डॉ. महेश परिमल
अजमल कसाब को आखिर फांसी दे दी गई। इससे यह समझना भूल होगी कि आतंकवाद ही खत्म हो गया। कसाब खत्म हुआ है आतंकवाद नहीं। अभी अफजल गुरु जिंदा है। इसके अलावा ऐसे कई आतंकवादी भी जिंदा हैं, जो या तो जेल में हैं या फिर अपने घर में ही जयचंद बनकर रह रहे हैं। जो जेल में हैं, उनका अंजाम तय है, पर जो घर के भीतर हैं, ऐसे लोग अधिक खतरनाक हैं। इसे छद्म आतंकवाद की संज्ञा दी जा सकती है। बहुत ही खतरनाक होता है यह छद्म आतंकवाद। इसमें आतंकवादी अलग से दिखाई नहीं देता, वह हमारे ही बीच हमारी तरह रहकर आतंकवादी कार्य करता है। कसाब की फांसी के बाद यह तय है कि पाकिस्तान खामोश नहीं बैठेगा। उसके पास अभी सरबजीत की याचिका है, जिसे वह खारिज कर फांसी की सजा मुकर्रर कर सकता है। कसाब की प्रतिक्रिया में सरबजीत की फांसी तय है। पाकिस्तानी प्रेजिडेंट आसिफ अली जरदारी के कार्यालय की मानें तो कसाब की मौत का असर सरबजीत पर होने वाले फैसले पर पड़ सकता है। सूत्रों का मानना है कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान सरकार कसाब की मौत का बदला सरबजीत की क्षमा याचिका को खारिज कर के लेगी। आज सहायक पुलिस इंस्पेक्टर शहीद बाला साहब भोसले की आत्मा को शांति मिली होगी। उसके बेटे ने कहा है कि मुझे लगता है कि हमारी दिवाली आज शुरू हुई। मेरी मां अब चैन की नींद सो पाएंगी। जिसने मेरे बाबा को मुझसे छिन लिया, उसे सरेआम फांसी देनी चाहिए थी।
कसाब को फांसी से भी बड़ी कोई सजा है, तो वह उसे दी जानी थी। वह एक दरिंदा था, जो लोगों को तड़पता और मरता देखकर खुश होता था। वह एहसानफरामोश था, जो भला करता है, उसी की हत्या करने में भी देर नहीं करता था। सवाल यह उठता है कि आखिर हम आतंकवादियों को क्यों पालते हैं? अफजल गुरु ही नहीं, ऐसे बीस आतंकी हमारे देश में हैं, जिनका गुनाह तो सिद्ध हो चुका है, सजा भी हो चुकी है, पर हम उन्हें सजा नहीं दे पा रहे हैं। फांसी से भी बड़ी कोई सजा हो सकती है क्या? आज हर तरफ 26/11 के आतंकी आमिर अजमल कसाब को दी दी गई फांसी की चर्चा है। इस सजा से कई सवाल और खड़े हो गए हैं। आज देश का बच्चा-बच्चा यही चाहता है कि फांसी से भी बड़ी कोई सजा है, तो वह कसाब को मिलनी चाहिए थी। क्योंकि कसाब के लिए फांसी तो बहुत ही छोटी सजा है। उसने जो अपराध किया है, वह दरिंदगी की सीमाओं को पार करता है। करोड़ों भारतीयों की भावनाओं का यदि सम्मान किया जाए, तो कसाब को सजा देने के लिए जितना समय लगा, उससे भी कम समय में उसे फांसी हो जानी चाहिए थी। कसाब को फांसी की सजा से यह संदेश जाना चाहिए कि अब भविष्य में कोई भी आतंकी अपने काम को अंजाम देने के पहले सौ बार सोचे।
