शनिवार, 24 नवंबर 2012

बाला साहब के न होने का मतलब?

डॉ. महेश परिमल
लगता है मुम्बई में इस समय यमराज ने डेरा ही डाल दिया है। दारासिंह, राजेश खन्ना, ए.के. हंगल, यशराज चोपड़ा की विदाई हो गई। प्रसिद्ध खलनायक और चरित्र अभिनेता प्राण और अभिनेता शशिकपूर अस्पताल में हैं। उधर बाल ठाकरे के अवसान से मुम्बई मानो निस्तेज हो गई है। रविवार को लोग दिन भर टीवी पर बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा एवं अंत्येष्टि का दृश्य देखते रहे। एक तरफ टीवी पर फिल्म ओ माइ गॉड आ रही थी, तो दूसरी तरफ बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा में 20 लाख लोगों का जनसैलाब देखकर लोग ओ माइ गॉड कह रहे थे। सोमवार को भी पूरी मुम्बई में बंद जैसा ही माहौल था। सभी के मुंह पर बाल ठाकरे की शानदार विदाई की ही चर्चा थी। सुबह जब अस्थि कलश लेने उद्धव ठाकरे गए, तब उनके साथ राज ठाकरे नहीं थे, इसी सभी ने नोटिस किया। लोग अब यह मानकर चल रहे हैं कि अभी ग्यारह दिनों तक दोनों भाई मौन ही रहेंगे। उसके बाद दोनों के राजनैतिक संबंध किस दिशा में जाएंगे, यह देखने में आएगा। यह दिशा शिवसेना की दुर्दशा होगी या फिर नई दिशा। इसके लिए कुछ समय तक राह देखनी होगी।
राजनैतिक सत्ता को ठोकर मारने वाले बाल ठाकरे को लोग नेता नहीं,बल्कि देवता मानते थे। विवादों से कभी नहीं डरने वाले बाल ठाकरे भले ही सत्ता का कोई सिंहासन स्वीकार न किया हो, पर वे जिस सिंहासन पर बैठे थे, वह सिंहासन लोगों को किंग बनाता था। लोग उन्हें किंग मेकर भी कहते थे। देश भर के नेता, खासकर एनडीए के नेताओं की कतारें, बॉलीवुड की हस्तियां एवं कापरेरेट क्षेत्र के अनेक गणमान्य लोग उनकी अंत्येष्टि में शामिल होकर स्वयं को गोरवान्वित समझ रहे थे। बाल ठाकरे में महाराष्ट्र को बिजनेस राज्य बना दिया। आज मुम्बई लोगों का ध्यान आकृष्ट करती है। जिस तरह से दिल्ली राजनीति के नाम से पहचानी जाती है, उसी तरह से मुम्बई बिजनेस के नाम से पहचानी जाती है। बाल ठाकरे को दी गई अंतिम विदाई एक श्रद्धाभरी विदाई थी। जिसमें सभी गमगीन थे। लोगों के मन में एक ही सवाल अब गूंजने लगा है कि इसके बाद कौन? पर जब लोगों ने उद्धव और राज को एक साथ बातचीत करते देखा, तो सभी को यही लगा कि अब दोनों भाई और करीब आ जाएंगे। यह सच है कि मुम्बई बाल ठाकरे के इशारे पर चलती थी। बाल ठाकरे की प्रसिद्धि में कांग्रेस का भी हाथ रहा है।  शिवसेना को खिलने देने में कांग्रेस का हाथ रहा है। इसकी वजह यही थी कि महाराष्ट्र ट्रेड यूनियन की पकड़ में था, कांग्रेस की शह पर बाल ठाकरे ने ऐसी चाल चली कि ट्रेड यूनियन का वर्चस्व खत्म हो गया, उसके बाद उद्योगपति राज्य के उद्योग मंत्रालय से अधिक संबंध मातोश्री से रखने लगे थे।
बाल ठाकरे लोगों की भावनाओं को समझते थे। लोगों को वे सच्चई से वाकिफ कराते थे। नागरिक क्या समझते हैं, क्या नहीं समझती, इसकी चिंता किए बिना वे अपनी बेलाग वाणी से अपने विचारों को अभिव्यक्ति दिया करते थे। वे एक ऐसे नेता थे, जिन्हें गुंडे को गुंडा कहना और सत्ता लोलुप नेताओं को दलाल कहने में कोई गुरेज नहीं था। बेलाग वाणी उनकी पहचान बन गई थी, उनके बयानों का एक राजनैतिक वजन भी होता था। उन्होंने पूरी जिंदगी कांग्रेस को वंशवाद आगे बढ़ाने के लिए कोसा, भरपूर लताड़ा भी, पर वे स्वयं भी इसी वंशवाद के पोषक रहे। पहले बेटे उद्धव ठाकरे, फिर पोते आदित्य को अपना वारिस बनाया था। उत्तर भारत के लोग उन्हें कभी नहीं भाते थे,पर अमिताभ बच्चन उन्हें मुम्बईवासी लगते। एक समय ऐसा भी था, जब नारायण राणो जैसे लोग स्वयं को बाल ठाकरे का चौथा बेटा बताते थे, वही राणो उद्धव के साथ छोटी सी तकरार में उनसे काफी दूर हो गए।  