुनाई देती है। ऐसे हालात में मई दिवस की हालत क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। हम ऐतिहासिक दृष्टि से ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारे को देखें तो उस वक्त भी दुनिया के लोग दो खेमों में बंटे हुए थे। अमीर और गरीब देशों के बीच फर्क था। सारे देशों में कुशल और अकुशल श्रमिक एक साथ ट्रेड यूनियन में भागीदार नहीं थे। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सारे श्रमिक संगठन और इसके नेता अपने देश के झंडे के नीचे आ गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब सोवियत संघ संकट में था तब वहां यह नारा दिया गया कि मजदूर और समाजवाद अपनी-अपनी पैतृक भूमि को बचाएं। इसके बाद हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों में कल्याणकारी राज्य आया और मई दिवस का पुनर्जागरण हुआ।
अब दुनिया बदल चुकी है। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही पूंजीवाद का विकल्प दुनिया में खो गया। औद्योगिक उत्पादन का तरीका बदल गया। औद्योगिक उत्पादन तंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। एक साथ काम करना और एक जगह करना महज एक सपना रह गया। आजकल किताबें लिखी जा रही है काम का खात्मा। दुनिया में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थे। वह काम अब एक रोबोट कर लेता है। उदाहरण के लिए टाटा की नैनो फैक्टरी में 4 करोड़ रु. के निवेश पर एक नौकरी निकलती है। यह काम भी मजदूर के लिए नहीं बल्कि तकनीकी रूप से उच्च शिक्षित लोगों के लिए है। सिंगूर या नंदीग्राम में प्रदर्शन क्यों होता है? क्योंकि स्थानीय लोगों यह पता है कि हमारे लिए या हमारे बच्चों के लिए कुछ नहीं है। तकनीक ने लोगों की आवश्यकता को कम कर दिया। इससे साधारण लोगों की जमीन खिसक गई है। लोग बेरोजगार हैं, जिनके पास रोजगार है उसको यह डर सता रहा है कि कल यह कहीं छीन न जाए। आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों का हजारों नौजवान सड़क पर विरोध करते हैं लेकिन इस बुनियादी सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।
मजदूर हाशिए पर हैं। अब उनकी कोई बात नहीं करता। मजदूर कभी वोट बैंक नहीं माना गया, तो बदलते दौर में मजदूरों की जरूरत भी बदल गई। मजदूर किसे कहते हैं और मेहनतकश, यह भी अब लोगों को जानने की जरूरत नहीं रह गई है। इस बार जब मई दिवस मनाया जा रहा है, तब हिन्दुस्तान तख्तो-ताज का फैसला करने के लिए आमचुनाव के मुहाने पर खड़ा है। कभी इसी हिन्दुस्तान में मजदूरों के लिए, मेहनतकश लोगों के लिए राजनीतिक दल सडक़ पर उतर आते थे। आज किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में मेहनतकश के लिए कोई जगह नहीं है। उनके पास मुद्दे हैं तो धर्म और महंगाई की, वे चुनाव में वायदे करते हैं बेहतर जिंदगी की लेकिन बेहतर कौन बनाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि देश की आजादी के साथ ही मेहनतकश लोगों की उन्नति का जिम्मा कम्युनिस्टों के कंधे पर रहा है। आज जिस संख्या में राजनीतिक दल मैदान में हैं, तब वैसा नहीं था। कांग्रेस पर पूंजीवादी को प्रश्रय देने का कथित रूप से ठप्पा लगा था तो जनसंघ की पहचान अपने हिन्दूवादी सेाच को लेकर थी। तब माकपा हो या भाकपा या इनकी सोच से मेल खाते दल ही बार बार और लगातार मेहनतकश केपक्ष में खड़े होते दिखाई दिए हैं।
इस चुनाव में केवल औपचारिक रूप से माकपा हो या भाकपा का हस्तक्षेप है क्योंकि इस बार के चुनाव में मुद्दे नहीं, मौका भुनाने की होड़ है। जिस तरह प्रचार पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, वह कम से कम माकपा या भाकपा के बूते की बात तो है ही नहीं। जिस तरह से प्रचार का तरीका अपनाया गया है, वह भी माकपा या भाकपा के बूते में नहीं है। कभी इस देश में पूंजीवाद के खिलाफ सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष था लेकिन अब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद के बीच संघर्ष है। तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसी, की भी बात नहीं हो रही है, बल्कि बात हो रही है कि तेरे पास सौ करोड़ तो मेरे पास 99 करोड़ क्यों? जब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद मैदान में होगा तो सर्वहारा वर्ग का क्या काम? उसके लिए तो महात्मा गांधी के नाम पर रोजगार की गारंटी दी जा रही है। साल में सौ दिन काम करेगा और इस सौ दिन की कमाई से पूरे 365 दिन अपने परिवार को पेट भरेगा। यह सर्वहारा वर्ग की नियति है, लेकिन पूंजीपति हर मिनट में लाखों कमाएगा और उसके कमाने के लिए 365 दिन भी कम पड़ जाएंगे।
