मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

एक वर्ष में डेढ़ लाख मौतें सड़कों पर



डॉ. महेश परिमल
हमारे देश की सड़कों पर वाहनों के रूप हत्यारे दौड़ते हैं। ये हत्यारे हर घंटे 14 लोगों को मार डालते हैं। आँकड़ों के आधार पर आगे बढें़, तो स्पष्ट होगा कि एक वर्ष में डेढ़ लाख लोग सड़कों पर दुर्घटनाओं के दौरान मारे जाते हैं। इतनी अधिक मौतें तो जापान जैसे आपदा वाले देश में भी नहीं होती। हाल ही जापान में आए सूनामी के दौरान भी इतनी मौतें नहीं हुई, जितनी हमारे यहाँ सड़कों पर हो जाती है। यदि हमारे देश के नागरिकों में यातायात के नियमों का सख्ती से पालन करने की प्रवृत्ति जागे, तो इसमें कमी आ सकती है।
आँकड़ों पर ध्यान दें, तो यह बात सामने आई कि 2009 में सड़क दुर्घटनाओं में एक लाख 35 हजार लोगों ने अपनी जान गवाँ दी। इनमें से अधिकांश की उम्र 5 वर्ष से 29 वर्ष के बीच है। सड़कों पर दौड़ने वाले हत्यारों ने पिछले वर्ष हमारे देश में एक लाख 18 हजार लोगों के प्राण लिए थे। इस बार इसमें 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दिनों-दिन इसमें वृद्धि होते ही जा रही है। ऐसा क्यों होता है? क्या वाहन चालक अधीर बन गए हैं, या उनमें अनुशासन की भावना ही खत्म हो गई है? क्या वह यातायात नियमों की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान समझते हैं? क्या शराब पीकर वाहन चलाने वालों की संख्या बढ़ रही है? क्या पैदल चलने वालों की अपेक्षा वाहन चालकों की संख्या बढ़ गई है? क्या यातायात पुलिस अपने कर्तव्य वहन में पीछे रह गई है? ऐसे बहुत से सवाल हैं, जो जवाब के इंतजार में हैं, पर जवाब कौन दे?
विश्व में सड़क दुर्घटनाओं में सबसे अधिक मौतें हमारे ही देश में होती हैं। यह आघातजनक है। किसी भी देश के विकास में सड़कों का महत्वपूर्ण योगदान है। सड़कों की हालत को बेहतर से बेहतर बनाए रखने के लिए विश्व के सभी देश एक मोटी राशि खर्च करते हैं। इसके अलावा सड़कों की सुरक्षा पर भी काफी खर्च करते हैं। हमारे देश में भी ऐसा ही हो रहा है। सड़कों पर काफी खर्च होने के बाद भी सड़क दुर्घटनाएँ बढ़ रहीं हैं, तो इसका मतलब यही हुआ कि कहीं कुछ गड़बड़ है। हाल ही में यूनो का एक सर्वेक्षण सामने आया है। जिसमें यह कहा गया है कि 2021 में सबसे अधिक मौतें सड़क दुर्घटनाओं से ही होगी। वैसे इसके बहुत से कारण हैं। इसे हम सभी बहुत ही अच्छी तरह से समझते हैं, फिर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। सबसे बड़ी बात है कि आज शहरों के फुटपाथों पर ठेले खड़े होने लगे हैं। दुर्घटनाओं का यह सबसे महत्वपूर्ण कारण है। इसके पीछे कारण यही है कि सरकार की नीयत साफ नहीं है। सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती। यदि चाहती भी है, तो छुटभैये नेता उसे ऐसा नहीं करने देते। आखिर यह वोट का मामला जो है।

दूसरी ओर शराब पीकर वाहन चलाने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। इसमें हम ही सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रखना चाहते। कहा जाता है कि जो सोया है, उसे तो उठाया जा सकता है, लेकिन जो जागा हुआ है, उसे कैसे जगाया जाए? कानून तोड़ना हमारे लिए आज एक मजाक बनकर रह गया है। पालक बनकर हमें अपने बच्चों के नन्हें हाथों पर वाहन देकर गर्व का अनुभव करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि ऐसा करके हमने कानून को अपने हाथ में लिया है। एक गलत हाथों पर वाहन का होना यह दर्शाता है कि वह कई मौतों का वायज बन सकता है।

यहाँ यह बात ध्यान देने लायक है कि यूरोपीय देशों की तुलना में हमारे देश के शहरों में वाहनों संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। शहरों में एक परिवार में तीन वाहनों का होना अब आम बात है। जितने सदस्य उतने वाहन। दिल्ली में 50 लाख वाहन हैं। इसमें रोज डेढ़ सौ वाहनों की वृद्धि रही है। इतने अधिक वाहनों को अपने भीतर समाने की क्षमता दिल्ली शहर में नहीं है। यही हाल मुंबई ही नहीं,बल्कि अन्य शहरों का है। इसके अलावा आज लोगों में इतना अधिक उतावलापन आ गया है कि एक सेकेंड की देर भी उन्हें बर्दाश्त नहंीं। इसलिए वे अपने वाहन को तेज और तेज करना चाहते हैं। तेज वाहन चलाने वाले यह भूल जाते हैं कि अगले ही मोड़ पर मौत उनका इंतजार कर रही होती है। दूसरी ओर आजकल लोग मोबाइल पर बातें करते हुए वाहन चलाने लगे हैं। यह भी मौत का एक कारण है। मोबाइल पर बात करते हुए वाहन चलाने वाला अपनी जान तो गँवाता ही है, बल्कि दूसरों की मौत का भी कारण अनजाने में बन जाता है।
सड़क दुर्घटनाओं में ऐसे कई लोग हैं, जो निर्दोष होते हुए भी कई बार घायल हो जाते हैं। ऐसे लोगों की संख्या काफी अधिक है, जो विकलांग होकर अपना जीवन ढोने को विवश हैं। हम मौतों पर अधिक ध्यान देते हैं, पर दुर्घटनाओं में घायल होने वालों को छोड़ देते हैं, जिनकी हालत जिंदा लाश की तरह होती है। सरकारी मशीनरी मुस्तैदी से अपना काम करे, उन पर कोई राजनीतिक दबाव न हो, यातायात पुलिस भी ईमानदारी दिखाए, और हम कानून की धज्जियाँ उड़ाने में अपनी शान न समझें, तो संभव है कि हम सड़क पर दौड़ने वाले इन हत्यारों पर लगाम कस सकते हैं। कहीं न कहीं से शुरुआत तो करनी ही होगी।
डॉ. महेश परिमल

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