संवेदनाओं के पंख / दिव्य-दृष्टि
साहित्य का अनमोल खजाना हिंदी पॉडकास्ट के रूप में
गुरुवार, 20 मार्च 2025
प्रकृति का राग पतझड़ हमारे लिए एक सीख

शनिवार, 15 मार्च 2025
बचपन को जीने का दिन है होली

शुक्रवार, 31 जनवरी 2025
...और मौत कुचलते हुए निकल गई...
हम सब उत्सवप्रेमी हैं। उत्सव मनाना हमें अच्छा लगता है। उत्सव के लिए हमें चाहिए व्यक्ति और इससे अपने आप ही जुड़ जाता है शोर। जैसे ही एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मिलता है, तो खामोशी वहां से विदा ले लेती है। रह जाता है केवल शोर। यह व्यक्तियों के आपस में मिलने का एक उपक्रम है। कहा गया है कि भीड़ के पास विवेक नहीं होता। भीड़ में केवल सिर ही होते हैं। इनसे किसी अच्छी चीज की कल्पना ही नहीं करनी चाहिए। यही कारण है कि आज जहां देखो, वहां भीड़ है। ये भीड़ कुछ भी कर सकती है। क्योंकि ये व्यक्तियों की नहीं, बल्कि अज्ञानियों की भीड़ होती है। अज्ञानी कहीं भी कुछ भी कर अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकते हैं। यही प्रदर्शन आजकल कई स्थानों पर देखा जा रहा है। इस बार हमने देखा और जाना कि किस तरह से आस्था का सैलाब उमड़ा, भक्ति के रंग में रमा भीड़ तंत्र एक बार फिर मौत का सामना करता हुआ दिखाई दिया। लोगों को कुचलते हुए निकल गई मौत। बेबस इंसान कुछ नहीं कर पाया। प्रबंधन वह भी ई प्रबंधन के सारे प्रयास निष्फल साबित हुए। भीड़ नाम की मौत आई और शायद 30 लोगों को लील गई। कई घायल हैं, जो इलाज के लिए अस्पतालों में कैद हैं। इसके पहले भी देश में भीड़ तंत्र ने कई बार तबाही मचाई है। इस बार भी वही हुआ, जिसका अंदेशा था। आखिर भीड़ में कहां चली जाती है इंसानियत? भीड़ में व्यग्रता होती है। उतावलापन दिखाई देता है। धैर्य से इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। इसलिए धक्का-मुक्की भीड़ के लिए साधारण-सी बात है।