आज की पीढ़ी को यह पता भी नहीं होगा कि आखिर मजदूर दिवस होता क्या है। वह तो आयातीत डे मनाने में विश्वास रखती है। जिसमें ऐसे अनेक डे हैं, जो कल की पीढ़ी को नागवार अवश्य गुजरेंगे। सर्वहारा शब्द भी अब शब्दकोश से दूर होता जा रहा है। रुस क्रांति को कोई याद ही नहीं करना चाहता। दिन भर कड़ी मेहनत कर शाम को डेढ़-दो सौ रुपए लेकर घर आने वाला इंसान अपने परिवार को क्या खिलाए, यह सोच अब खत्म होने लगी है। गरीब और गरीब, लेकिन अमीर और अमीर होता जा रहा है। एक लम्बी खाई बन गई है, मजदूरों और मालिकों के बीच। इस पर सेतू बनाने का काम अब बंद हो गया है। अब न तो मजदूर संगठनों की बात सुनी जाती है, न ही मजदूरों की हड़ताल होती है। कारखाने चल रहे हैें, उनकी चिमनियों से धुआं निकल रहा है, पर कोई नहीं कहता कि दुनिया के मजदूरों एक हो, इंकलाब जिंदाबाद।
डॉ. महेश परिमल
पूरे विश्व में आज जिस तरह से बाजारवाद हावी है, उससे यही लगता है कि इस दुनिया में मजदूरों का कुछ काम ही नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि आज देश मजदूरों से पूरी तरह से खत्म हो गया है। पर सच है कि मजदूर आज एक श्रमिक के रूप में नहीं, बल्कि वह एक दूसरे ही रूप में हमारे सामने है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जिसको मई दिवस के नाम से जाना जाता है, इसकी शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय शुरू हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो। इस हड़ताल के दौरान एक अज्ञात व्यक्ति ने बम फोड़ दिया और बाद में पुलिस फायरिंग में कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में जब फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, उसी वक्त से दुनिया के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा।
भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान में समाजवाद की आवाज कम ही सुनाई देती है। ऐसे हालात में मई दिवस की हालत क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। हम ऐतिहासिक दृष्टि से ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारे को देखें तो उस वक्त भी दुनिया के लोग दो खेमों में बंटे हुए थे। अमीर और गरीब देशों के बीच फर्क था। सारे देशों में कुशल और अकुशल श्रमिक एक साथ ट्रेड यूनियन में भागीदार नहीं थे। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सारे श्रमिक संगठन और इसके नेता अपने देश के झंडे के नीचे आ गए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब सोवियत संघ संकट में था तब वहां यह नारा दिया गया कि मजदूर और समाजवाद अपनी-अपनी पैतृक भूमि को बचाएं। इसके बाद हम देखते हैं कि पश्चिमी देशों में कल्याणकारी राज्य आया और मई दिवस का पुनर्जागरण हुआ।
अब दुनिया बदल चुकी है। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही पूंजीवाद का विकल्प दुनिया में खो गया। औद्योगिक उत्पादन का तरीका बदल गया। औद्योगिक उत्पादन तंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। एक साथ काम करना और एक जगह करना महज एक सपना रह गया। आजकल किताबें लिखी जा रही है काम का खात्मा। दुनिया में सबसे बड़ा परिवर्तन यह आया है कि जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थे। वह काम अब एक रोबोट कर लेता है। उदाहरण के लिए टाटा की नैनो फैक्टरी में 4 करोड़ रु. के निवेश पर एक नौकरी निकलती है। यह काम भी मजदूर के लिए नहीं बल्कि तकनीकी रूप से उच्च शिक्षित लोगों के लिए है। सिंगूर या नंदीग्राम में प्रदर्शन क्यों होता है? क्योंकि स्थानीय लोगों यह पता है कि हमारे लिए या हमारे बच्चों के लिए कुछ नहीं है। तकनीक ने लोगों की आवश्यकता को कम कर दिया। इससे साधारण लोगों की जमीन खिसक गई है। लोग बेरोजगार हैं, जिनके पास रोजगार है उसको यह डर सता रहा है कि कल यह कहीं छीन न जाए। आईएमएफ और विश्व बैंक की नीतियों का हजारों नौजवान सड़क पर विरोध करते हैं लेकिन इस बुनियादी सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है।
