महेश परिमल
आतंकवादी अजमल कसाब को आखिर फांसी दे
दी गई, लेकिन इससे यह समझना भूल होगी कि आतंकवाद खत्म हो गया। कसाब खत्म हुआ है,
आतंकवाद नहीं। अभी अफजल गुरु जिंदा है। इसके अलावा ऐसे कई आतंकवादी जिंदा हैं, जो
या तो जेल में हैं या फिर अपने घर में ही जयचंद बनकर रह रहे हैं। जो जेल में हैं,
उनका अंजाम तय है, पर जो घर के भीतर हैं, ऐसे लोग अधिक खतरनाक हैं। हमारे
न्यायतंत्र की प्रक्रिया को देखकर ऐसा नहीं लगता कि कसाब को फांसी के बाद आतंकवादी
हमारी न्याय व्यवस्था से डरेंगे। अब आतंकवादी यह अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि
भारत में किसी भी प्रकार की आतंकी कार्रवाई की भी जाए तो उसका फैसला देर से होता है
और उस पर अमल होने में तो और भी देर होती है। कसाब जब तक जिंदा था, तो पाकिस्तानी
राजनीति का प्यादा था, लेकिन मरने के बाद वह भारतीय राजनीति का प्यादा बन गया है।
संसद का शीतकालीन सत्र, गुजरात का विधासभा चुनाव, एफडीआई पर विपक्ष का हावी होना,
इस बात का परिचायक है कि आखिर सरकार को यही करना था, तो चार साल तक इंतजार क्यों
किया? क्या यही जल्दबाजी अफजल गुरु के लिए नहीं दर्शाई जा सकती थी? कसाब तो सर पर
कफन बांधकर मरने के लिए ही आया था, उसे तो मरना ही था। पर उसे जिंदा रखने के लिए जो
30 करोड़ रुपये खर्च हुए, उसका क्या? काफी लोग जानते होंगे कि जेल में बंद
आतंकवादियों पर हमारे देश का कितना धन बर्बाद हो रहा है। 26/11 के दौरान जो
आतंकवादी हमारे देश में घुस आए थे, कसाब को छोड़कर सभी मारे गए थे। इन आतंकवादी की
लाशें कई महीनों तक सुरक्षित रखी गई थीं, जिस पर करोड़ों रुपये खर्च हो हुए। कसाब
के इलाज पर भी लाखों रुपये खर्च हुए। कहा तो यह भी जाता है कि कसाब की सुरक्षा और
उसके खाने-पीने के इंतजाम में जितना धन खर्च हुआ है, उतना तो 26/11 के दौरान शहीद
हुए लोगों को मुआवजे के रूप में भी नहीं मिला है। क्या यह शर्म की बात नहीं है कि
इस देश में वीरों से अधिक सम्मान तो आतंकवादियों-अपराधियों को मिलता है।
आतंकवादियों को दी जाने वाली सुविधा के सामने सीमा पर तैनात हमारे जांबाजों को
मिलने वाली सुविधा तो बहुत ही बौनी है। आखिर आतंकवादी हमारे लिए इतने अधिक
महत्वपूर्ण क्यों होने लगे? अफजल की बारी कब हमें गर्व होना चाहिए शहीद नानक चंद की
विधवा गंगा देवी के जज्बे पर, जिन्होंने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र
लिखकर कहा है कि अफजल गुरु को उन्हें सौंप दिया जाए। अगर सरकार में हिम्मत नहीं है
तो वह उसे फांसी दे देगी। गंगा देवी पर हमें इसलिए भी गर्व करना चाहिए कि उन्होंने
पति के मरणोपरांत मिलने वाला कीर्ति चक्र भी लौटा दिया। उनका कहना था कि अफजल को
फांसी दिए जाने तक वे कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगी। एक शहीद की विधवा को और क्या
चाहिए। लोग न्याय की गुहार करते रहते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। पर एक शहीद की
विधवा यदि प्रधानमंत्री से न्याय की गुहार करे तो क्या उसे भी इस देश में न्याय
नहीं मिलेगा? वर्ग भेद की राजनीति में उलझी देश की गठबंधन सरकार से किसी प्रकार की
उम्मीद करना ही बेकार है। शहीद की विधवाओं की गुहार संसद तक पहुंचते-पहुंचते अनसुनी
रह जाती है। जहां वोट की राजनीति होती हो, वहां कुछ बेहतर हो भी नहीं सकता। शहीद
नानक चंद की विधवा ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है, मनमोहन सिंह जी अगर
आपकी सरकार में अफजल गुरु को फांसी देने की हिम्मत नहीं है या आपको जल्लाद नहीं मिल
रहे तो यह काम आप मुझे सौंप दें। मैं शहीद की पत्नी हूं। देश के खिलाफ आंख उठाने