गुरुवार, 30 जनवरी 2025
एंबुलेंस की स्टीयरिंग पर क्विक कॉमर्स का हाथ
क्विक कॉमर्स की घोषणा और हमारी मानसिकता
हाल ही में क्विक कॉमर्स ने घोषणा की है कि उसके कदम अब अब एम्बुलेंस सेवा के क्षेत्र की ओर बढ़ रहे हैं। वह सूचना मिलने के दस मिनट के भीतर मरीज तक पहुंच जाएगी। इस घोषणा से त्वरित सेवा के कई परिदृश्यों में बदलाव आएगा, यह तय है। इसके बारे में कुछ जानने के पहले यह जान लें कि आखिर यह क्विक कामर्स है क्या? क्यू-कॉमर्स, जिसे क्विक कॉमर्स भी कहा जाता है, एक प्रकार का ई-कॉमर्स है, जिसमें आमतौर पर एक घंटे से भी कम समय में त्वरित डिलीवरी पर जोर दिया जाता है। क्यू-कॉमर्स मूल रूप से खाद्य वितरण के साथ शुरू हुआ था और यह अभी भी व्यवसाय का सबसे बड़ा हिस्सा है। यह विशेष रूप से किराने की डिलीवरी, दवाओं, उपहारों और परिधान आदि के लिए अन्य श्रेणियों में तेजी से फैल गया है।
आखिर क्विक कामर्स को एम्बुलेंस सेवा के क्षेत्र में आने की जरूरत क्यों पड़ी? इसके पेीछे हमारे देश में होने वाली सड़क दुर्घटनाएं हैं। जिसमें हर साल लाखों लोग अपनी जान गंवाते हैं। इनमें से 50 प्रतिशत वे लोग होते हैं, जिन्हें तुरंत चिकित्सा सुविधा मिल जाती, तो उनकी जान बच सकती थी। अब यदि आंकड़ों पर नजर डालें, तो हमें पता चलेगा कि 2022 में सड़क दुर्घटनाओं में 1 लाख 70 हजार 924 लोग काल-कवलित हुए। लोग बार-बार कहते हैं कि यदि 108 समय पर पहुंच जाती, तो दुर्घटना के शिकार व्यक्तियों की जान बच सकती थी। एम्बुलेंस पर यह आरोप लगाया बहुत ही आसान है। इस पर केवल ऊंगलियां ही उठती हैं। इनकी नजर से भी एक बार हालात को देख लिया जाए, तो हमें शर्म भी आने लगेगी। खैर सरकारी एम्बुलेंस के अलावा प्राइवेट अस्पतालों की भी एम्बुलेंस होती हैं, जो सेवा के लिए हमेशा तत्पर रहती हैं।
अब जब कंपनी यह दावा कर रही है कि वह दस मिनट के भीतर मरीज तक पहुँच जाएगी, तो आश्चर्य होता है। सबसे पहले तो हमारे देश की सड़कें, उसके बाद वह मानसिकता, जिसमें हम सब कैद हैं। आज जहां समय पर पहुंचकर भी फायर ब्रिगेड अपना काम सही तरीके से नहीं कर पा रही है, उसके पीछे हमारी ओछी मानसिकता ही है। छोटी-तंग गलियां, उस पर अतिक्रमण, जहां किसी तरह से वाहन का निकल जाना ही बहुत बड़ी बात है। ऐसे में एक एम्बुलेंस किस तरह से सही समय पर मरीज तक पहुँच पाएगी। यह एक बहुत बड़ा सवाल है।
आज जब हम सड़कों पर चलते हैं, तो एम्बुलेंस को जगह देने के बजाए अपना वाहन और तेजी से चलाने लगते हैं। एम्बुलेंस को अनदेखा करते हुए अपने बाजू वाले साथी से बात करना नहीं छोड़ते। साथी के साथ समानांतर अपना वाहन चलाते रहते हैं। ऐसे में एम्बुलेंस दुर्घटनास्थल के काफी करीब होने के बाद भी मरीज के पास समय पर कैसे पहुंच पाएगी, यह भी एक बड़ा सवाल है। यातायात नियमों को जानते हुए भी उसे तोड़ने में हमें मजा आता है। हममें 5 सेकेंड का भी सब्र नहीं है। लाल लाइट बुझने के पहले ही हम अपना वाहन आगे बढ़ा देते हैं। यदि हम हरी लाइट का इंतजार करें, तो पीछे के वाहनों के हार्न तेजी से बजने लगते हैं। ऐसे में हम कैसे कह दें कि एम्बुलेंस को जगह देकर उसे आगे बढ़ने में मदद करेंगै?