कसाब को लेकर जो सबसे अधिक चिंता की बात है, वह यह कि कसाब को फांसी देने में आखिर इतना वक्त कैसे लग गया? क्या हमारी न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि देश के दुश्मन को भी सजा देने में इतना समय लगाया जाए। सच्चा न्याय तो वही होता है, जो समय पर मिले। देर से मिलने वाले न्याय का कोई महत्व नहीं होता। संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाने में बरसों बीत गए, इसके बाद भी वह जिंदा है। उसे फांसी पर लटकाने में केंद्र सरकार सांसत में है। वह इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। जब यह बात जोर-शोर से उठी कि अफजल को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है, तो सरकार का कहना था कि अफजल गुरु के आगे फांसी की सजा पाने वाले करीब 20 लोग और भी हैं। जब अफजल की बारी आएगी, तो उसे फांसी दे दी जाएगी।
कसाब को फांसी की सजा होना यह अंत नहीं है। फिर कोई आतंकवादी ऐसी हिम्मत न कर पाए, यह कोशिश होनी चाहिए। ऐसे हमले निष्फल हो जाएं, इसकी मंशा भी सजा में होनी चाहिए। होना तो यह भी चाहिए कि अब अगर पड़ोसी देश से आतंकवादी हमारे देश में घुसते हैं, तो उन्हें इस बात का डर होना चाहिए कि यदि यहां पकड़े गए, तो वह जिंदगी मौत से भी बदतर होगी। लेकिन हमारे न्यायतंत्र की प्रRिया को देखकर ऐसा नहीं लगता कि आतंकवादी हमारी न्याय व्यवस्था से डरेंगे। अब आतंकवादी यह अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि भारत में किसी भी प्रकार की आतंकी कार्रवाई की भी जाए, तो उसका फैसला देर से होता है और उस पर अमल होने में तो और भी देर होती है। तब तक जिंदगी के पूरे मजे ले लो।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इन आतंकवादियों पर हमारे देश का कितना धन बरबाद हो रहा है। 26/11 के दौरान जो आतंकवादी हमारे देश में घुस आए थे, कसाब को छोड़कर सभी मारे गए थे। इन आतंकवादी की लाशें कई महीनों तक सुरक्षित रखी गई थीं, जिस पर करोड़ों रुपए खर्च हो हुए। कसाब के इलाज पर भी लाखों रुपए खर्च हुए। इन लोगों पर देश का जितना धन खर्च हुआ है, उतना तो 26/11 के दौरान मारे गए लोगों को मुआवजे के रूप में नहीं मिला है। हमे शर्म आनी चाहिए कि इस देश में वीरों से अधिक सम्मान तो आतंकवादियों को मिलता है। आतंकवादियों को दी जाने वाली सुविधा के सामने सीमा पर तैनात हमारे जांबाजों को मिलने वाली सुविधा तो बहुत ही बौनी है। आखिर आतंकवादियों हमारे लिए इतने अधिक महत्वपूर्ण क्यों होने लगे? कसाब को मौत से पहले मिली वाली तमाम सुख-सुविधाओं को देखते हुए आम युवाओं में यही संदेश जाएगा कि देश का सैनिक बनने से तो बेहतर है, आतंकवादी बनना। मौत कितनी भी भयानक हो, पर जिंदगी तो बहुत ही खुशगवार होगी। युवाओं की इसी तरह की सोच के ही कारण आज देश के युवा भटक रहे हैं। देश के लिए सबसे शर्म की बात तो तब सामने आई, जब सेना में भर्ती के लिए सरकार ने विज्ञापन प्रकाशित किए। यह विज्ञापन नहीं, देश के युवाओं में जमे हुए रक्त का हस्ताक्षर है। आज कोई युवा सेना में जाना ही नहीं चाहता। यह देश का दुर्भाग्य है। एक सैनिक जितना अपनी पूरी जिंदगी में कमाता है, उससे कई गुना तो एक नेता एक महीने में ही कमा लेता है।
शहीद की विधवा के जज्बे को सलाम!