वाले को क्या सजा दी जाए, मुझे और मेरे परिवार को मालूम है। मैं संसद के 13 नंबर
गेट पर जहां मेरे पति शहीद हुए थे, वहीं अफजल को फांसी दूंगी। राठधाना गांव में
अपने घर पर शहीद पति की प्रतिमा के सामने बैठी गंगा देवी ने कहा कि हमले के 11 साल
बाद भी अफजल और उसके सभी साथी सुरक्षित हैं। देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और
क्या हो सकती है? देश के हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के दुश्मनों को
देश के भीतर ही कौन शह दे रहा है? क्यों पनप रहा है आतंकवाद? हमारे ही आंगन में कौन
बो रहा है आतंकवाद के बीज? देश के दुश्मनों से सीमा पर लड़ना आसान है, लेकिन देश के
भीतर ही छिपे दुश्मनों से लड़ना बहुत मुश्किल है। आतंकी और भी वर्ष 2001 में संसद
पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहर
लगने के सात साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है, जबकि 2000 में दिल्ली के लालकिले में
घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी
मोहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अब तक अदालती कार्रवाई जारी है। वर्ष 2005 में छह
अन्य आरोपियों समेत आरिफ को दोषी मानते हुए ट्रॉयल कोर्ट ने उसे फांसी की सजा
सुनाई। 2007 में हाईकोर्ट ने अन्य आरोपियों को बरी करते हुए आरिफ के खिलाफ फांसी की
सजा बरकरार रखी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है। इसी तरह 2002 में
गुजरात स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर 31 लोगों को मौत के घाट उतारने वाले लश्कर
आतंकियों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। वर्ष 2005 में
दीपावली के ठीक दो दिन पहले यानी धनतेरस पर दिल्ली के बाजारों में, 2006 में बनारस
के संकटमोचन मंदिर और उसी साल मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट करने वाले
आतंकियों को सजा मिलने में अभी सालों लग सकते हैं, जबकि इन आतंकी हमलों में 300 से
अधिक लोग मारे गए थे। खुफिया विभाग (आइबी) के पूर्व प्रमुख और विवेकानंद फाउंडेशन
के निदेशक अजीत डोवाल का मानना है कि आतंकवाद से सबसे अधिक पीडि़त होने के बावजूद
भारत आतंकियों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने में विफल रहा है। अजमल कसाब को जब फांसी
की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने
के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे
यह स्पष्ट हो गया कि कई राजनीतिक शक्तियां अफजल गुरु को बचाने में लगी हुई हैं। यह
बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं? अब तो यह
भी साबित हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदेखा किया, उन सभी को
पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई राजनीतिक शक्तियां अफजल गुरु को बचाने में
लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला भी तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और
क्या हो सकती है? इसे समझते हुए उधर अफजल गुरु यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से
बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फांसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी
उसका एक पैंतरा है। लेकिन इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने
में केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी उंगली उठ रही
है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों हैं इतने लाचार हमारे
राष्ट्रपति!
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)