सबसे पहले हमें अपनी मानसिकता को बदलना होगा। सभी काम आसानी से पूरे हो सकते हैं, यदि हममें थोड़ा-सा भी घैर्य हो। हममें धैर्य नहीं है। यातायात किे नियमों को ताक पर रखकर हम अपना वाहन चलाते हैं। पकड़े जाने पर खुद के रसूखदार होने का सबूत देते फिरते हैं। किसी भी दृष्टि से हमें आम आदमी बनना ही नहीं आता। हमेशा वीआईपी होने का लबादा ओढ़े रखना चाहते हैं। इसके विपरीत यदि उनके सामने वास्तव में कोई वीआईपी आ जाए, तो घिग्घी बंध जाती है। कोई सरफिरा अफसर ही मिल जाए, तो सारी हेकड़ी भूल जाते हैं। केवल 40-50 रुपए के टोल टैक्स के लिए कर्मचारियों से हुज्जत करने वाले बहुत से लोग मिल जाएंगे। 50 रुपए टिप देना अपनी शान समझने वालों के लिए 50 रुपए टोल टैक्स देना बहुत मुश्किल लगता है।
इन हालात में कोई यह घोषणा करे कि हमारी एम्बुलेंस दस मिनट में दुर्घटनास्थल पर पहुंच जाएगी, तो यह कपोल-कल्पित लगता है। विशेषकर हमारी ओछी मानसिकता के चलते।
हमारे देश में सभी चाहते हैं कि सारी बातें व्यवस्थित हों, कोई भी अव्यवस्था न हो। पर व्यवस्था के चलते अव्यवस्थित होना हमें अच्छी तरह से आता है। एयरपोर्ट के बाहर हम अपने हाथ का कचरा कहीं भी फेंक सकते हैं, लेकिन एयरपोर्ट में प्रवेश के बाद हम उसी कचरे को फेंकने के लिए डस्टबिन तलाशते हैं। ये कैसी मानसिकता? इस दृष्टि से देखा जाए, तो हमारे भीतर एक अच्छा इंसान है, पर हम ही इसे बाहर नहीं निकालना चाहते। संभव है, हालात ही उस इंसान को बाहर नहीं आने देते होंगे। कुछ भी कहो, हमारे भीतर का अच्छा इंसान बाहर आ ही नहीं पाता। हम ही उसे दबोचकर रखते हैं। इस बीच हमारे बीच में से कोई यातायात के नियमों का पूरी तरह से पालन करता दिखाई देता है, तो हम उसे मूर्ख समझते हैं। यह समझ उस समय काफूर हो जाती है, जब वही चालान के जूझता नजर आता है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आज हमें कानून से खिलवाड़ करने में हमें कोई गिला नहीं होता। जिस दिन हम यह समझने लगेंगे कि आज ग्रीन लाइट होने के 5 सेकेंड पहले हमें अपना वाहन आगे नहीं बढ़ाना था, तो यह सोच धीरे-धीरे पल्लवित होगी और आगे भी बड़ी सोच का कारण बनेगी। 20 से 50 सेकेंड लगते हैं, लाल को ग्रीन होने में। इस बीच यदि आजू-बाजू के साथी को थोड़ी-सी मुस्कराहट देकर तो देखो, कितना अच्छा लगता है? उसे भी और आपको भी। संभव है कुछ समय बाद वह आपका सच्चा साथी बन जाए। मुस्कराहट देने से हमारा कुछ जाएगा नहीं, पर सामने वाले का दिन अवश्य ही अच्छा जाएगा। यह तय है। एक बार अपनी मुस्कराहट देकर तो देखो...नवजीवन आपका प्रतीक्षा कर रहा है।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 25 जनवरी 2025
मतदाता दिवस-दाता होकर भी गरीब