इसे एक संयोग ही कहा जाएगा कि इधर इस्लामिक आतंकवाद ने सर उठाया और उधर शिवसेना का उदय हुआ। शाहबानो विवाद और बाबरी ध्वंस जैसी घटनाओं के बाद शिवसैनिकों को एक नया प्लेटफार्म मिला। हिंदुत्व को लेकर कांग्रेस का रवैया नरम रहा, वहीं दूसरी और भाजपा का रवैया आक्रामक रहा। भाजपा की इस कट्टरता के कारण महाराष्ट्र में शिवसेना को उभरने का अवसर मिला। कुछ ही समय बाद पूरे महाराष्ट्र पर शिवसेना का ही कब्जा हो गया। आतंवादियों को प्रोत्साहन देने वाले पाकिस्तान को बाल ठाकरे बुरी तरह से लताड़ते और उससे सभी राजनैतिक संबंध तोड़ लेने की मांग करते। महाराष्ट्र केवल मराठियों के लिए ही है, अपनी इस हुंकार के बाद ही वे लोगों के हृदय सम्राट बन गए। हाल ही में जब क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने कहा था कि मैं मराठी होने के पहले भारतीय हूं, तो इसका विरोध करने में शिवसेना पीछे नहीं रही।
अब हालात बदल गए हैं, बाल ठाकरे नाम का ब्रांड अब शिवसेना के पास नहीं है, इसलिए इस पार्टी के सामने अस्तित्व का खतरा मंडराने लगा है। राजनीति से 13 साल तक दूर रहने के बाद अब शिवसेना में राजनैतिक विचारधारा का असर नहीं है। बाल ठाकरे के साथ ही अब शिवसेना के अस्त होने की चर्चा चल पड़ी है। इसका अंदाजा उद्धव ठाकरे को हो गया था। मुंबई में आयोजित म्युनिसिपल कापरेरेशन के चुनाव में उन्होंने कहा था कि अब हमारी पार्टी का मुख्य मुद्दा भावनाएं जगाने वाले नहीं होंगे, अब हम विकास की बात करेंगे। इस समय उद्धव का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता है। राज ठाकरे पहले ही अपनी पार्टी बना चुके हैं। इस परिस्थितियों में अब शिवसेना की कमान किसके हाथों में सौंपी जाए, यह आज का यक्ष प्रश्न है। राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने प्रांतवाद और मुस्लिम आतंकवाद का मुद्दा उठाकर शिवसेना का ही विकल्प बनने का प्रयास किया, किंतु उसे कोई सफलता नहीं मिली। शिवसेना में पार्टी के भीतर किसी प्रकार के चुनाव की प्रथा नहीं है। इस कारण पार्टी के कर्मठ नेता हाशिए पर चले गए हैं। छगन भुजबल, संजय निरुपम, नारायण राणो जैसे लोग इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं। भाजपा से भी पार्टी के संबंध अब उतने उष्मावान नहीं रहे। आपीआई जैसी पार्टी के साथ समझौता कर शिवसेना ने दलितों का दिल जीतने की एक कोशिश की है। पर बाल ठाकरे के नहीं होने के बाद अब यह समझौता रंग लाएगा, ऐसा कहा नहीं जा सकता। इन हालात में यही कहा जा सकता है कि बाला साहब ठाकरे के न रहने पर पार्टी को मजबूती से थामकर रखने का माद्दा अब किसी में नहीं है। इतने अधिक विरोधाभासों के बाद भी बाल ठाकरे के व्यक्तित्व मे कुछ तो ऐसा था, जो उन्हें अन्य नेताओं से अलग रखता था। अपने बयान से न फिरने वाले बाल ठाकरे अपनी वाणी के बल पर लोगों के दिलों पर राज करते रहे। जाते-जाते वे यह भी बता गए कि लोग उनसे भले ही डरते भी हों, पर उनकी अंत्येष्टि में शामिल होकर लोग स्वयं को गोरवान्तित समझते रहे। उमड़ते जनसैलाब में सभी की आंखें नम थी, पर किसी चेहरे पर आक्रोश नहीं था, यह थी बाल ठाकरे की उपलब्धि!
  डॉ. महेश परिमल

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