हमें गर्व होना चाहिए शहीद नानक चंद की विधवा गंगा देवी के जज्बे पर। जिसने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि अफजल गुरु को उन्हें सौंप दे। ताकि सरकार में यदि हिम्मत नहीं है, तो वह उसे फांसी दे देगी। गंगा देवी पर हमें इसलिए भी गर्व करना चाहिए कि उसने पति के मरणोपरांत मिलने वाला कीर्ति चR भी लौटा दिया। उनका कहना था कि अफजल को फांसी दिए जाने तक वे कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगी। एक शहीद की विधवा को और क्या चाहिए। लोग न्याय की गुहार करते रहते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। पर एक शहीद की विधवा यदि प्रधानमंत्री से न्याय की गुहार करे, तो क्या उसे भी इस देश में न्याय नहीं मिलेगा? वर्ग भेद की राजनीति में उलझी देश की गठबंधन सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद करना ही बेकार है। शहीद की विधवाओं की गुहार संसद तक पहुंचते-पहुंचते अनसुनी रह जाती है। जहां वोट की राजनीति होती हो, वहां कुछ बेहतर हो भी नहीं सकता।शहीद की विधवा ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है ‘मनमोहन सिंह जी अगर आपकी सरकार में अफजल गुरु को फांसी देने की हिम्मत नहीं है, यदि आपको जल्लाद नहीं मिल रहे तो आप यह काम मुझे सौंप दें। मैं शहीद की पत्नी हूं, देश के खिलाफ आंख उठाने वाले को क्या सजा दी जाए, मुझे और मेरे परिवार को मालूम है।’ ‘मैं संसद के 13 नंबर गेट पर जहां मेरे पति शहीद हुए थे वहीं अफजल को फांसी दूंगी।’ राठधाना गांव में अपने घर पर शहीद पति की प्रतिमा के सामने बैठी गंगा देवी ने कहा कि हमले के 11 साल बाद भी अफजल और उसके सभी साथी सुरक्षित हैं। देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है?’ देश के हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के दुश्मनों को देश के भीतर ही कौन शह दे रहा हे? क्यों पनप रहा है आतंकवाद? हमारे ही आंगन में कौन बो रहा है आतंकवाद की फसल? देश के दुश्मनों से सीमा पर लड़ना आसान है, पर देश के भीतर ही छिपे दुश्मनों से लड़ना बहुत मुश्किल है।
अफजल की बारी कब?
2001 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहर लगने के 7 साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है। जबकि 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तोयबा के आतंकी मोहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अब तक अदालती कार्रवाई जारी है। 2005 में छह अन्य आरोपियों समेत आरिफ को दोषी मानते हुए ट्रायल कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई। 2007 में हाईकोर्ट ने अन्य आरोपियों को बरी करते हुए आरिफ के खिलाफ फांसी की सजा बरकरार रखी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है। इसी तरह 2002 में गुजरात स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर 31 लोगों को मौत का घाट उतारने वाले लश्कर आतंकियों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीवाली के ठीक पहले धनतेरस पर दिल्ली के बाजारों, 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर और 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट करने वाले आतंकियों को सजा मिलने में अभी सालों लग सकते हैं। जबकि इन तीन आतंकी हमले में 300 से अधिक लोग मारे गए थे। खुफिया विभाग (आईबी) के पूर्व प्रमुख व विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक एके डोभाल का मानना है कि आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित होने के बावजूद भारत आतंकियों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने में विफल रहा है।अजमल कसाब को जब फांसी की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई शक्तियां अफजल को बचाने में लगी हुई हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं? अब तो यह भी सिद्ध हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदेखा किया, उन सभी को पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई शक्तियां अफजल को बचाने में लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? इसको समझते हुए उधर अफजल यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फांसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी उसकी एक चाल हो। पर इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने मंे केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी ऊंगली उठ रही है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों है इतने लाचार हमारे राष्ट्रपति?
