बुधवार, 28 नवंबर 2012

फिर सचिन के पीछे पड़े आलोचक




दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2012-11-28&pageno=9#id=111755925932623736_49_2012-11-28
 
फिर सचिन के पीछे पड़े आलोचक
 महेश परिमल 
इन दिनों सचिन तेंदुलकर हूट हो रहे हैं। उन पर संन्यास के लिए दबाव बन रहा है। मीडिया में इस विषय पर बहस भी शुरू हो गई है। सचिन के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। 19 मार्च 2006 में भी मुंबई के उसी वानखेड़े स्टेडियम में सचिन तेंदुलकर ने इंग्लैंड के खिलाफ टेस्ट में जब 21 बॉल पर मात्र एक ही रन बनाया था, तब दर्शकों ने उन्हें काफी हूट किया था। ये वही प्रशंसक थे, जो कभी सचिन की उपलब्धियों पर पलक पांवड़े बिछाकर उसका स्वागत करते थे। लेकिन थोड़ा-सा प्रदर्शन ठीक नहीं हुआ कि लोगों का नजरिया ही बदल गया। दरअसल, उच्च स्थान पर बिठाए जाने वालों पर लोगों की अपेक्षाएं बढ़ती जाती हैं। अपेक्षाएं अनंत होती हैं, वह कभी भी पूरी नहीं की जा सकतीं। इसलिए जिनका स्थान ऊंचा होता है, उन्हें इस स्थिति के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। पूरे गुजरात में श्वेत क्रांति लाने वाले डॉ. वर्गीज कुरियन का भी यही हाल हुआ। लोगों की जो अपेक्षाएं उनसे थी, वह पूरी नहीं हो पा ही थीं। इसलिए उन्हें हटना पड़ा। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके अनुभव आज भी काम आ रहे हैं। जिन्हें नागरिकों ने अपने विचार के लायक समझा, जिन्हें सम्मान के साथ एक ऊंचे स्थान पर बिठाया, जिनसे अपनी भावनाएं जोड़ी, जिनके हाथों में एक सपना दिया, वे ही जब उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो पाते, तब दिल में एक ठेस लगती है। फिर चाहे वह फिल्म का क्षेत्र हो या फिर खेल की दुनिया। सचिन तेंदुलकर के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे अपने खेल कौशल से बरसों से लोगों को लुभाते रहे हैं। उन्होंने अपने खेल के आगे अपना देश रखा। इसलिए कई कीर्तिमान उनके नाम हो गए। अब उनके लिए ऐसा समय आ गया है, जब लोगों को लगा कि उनका खेल अब अधिक निजी हो गया है। अब वे देश के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए खेल रहे हैं। बस यहीं से शुरू हो गया उपेक्षा का भाव। महान खिलाड़ी सचिन ही नहीं, बल्कि वेस्टइंडीज की ओर से खेल चुके ब्रायन लारा भी कुछ इसी तरह के दौर से गुजर चुके हैं। संभव है वे भी कहीं न कहीं हूट के शिकार हुए होंगे। लोगों के सामने अगर एक बार अच्छा कर दिया जाए तो फिर वे उसी तरह की अपेक्षाएं पाल लेते हैं। सचिन तेंदुलकर अपने खेल कैरियर के शुरुआती दिनों में लगातार लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतरते रहे। कई बार तो लोगों ने उनसे शतक की उम्मीद लगाई थी तो वे उससे भी बढ़कर डेढ़ से दो सौ रन बनाए। केवल रन ही नहीं बनाए, बल्कि विकेट भी लिए। उनके सामने कई बार ऐसे दौर आए, जब बाहरी लोगों ने उन पर कटाक्ष किए। उस स्थिति का सामना उन्होंने बड़ी ही शिद्दत के साथ किया। उन्होंने कहा कुछ नहीं, अपने खेल से ही लोगों की बोलती बंद हो गई। वे कुछ नहीं बोले, उनका बल्ला बोला। पिछले कुछ पारियों में सचिन बोल्ड क्या हुए, मीडिया और खेल विशेषज्ञों ने उनको नसीहतें देनी शुरू कर दी। बड़े ओहदों पर बैठने वालों को यही सोचना चाहिए कि लोग जब सिर आंखों पर बिठाते हैं, उसे हीरो बनाते हैं तो उसे ही जीरो बनाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखते। यह भी सच है कि अनंत अपेक्षाओं को हमेशा पूरा किया भी नहीं जा सकता। इसलिए समय रहते अपने आप को दूर कर लेना चाहिए। ऐसा भी समय आएगा, जब भारतीय टीम अच्छा प्रदर्शन न कर पाए तो लोग यही कहेंगे कि इस समय यदि सचिन होते तो ऐसा नहीं होता। आज भारतीय टीम के लिए सचिन एक खिलाड़ी नहीं, बल्कि एक संबल के रूप में हैं। उनका होना ही प्रतिद्वंद्वी टीम के लिए एक चुनौती है। उनके होने से ही अन्य खिलाड़ी को भी अपना प्रदर्शन और बेहतर करने की प्रेरणा मिलती है, पर कुछ युवा खिलाडि़यों के आ जाने से लोगों का ध्यान सचिन से हटने लगा है। अब सचिन उनकी आंखों के तारे नहीं रहे। कई बार जब घर का युवा हार जाता है तो एक बुजुर्ग का हाथ उसके सिर पर आता है, आवाज आती है, बेटे तुम आगे तो बढ़ो, हमारा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। बुजुर्ग का यही कहना ही युवा को उत्साह से लबरेज कर देता है। शायद इसीलिए लोग कहते हैं कि बुजुर्गो का आशीर्वाद लेते रहना चाहिए। गर्दिश के दिनों से हर किसी को गुजरना होता है। यही दिन होते हैं, जब लोग अपना विश्लेषण करते हैं, अपने भीतर की शक्ति को रिचार्ज करते हैं। ऊर्जा का कोई नया विकल्प तैयार करते हैं। इन्हीं दिनों की ऊर्जा को संचित किया जाए और निकला जाए नई ऊर्जा और नई स्फूर्ति के साथ। देखो पलक-पांवड़े बिछाकर लोग किस तरह से तैयार खड़े हैं। 
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
 



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