सोमवार, 20 जनवरी 2025
चीनी मांझे से टूटती जिंदगी की डोर

रविवार, 29 दिसंबर 2024
हमारी सक्रियता-उनकी चालाकी

ऐसी धमकियों को कैसे रोका जाए?

मंगलवार, 6 अगस्त 2024
आखिर टूटा झूठ का मायाजाल

सोमवार, 15 जुलाई 2024
दान को दान ही रहने दें, तमाशे की जरूरत नहीं

शुक्रवार, 28 जून 2024
मिथक तोड़ती बेटियाँ

रविवार, 2 जून 2024
बुलडोजर अफसरों के घरों पर भी चले

बुधवार, 20 मार्च 2024
एक संजीवनी की तरह है "फिर"

रविवार, 21 जनवरी 2024
जय राम जी की, के भीतर छिपी अदृश्य भावना
आसान है राममय होना, मुश्किल है राम होना
डॉ. महेश परिमल
आजकल पूरे देश में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में राम की ही चर्चा है। विश्व भले ही राममय नहीं हो पाया हो, पर देश पूरी तरह से राममय हो गया है। सोशल मीडिया के केंद्र में राम ही हैं। राम के बिना अब कुछ भी संभव नहीं है। राम ही हमारे जीवन का आधार हैं, राम ही हमारी जीवन नैया को पार लगाएंगे। अखबारों की बात ही न पूछो, वे तो राम पर श्रृंखलाबद्ध कुछ न कुछ लिख रहे हैं। अखबार का शायद ही कोई पन्ना हो, जिसमें राम की चर्चा न हो। यहां चर्चा का विषय राम नहीं, बल्कि राममय होना है। क्योंकि राममय होना तो बहुत ही आसान है, पर राम होना उससे भी अधिक मुश्किल है। बहुत अंतर है राम में और राम का होने में।
कुछ दिनों पहले अपने जन्म स्थान जाना हुआ। 44 साल पहले जिस शहर को छोड़ दिया हो, वहां जाना यानी एकदम नई पीढ़ी के सामने होना। पुरानी पीढ़ी तो न जाने कब की चल बसी। आज वहां जो भी मिलता है, उसे अपना परिचय अपने पिता या भाई के नाम से नहीं देना होता है। उसे अपने भाई के बच्चों का चाचा बताना होता है, तब वह पीढ़ी पहचान पाती है। ऐसे में कहीं भी चले जाएं, भले ही सामने वाला हमें न पहचानता हो, पर एक बात तय है, वह अपनी तरफ से जय राम जी की अवश्य कहता है। प्रत्युत्तर में हम हाथ उठाकर वही वाक्यांश दोहरा देते हैं। शहरों में ऐसा नहीं होता, गांवों में होता है। शहरों ने अब चालाकी सीख ली है। गांव के लोग अभी भी भोले-भाले हैं। शहर में जब किसी का किसी से कोई लेना-देना ही नहीं है, तो काहे को बोलें-जय राम जी की। हाथ उठाने की भी जहमत क्यों उठाएं? गांव में कोई अनजाना दिख जाए, तो हाथ खुद ब खुद उठ जाता है, मुंह से निकल ही आता है...जय राम जी की।
आखिर ऐसा अभिवादन क्यों? क्या है राम में? शायद इसका आशय यही है कि मैं आपके भीतर के राम को प्रणाम करता हूं। मतलब यही है कि हम सबके भीतर राम हैं। हम सब उसे जगाने का प्रयास करते रहते हैं। आप क्या करते हैं, इससे हमें कोई मतलब नहीं, हम तो आपके राम को अपने भीतर के राम से परिचय करवाते हैं और बोल उठते हैं...जय राम जी की। आप क्या करके आए हैं, आप क्या करने जो रहे हैं, हम तो कुछ भी नहीं जानते, आप सामने आए और हमने कह दिया..जय राम जी की। आखिर इस राम में ऐसा क्या है, जो सबके भीतर बसते भी हैं और बाहर दिखाई भी नहीं देते। वास्तव में राम के कार्य ही हैं, जो हमें उसका परिचय देते हैं। कष्टों को भी अपने अनुकूल बनाकर जो सब कुछ निभा ले जाए, वह है राम। विषम परिस्थितियों को भी सरल बना दे, वह है राम। बड़ी से बड़ी विपदा में शांत चित्त होकर धैर्य के साथ उनका मुकाबला करने की क्रिया है राम। क्या हममें है, उतनी सहनशक्ति या सहज भाव से सब कुछ ग्रहण करने की क्षमता?
नहीं, ऐसा संभव भी नहीं है। हमारे राम तो हमारे कार्य के साथ नहीं होते। न ही वे हमारे विचारों के साथ होते हैं। वे होते हैं, टीवी पर घंटों तक भाषण करने वाले हमारे तथाकथित साधु-संतों के पास। जो सादा जीवन जीने की बात तो करते हैं, पर अपने वाणी-विलास की फीस लाखों में लेते हैं। उनकी तथाकथित कैमरे के सामने लगनी वाली भीड़ भी दिखावे का मुखौटा लगाकर आती है। बस किसी तरह हम कैमरे में आ जाएं, ताकि लोग हमें देख सकें। हमारे शालीन होने का नाटक देखें, हमारे सुंदर वस्त्रों को देखें। फिर बाद में वे हमारे वस्त्र, हमारे नाटक और हमारी प्रशंसा में कुछ कहें।
आजकल समाज में दिखावे के राम अधिक हैं। वरण करने वाले राम नहीं के बराबर। यहां पर हम देख रहे हैं कि राममय होना कितना आसान है। पर राम बनना कितना मुश्किल है। हममें से कौन ऐसा होगा, जिसे सुबह राजा होना है, वह सुबह होने के पहले ही वनवासी बनकर जंगलों में जाने का साहस रखता हो। यहीं है, राम बनने का दुर्गम रास्ता। राम जैसी सादगी पाने के लिए भी काफी संघर्ष करना होता है, उसके बाद भी हम उनके पांव की धूल के बराबर भी नहीं हो पाते। आज स्वार्थ और दिखावे की दुनिया में राममय होना बहुत ही आसान हो गया है, पर राम बनकर दुर्गम रास्ता चुनना बहुत दुरुह है।
जय राम जी की, कहकर हम सब परस्पर अपने राम को जगाते हैं। राम जागें या न जागें, पर हमारा प्रयास उन्हें जगाने का अवश्य होता है। आज की दुनिया में राम जाग भी नहीं सकते। क्योंकि दुनिया दिखावे की है। जो दिखावे के लिए होता है, वह क्षणभंगुर होता है। दिखावा यानी झूठ का आलीशान महल। सच की झोपड़ी में यह इमारत नहीं समा सकती। सच झोपड़ी में ही सुशोभित होता है। यह महलों में तब सुशोभित होगा, जब वहां भीतर के राम जागते हुए पाए जाएंगे।
...तो जय राम जी की कहकर, हम सब अपने-अपने राम को परिचय स्वयं से करते हैं। हम सब जय राम जी की, बोलते रहेंगे, हमारे राम हम पर प्रसन्न होते रहेंगे। राम का प्रसन्न होना हमें यह बताता है कि आज हमसे कोई न कोई अच्छा कार्य होना है। बिना किसी तामझाम, मीडिया, या कैमरे वाले को सूचना दिए। अच्छे काम का चुपचाप होना ही राम बनने की पहली सीढ़ी है। ऐसे राम बहुत ही कम मिलते हैं। कहना यह होगा कि मिलते ही नहीं है। वे लोग कुछ अच्छा करने जाएं, उसके पहले ही मीडिया को सूचना मिल जाती है। अच्छा करने के लिए अच्छा सोचना होता है। अच्छा सोचना सदैव यह सूचना देता है कि यह बात किसी को भी पता न चले। आपने अच्छा काम कर दिया, उसकी सूचना किसी को नहीं मिली, तो यही मौन ही आपको संतुष्टि देगा। आपके भीतर के राम को बहुत ही प्यार से निहारेगा। हम सब ऐसे ही राम को निहारते रहें, अच्छे काम करते रहें, यही कामना...जय राम जी की...
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 13 जनवरी 2024
संकल्पों के टूटते तटबंध

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