डॉ. महेश परिमल
अजमल कसाब को आखिर फांसी दे दी गई। इससे यह समझना भूल होगी कि आतंकवाद ही खत्म हो गया। कसाब खत्म हुआ है आतंकवाद नहीं। अभी अफजल गुरु जिंदा है। इसके अलावा ऐसे कई आतंकवादी भी जिंदा हैं, जो या तो जेल में हैं या फिर अपने घर में ही जयचंद बनकर रह रहे हैं। जो जेल में हैं, उनका अंजाम तय है, पर जो घर के भीतर हैं, ऐसे लोग अधिक खतरनाक हैं। इसे छद्म आतंकवाद की संज्ञा दी जा सकती है। बहुत ही खतरनाक होता है यह छद्म आतंकवाद। इसमें आतंकवादी अलग से दिखाई नहीं देता, वह हमारे ही बीच हमारी तरह रहकर आतंकवादी कार्य करता है। कसाब की फांसी के बाद यह तय है कि पाकिस्तान खामोश नहीं बैठेगा। उसके पास अभी सरबजीत की याचिका है, जिसे वह खारिज कर फांसी की सजा मुकर्रर कर सकता है। कसाब की प्रतिक्रिया में सरबजीत की फांसी तय है। पाकिस्तानी प्रेजिडेंट आसिफ अली जरदारी के कार्यालय की मानें तो कसाब की मौत का असर सरबजीत पर होने वाले फैसले पर पड़ सकता है। सूत्रों का मानना है कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान सरकार कसाब की मौत का बदला सरबजीत की क्षमा याचिका को खारिज कर के लेगी। आज सहायक पुलिस इंस्पेक्टर शहीद बाला साहब भोसले की आत्मा को शांति मिली होगी। उसके बेटे ने कहा है कि मुझे लगता है कि हमारी दिवाली आज शुरू हुई। मेरी मां अब चैन की नींद सो पाएंगी। जिसने मेरे बाबा को मुझसे छिन लिया, उसे सरेआम फांसी देनी चाहिए थी।
कसाब को फांसी से भी बड़ी कोई सजा है, तो वह उसे दी जानी थी। वह एक दरिंदा था, जो लोगों को तड़पता और मरता देखकर खुश होता था। वह एहसानफरामोश था, जो भला करता है, उसी की हत्या करने में भी देर नहीं करता था। सवाल यह उठता है कि आखिर हम आतंकवादियों को क्यों पालते हैं? अफजल गुरु ही नहीं, ऐसे बीस आतंकी हमारे देश में हैं, जिनका गुनाह तो सिद्ध हो चुका है, सजा भी हो चुकी है, पर हम उन्हें सजा नहीं दे पा रहे हैं। फांसी से भी बड़ी कोई सजा हो सकती है क्या? आज हर तरफ 26/11 के आतंकी आमिर अजमल कसाब को दी दी गई फांसी की चर्चा है। इस सजा से कई सवाल और खड़े हो गए हैं। आज देश का बच्चा-बच्चा यही चाहता है कि फांसी से भी बड़ी कोई सजा है, तो वह कसाब को मिलनी चाहिए थी। क्योंकि कसाब के लिए फांसी तो बहुत ही छोटी सजा है। उसने जो अपराध किया है, वह दरिंदगी की सीमाओं को पार करता है। करोड़ों भारतीयों की भावनाओं का यदि सम्मान किया जाए, तो कसाब को सजा देने के लिए जितना समय लगा, उससे भी कम समय में उसे फांसी हो जानी चाहिए थी। कसाब को फांसी की सजा से यह संदेश जाना चाहिए कि अब भविष्य में कोई भी आतंकी अपने काम को अंजाम देने के पहले सौ बार सोचे।
कसाब को लेकर जो सबसे अधिक चिंता की बात है, वह यह कि कसाब को फांसी देने में आखिर इतना वक्त कैसे लग गया? क्या हमारी न्याय व्यवस्था इतनी लचर है कि देश के दुश्मन को भी सजा देने में इतना समय लगाया जाए। सच्चा न्याय तो वही होता है, जो समय पर मिले। देर से मिलने वाले न्याय का कोई महत्व नहीं होता। संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाने में बरसों बीत गए, इसके बाद भी वह जिंदा है। उसे फांसी पर लटकाने में केंद्र सरकार सांसत में है। वह इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रही है। जब यह बात जोर-शोर से उठी कि अफजल को फांसी क्यों नहीं दी जा रही है, तो सरकार का कहना था कि अफजल गुरु के आगे फांसी की सजा पाने वाले करीब 20 लोग और भी हैं। जब अफजल की बारी आएगी, तो उसे फांसी दे दी जाएगी।
कसाब को फांसी की सजा होना यह अंत नहीं है। फिर कोई आतंकवादी ऐसी हिम्मत न कर पाए, यह कोशिश होनी चाहिए। ऐसे हमले निष्फल हो जाएं, इसकी मंशा भी सजा में होनी चाहिए। होना तो यह भी चाहिए कि अब अगर पड़ोसी देश से आतंकवादी हमारे देश में घुसते हैं, तो उन्हें इस बात का डर होना चाहिए कि यदि यहां पकड़े गए, तो वह जिंदगी मौत से भी बदतर होगी। लेकिन हमारे न्यायतंत्र की प्रRिया को देखकर ऐसा नहीं लगता कि आतंकवादी हमारी न्याय व्यवस्था से डरेंगे। अब आतंकवादी यह अच्छी तरह से समझने लगे हैं कि भारत में किसी भी प्रकार की आतंकी कार्रवाई की भी जाए, तो उसका फैसला देर से होता है और उस पर अमल होने में तो और भी देर होती है। तब तक जिंदगी के पूरे मजे ले लो।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इन आतंकवादियों पर हमारे देश का कितना धन बरबाद हो रहा है। 26/11 के दौरान जो आतंकवादी हमारे देश में घुस आए थे, कसाब को छोड़कर सभी मारे गए थे। इन आतंकवादी की लाशें कई महीनों तक सुरक्षित रखी गई थीं, जिस पर करोड़ों रुपए खर्च हो हुए। कसाब के इलाज पर भी लाखों रुपए खर्च हुए। इन लोगों पर देश का जितना धन खर्च हुआ है, उतना तो 26/11 के दौरान मारे गए लोगों को मुआवजे के रूप में नहीं मिला है। हमे शर्म आनी चाहिए कि इस देश में वीरों से अधिक सम्मान तो आतंकवादियों को मिलता है। आतंकवादियों को दी जाने वाली सुविधा के सामने सीमा पर तैनात हमारे जांबाजों को मिलने वाली सुविधा तो बहुत ही बौनी है। आखिर आतंकवादियों हमारे लिए इतने अधिक महत्वपूर्ण क्यों होने लगे? कसाब को मौत से पहले मिली वाली तमाम सुख-सुविधाओं को देखते हुए आम युवाओं में यही संदेश जाएगा कि देश का सैनिक बनने से तो बेहतर है, आतंकवादी बनना। मौत कितनी भी भयानक हो, पर जिंदगी तो बहुत ही खुशगवार होगी। युवाओं की इसी तरह की सोच के ही कारण आज देश के युवा भटक रहे हैं। देश के लिए सबसे शर्म की बात तो तब सामने आई, जब सेना में भर्ती के लिए सरकार ने विज्ञापन प्रकाशित किए। यह विज्ञापन नहीं, देश के युवाओं में जमे हुए रक्त का हस्ताक्षर है। आज कोई युवा सेना में जाना ही नहीं चाहता। यह देश का दुर्भाग्य है। एक सैनिक जितना अपनी पूरी जिंदगी में कमाता है, उससे कई गुना तो एक नेता एक महीने में ही कमा लेता है।
शहीद की विधवा के जज्बे को सलाम!
हमें गर्व होना चाहिए शहीद नानक चंद की विधवा गंगा देवी के जज्बे पर। जिसने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर कहा है कि अफजल गुरु को उन्हें सौंप दे। ताकि सरकार में यदि हिम्मत नहीं है, तो वह उसे फांसी दे देगी। गंगा देवी पर हमें इसलिए भी गर्व करना चाहिए कि उसने पति के मरणोपरांत मिलने वाला कीर्ति चR भी लौटा दिया। उनका कहना था कि अफजल को फांसी दिए जाने तक वे कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगी। एक शहीद की विधवा को और क्या चाहिए। लोग न्याय की गुहार करते रहते हैं, उन्हें न्याय नहीं मिलता। पर एक शहीद की विधवा यदि प्रधानमंत्री से न्याय की गुहार करे, तो क्या उसे भी इस देश में न्याय नहीं मिलेगा? वर्ग भेद की राजनीति में उलझी देश की गठबंधन सरकार से किसी प्रकार की उम्मीद करना ही बेकार है। शहीद की विधवाओं की गुहार संसद तक पहुंचते-पहुंचते अनसुनी रह जाती है। जहां वोट की राजनीति होती हो, वहां कुछ बेहतर हो भी नहीं सकता।शहीद की विधवा ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में कहा है ‘मनमोहन सिंह जी अगर आपकी सरकार में अफजल गुरु को फांसी देने की हिम्मत नहीं है, यदि आपको जल्लाद नहीं मिल रहे तो आप यह काम मुझे सौंप दें। मैं शहीद की पत्नी हूं, देश के खिलाफ आंख उठाने वाले को क्या सजा दी जाए, मुझे और मेरे परिवार को मालूम है।’ ‘मैं संसद के 13 नंबर गेट पर जहां मेरे पति शहीद हुए थे वहीं अफजल को फांसी दूंगी।’ राठधाना गांव में अपने घर पर शहीद पति की प्रतिमा के सामने बैठी गंगा देवी ने कहा कि हमले के 11 साल बाद भी अफजल और उसके सभी साथी सुरक्षित हैं। देश के लिए इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है?’ देश के हर नागरिक को यह सोचना चाहिए कि आखिर देश के दुश्मनों को देश के भीतर ही कौन शह दे रहा हे? क्यों पनप रहा है आतंकवाद? हमारे ही आंगन में कौन बो रहा है आतंकवाद की फसल? देश के दुश्मनों से सीमा पर लड़ना आसान है, पर देश के भीतर ही छिपे दुश्मनों से लड़ना बहुत मुश्किल है।
अफजल की बारी कब?
2001 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु की फांसी की सजा पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुहर लगने के 7 साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है। जबकि 2000 में दिल्ली के लालकिले में घुसकर सेना के तीन जवानों की हत्या और 11 को घायल करने वाले लश्कर-ए-तोयबा के आतंकी मोहम्मद आरिफ की फांसी की सजा पर अब तक अदालती कार्रवाई जारी है। 2005 में छह अन्य आरोपियों समेत आरिफ को दोषी मानते हुए ट्रायल कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई। 2007 में हाईकोर्ट ने अन्य आरोपियों को बरी करते हुए आरिफ के खिलाफ फांसी की सजा बरकरार रखी। उसके बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला विचाराधीन है। इसी तरह 2002 में गुजरात स्थित अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर 31 लोगों को मौत का घाट उतारने वाले लश्कर आतंकियों को फांसी देने का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। 2005 में दीवाली के ठीक पहले धनतेरस पर दिल्ली के बाजारों, 2006 में बनारस के संकटमोचन मंदिर और 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेनों में बम विस्फोट करने वाले आतंकियों को सजा मिलने में अभी सालों लग सकते हैं। जबकि इन तीन आतंकी हमले में 300 से अधिक लोग मारे गए थे। खुफिया विभाग (आईबी) के पूर्व प्रमुख व विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक एके डोभाल का मानना है कि आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित होने के बावजूद भारत आतंकियों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने में विफल रहा है।अजमल कसाब को जब फांसी की सजा मुकर्रर हुई, उसके बाद संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी पर चढ़ाने के लिए दबाव बनने लगा। लेकिन इस बीच जो बयानबाजी हुई और फाइल इधर से उधर हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया कि कई शक्तियां अफजल को बचाने में लगी हुई हैं। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि अफजल को बचाने में कौन-कौन लगे हुए हैं? अब तो यह भी सिद्ध हो गया है कि जिन अफसरों ने अफजल की फाइल को अनदेखा किया, उन सभी को पदोन्नति मिली। इसका आशय यही है कि कई शक्तियां अफजल को बचाने में लगी हैं। एक फाइल चार साल तक 200 मीटर का फासला तय न कर पाए, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? इसको समझते हुए उधर अफजल यह कहा रहा है कि मैं अकेलेपन से बुरी तरह टूट गया हूं। मुझे जल्द से जल्द फांसी की सजा दो। निश्चित रूप से यह भी उसकी एक चाल हो। पर इतना तो तय है कि अफजल पर किसी भी तरह की कार्रवाई करने मंे केंद्र सरकार के पसीने छूट रहे हैं। देश के हमारे संविधान पर भी ऊंगली उठ रही है, सो अलग। आखिर क्यों हैं इतने लचर नियम कायदे और क्यों है इतने लाचार हमारे राष्ट्रपति?
डॉ. महेश परिमल