मजदूर हाशिए पर हैं। अब उनकी कोई बात नहीं करता। मजदूर कभी वोट बैंक नहीं माना गया, तो बदलते दौर में मजदूरों की जरूरत भी बदल गई। मजदूर किसे कहते हैं और मेहनतकश, यह भी अब लोगों को जानने की जरूरत नहीं रह गई है। इस बार जब मई दिवस मनाया जा रहा है, तब हिन्दुस्तान तख्तो-ताज का फैसला करने के लिए आमचुनाव के मुहाने पर खड़ा है। कभी इसी हिन्दुस्तान में मजदूरों के लिए, मेहनतकश लोगों के लिए राजनीतिक दल सडक़ पर उतर आते थे। आज किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में मेहनतकश के लिए कोई जगह नहीं है। उनके पास मुद्दे हैं तो धर्म और महंगाई की, वे चुनाव में वायदे करते हैं बेहतर जिंदगी की लेकिन बेहतर कौन बनाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि देश की आजादी के साथ ही मेहनतकश लोगों की उन्नति का जिम्मा कम्युनिस्टों के कंधे पर रहा है। आज जिस संख्या में राजनीतिक दल मैदान में हैं, तब वैसा नहीं था। कांग्रेस पर पूंजीवादी को प्रश्रय देने का कथित रूप से ठप्पा लगा था तो जनसंघ की पहचान अपने हिन्दूवादी सेाच को लेकर थी। तब माकपा हो या भाकपा या इनकी सोच से मेल खाते दल ही बार बार और लगातार मेहनतकश केपक्ष में खड़े होते दिखाई दिए हैं।
इस चुनाव में केवल औपचारिक रूप से माकपा हो या भाकपा का हस्तक्षेप है क्योंकि इस बार के चुनाव में मुद्दे नहीं, मौका भुनाने की होड़ है। जिस तरह प्रचार पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, वह कम से कम माकपा या भाकपा के बूते की बात तो है ही नहीं। जिस तरह से प्रचार का तरीका अपनाया गया है, वह भी माकपा या भाकपा के बूते में नहीं है। कभी इस देश में पूंजीवाद के खिलाफ सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष था लेकिन अब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद के बीच संघर्ष है। तेरी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसी, की भी बात नहीं हो रही है, बल्कि बात हो रही है कि तेरे पास सौ करोड़ तो मेरे पास 99 करोड़ क्यों? जब पूंजीवाद के खिलाफ पूंजीवाद मैदान में होगा तो सर्वहारा वर्ग का क्या काम? उसके लिए तो महात्मा गांधी के नाम पर रोजगार की गारंटी दी जा रही है। साल में सौ दिन काम करेगा और इस सौ दिन की कमाई से पूरे 365 दिन अपने परिवार को पेट भरेगा। यह सर्वहारा वर्ग की नियति है, लेकिन पूंजीपति हर मिनट में लाखों कमाएगा और उसके कमाने के लिए 365 दिन भी कम पड़ जाएंगे।
आज की पीढ़ी को यह पता भी नहीं होगा कि आखिर मजदूर दिवस होता क्या है। वह तो आयातीत डे मनाने में विश्वास रखती है। जिसमें ऐसे अनेक डे हैं, जो कल की पीढ़ी को नागवार अवश्य गुजरेंगे। सर्वहारा शब्द भी अब शब्दकोश से दूर होता जा रहा है। रुस क्रांति को कोई याद ही नहीं करना चाहता। दिन भर कड़ी मेहनत कर शाम को डेढ़-दो सौ रुपए लेकर घर आने वाला इंसान अपने परिवार को क्या खिलाए, यह सोच अब खत्म होने लगी है। गरीब और गरीब, लेकिन अमीर और अमीर होता जा रहा है। एक लम्बी खाई बन गई है, मजदूरों और मालिकों के बीच। इस पर सेतू बनाने का काम अब बंद हो गया है। अब न तो मजदूर संगठनों की बात सुनी जाती है, न ही मजदूरों की हड़ताल होती है। कारखाने चल रहे हैें, उनकी चिमनियों से धुआं निकल रहा है, पर कोई नहीं कहता कि दुनिया के मजदूरों एक हो, इंकलाब जिंदाबाद।
डॉ. महेश परिमल
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अक्षय तृतीया और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएं