डॉ. महेश परिमल
रिलीज होने के एक सप्ताह बाद आमिर खान की फिल्म ‘पी.के.’ का विरोध शुरू हो गया है। तब तक इस फिल्म ने कमाई का रिकॉर्ड स्थापित कर लिया है। फिल्म के विरोधी यही कह रहे हैं कि इससे हिंदू धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचती है। फिल्म में धर्म के नाम पर चलते ढकोसलों पर कटाक्ष किया गया है। विशेषकर हिंदू धर्म को लेकर। वैसे देंखा जाए, तो फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में जो कुछ संवादों के माध्यम से कहा गया है, वही सब कुछ ‘पी.के.’ में दृश्यों के माध्यम से कहा गया है। ओह माय गॉड का विरोध इसलिए अधिक नहीं हुआ,क्योंकि उसमें जो कुछ कहा गया है, वह सब प्रमाण के साथ कहा गया है। ‘पी.के.’ का विरोध तभी शुरू हुआ, जब स्वामी स्वरूपानंद ने यह बयान दिया कि इस फिल्म से हिंदू धर्म की भावनाएं आहत हुई हैं।
जैसे-जैसे फिल्म पी के का विरोध बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे उसकी कमाई भी तेजी से बढ़ती जा रही है। वैसे देखा जाए, तो इसका विरोध वही लोग कर रहे हैं, जिनका फिल्म के विवादास्पद दृश्यों से कोई वास्ता ही नहीं है, वे तो केवल विरोध के नाम पर ही विरोध कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि वाकई में क्या ‘पी.के.’ हिंदू विरोधी है? धर्म का मामला बहुत ही नाजुक और संवेदनशील होता है। धर्म पर आधारित कोई नाटक खेलना हो, या फिर फिल्म बनाना हो, तो धर्म का पालन करने वाले करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। नाटककार या फिल्मकार को इसका ध्यान रखना पड़ता है। राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘पी.के.’ को लेकर इन दिनों कुछ वैसा ही माहौल है। हिंदू संगठन इस फिल्म का विरोध करते हुए फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। फेसबुक और ट्वीटर पर ‘बायकाट ‘पी.के.’ नाम से अभियान भी चलाया जा रहा है। फिर भी लाखों लोग इस फिल्म को देख रहे हैं। फिल्म को काफी सराहना भी मिल रही है। फिल्म का विरोध करने वाले से अधिक इसको पसंद करने वाले हैं। जो कुछ नहीं कह रहे हैं। समझ में नहीं आता है कि फिल्म में जो ढकोसले दिखाए गए हैं, उस पर कोई संगठन किसी तरह की कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है। कुछ लोग आमिर खान को इसलिए दोषी बता रहे हैं, क्योंकि एक कलाकार होने के नाते उन्होंने इस्लाम की हंसी नहीं उड़ाई है।
‘पी.के.’ में केवल हिंदू धर्म की ही हंसी उड़ाई गई है, ऐसा नहीं है, बल्कि मिशनरियों द्वारा धन के लालच में लोगों के धर्म परिवर्तन करने की बात को भी जोर-शोर से उठाया गया है। परंतु जब मुस्लिमों के मस्जिद में जाने की बात होती है, तो आमिर खान को उसके दरवाजे से ही भगा दिया जाता है। इसी तरह जब रेल्वे स्टेशन पर बम धमाका होता है, तो इसका भी खुलासा नहीं किया गया है कि बम धमाके लिए कौन जिम्मेदार है? धमाका करने वाले किस धर्म को मानते हैं, या फिर किस धर्म के लोग इस धमाके में मारे गए। इसके बाद भी इस फिल्म को इतने अधिक लोग क्यों देख रहे हैं कि वह कमाई का रिकॉर्ड स्थापित करने लगे? इसका सीधा-सा यही कारण है कि फिल्म में दुनिया के लगभग सभी धर्मों में चलने वाले ढकोसलों का पर्दाफाश किया गया है। यह हम सब कदम-कदम पर देख-समझ रहे हैं। पर विरोध नहीं कर पा रह हैं। हम इसका भी विरोध नहीं कर पा रहे हैं कि धार्मिक स्थलों में होने वाले शोर क्यों होता है? धार्मिकता के नाम पर बाबाआंें को इतनी अधिक जमीन कैसे मिल जाती है कि वे अपना गोरखधंधा चला लेते हैं। आसाराम, सतपाल बाबा का असली चेहरा हम सबने देख लिया है, उसके बाद भी इन्हें सर-आंखों पर बिठाने वाले आज भी हमारे बीच हैं। आखिर इन बाबाओं को शह कहां से मिलती है? कौन हैं इनके संरक्षक? बिना मजबूत संरक्षण के ये इतने बड़े पैमाने पर गोरखधंधा नहीं कर सकते? यह काम तो जनता का है, जनता ही ऐसे बाबाओं की पोेल खोल सकती है। लेकिन जनता को जगाने वाली फिल्म का विरोध हो रहा है।
सबसे बड़ी बात यह है कि क्या हिंदू धर्म की बुनियाद इतनी अधिक कमजोर है कि एक फिल्म से ही कमजोर होने लगी है। हजारों वर्षों से हिंदू धर्म अनवरत चला आ रहा है। इससे बड़ी-बड़ी ताकतों ने इसे नेस्तनाबूद करने की कोशिश की, पर आज तक इसका बाल भी बांका नहीं हुआ। तो फिर क्या एक फिल्म मात्र से हिंदू धर्म संकट में आ जाएगा? इतना तो कमजोर कतई नहीं है हिंदू धर्म। यदि हमें यह कहीं कमजोर नजर भी आता है, तो उसे मजबूत करने की कोशिश की जानी चाहिए, न कि उन शक्तियों का विरोध किया जाना चाहिए, जो धर्म को कथित रूप से कमजोर बनाने का काम कर रहीं हैं। किसी फिल्म का विरोध करने के बजाए हमें यह सोचना होगा कि फिल्म वाले ने वह विषय आखिर कहां से उठाया है। समाज से ही ना? तो फिर समाज में यह विकृति आई कहां से? हमें समाज की विकृति पर ध्यान देना चाहिए।
शिवलिंग पर चढ़ाया जाना वाला दूध यदि गटर पर जा रहा है, तो हमें इस परंपरा पर सोचना चाहिए। उस दूध को किस तरह से गरीब बच्चों तक पहुंचाया जाए, हमें इस पर विचार करना चाहिए। मजार पर हजारों चादरें चढ़ाई जाती हैं, तो आखिर उन चादरों का इस्तेमाल क्या होता है, क्या उससे ठंड में ठिठुरते बच्चों के लिए रजाइयां नहीं बनाई जा सकती? चर्च में मोमबत्ती जलाने की अपेक्षा किसी गरीब के घर पर जलाई जानी चाहिए, ताकि उनकी झोपड़ी रोशन हो। धर्म में परंपरा के नाम पर ढकोसलों पर हमारे तथाकथित साधू-संतों काे विचार करना चाहिए। यह सच है कि आमिर की फिल्म में यदि कोई संदेश न होता, तो दर्शक टाॅकीज तक जाते ही नहीं। कुछ तो ऐसा है कि सभी धर्मों के लोग फिल्म देखने जा रहे हैं और उसे सराह भी रहे हैं। आमिर तो एक उद्देश्य लेकर सामने आए हैं, पर समाज का कोढ़ बनते तथाकथित बाबाओं के खिलाफ क्यों कोई सामने नहीं आता? किस तरह से इन्होंने लूटा है, भक्तों को। किस तरह से उनकी भावनाओं से खेला गया है? आखिर भक्तों का क्या कुसूर? वे तो अपनी पीड़ाओं से मुक्ति पाने के लिए बाबाओं की शरण में पहुंचे थे। बाबाओं की सल्तनत को हिलाने की ताकत आखिर किसमें है? आखिर जनता को ही यह बीड़ा उठाना होगा। तभी समाज में एक स्वस्थ परंपरा कायम होगी।
‘पी.के.’ का विरोध करने वाली संस्थाओं काे लगता है कि इसमें केवल हिंदू देवी-देवताओं पर हमला किया गया है, तो वे पाकिस्तान के शोएब मंसूर की फिल्म ‘खुदा के लिए’ अवश्य देखनी चाहिए। यह फिल्म 2007 में बनी थी। यह फिल्म ओएमजी और ‘पी.के.’ से कहीं अधिक आक्रामक है। इसमें पूरी तरह से साफगोई है। इसमें कहीं भी कामेडी नहीं है। डायरेक्टर ने अपनी बात पूरी शिद्दत के साथ की है। फिल्म का संदेश यही है कि इस्लाम मुसलमान की दाढ़ी में नहीं है। किसी भी धर्म पर अपनी राय रखने के पहले हमें उस धर्म का अध्ययन भी कर लेना चाहिए। बिना जाने-समझे हमें अपने विचार रखने का अधिकार नहीं है। फिल्मों का विरोध हमेशा से होता रहा है। पर विरोध सकारात्मक होना चाहिए। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर फिल्म वाले को हमारी झूठी परंपरा एवं आडम्बर पर कटाक्ष करने की हिम्मत कैसे हुई? आशय स्पष्ट है िक दोष हमारी परंपरा में ही है। फिल्मों में वही बताया जा रहा है, जो समाज में हो रहा है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, पर िसनेमा भी साहित्य का एक अंग है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। अपनी पिछली फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में आमिर ने शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर जोरदार कटाक्ष किया, उससे आखिर क्या हुआ? शिक्षा की कितनी दुकानें बंद हुई? कितने विद्यार्थियों को आत्महत्या से रोका गया? देश की कितनी प्रतिभाओं को पलायन से रोकने के प्रयास हुए? अगर हम ऐसे सुलगते सवालों का जवाब नहीं ढूंढ पाए, तो हमें कोई हक नहीं है कि किसी की बिंदास अभिव्यक्ति के खिलाफ सड़क पर उतर जाएं।
डॉ. महेश परिमल
रिलीज होने के एक सप्ताह बाद आमिर खान की फिल्म ‘पी.के.’ का विरोध शुरू हो गया है। तब तक इस फिल्म ने कमाई का रिकॉर्ड स्थापित कर लिया है। फिल्म के विरोधी यही कह रहे हैं कि इससे हिंदू धर्म की भावनाओं को ठेस पहुंचती है। फिल्म में धर्म के नाम पर चलते ढकोसलों पर कटाक्ष किया गया है। विशेषकर हिंदू धर्म को लेकर। वैसे देंखा जाए, तो फिल्म ‘ओह माय गॉड’ में जो कुछ संवादों के माध्यम से कहा गया है, वही सब कुछ ‘पी.के.’ में दृश्यों के माध्यम से कहा गया है। ओह माय गॉड का विरोध इसलिए अधिक नहीं हुआ,क्योंकि उसमें जो कुछ कहा गया है, वह सब प्रमाण के साथ कहा गया है। ‘पी.के.’ का विरोध तभी शुरू हुआ, जब स्वामी स्वरूपानंद ने यह बयान दिया कि इस फिल्म से हिंदू धर्म की भावनाएं आहत हुई हैं।
जैसे-जैसे फिल्म पी के का विरोध बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे उसकी कमाई भी तेजी से बढ़ती जा रही है। वैसे देखा जाए, तो इसका विरोध वही लोग कर रहे हैं, जिनका फिल्म के विवादास्पद दृश्यों से कोई वास्ता ही नहीं है, वे तो केवल विरोध के नाम पर ही विरोध कर रहे हैं। सवाल यह उठता है कि वाकई में क्या ‘पी.के.’ हिंदू विरोधी है? धर्म का मामला बहुत ही नाजुक और संवेदनशील होता है। धर्म पर आधारित कोई नाटक खेलना हो, या फिर फिल्म बनाना हो, तो धर्म का पालन करने वाले करोड़ों लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। नाटककार या फिल्मकार को इसका ध्यान रखना पड़ता है। राजकुमार हीरानी की फिल्म ‘पी.के.’ को लेकर इन दिनों कुछ वैसा ही माहौल है। हिंदू संगठन इस फिल्म का विरोध करते हुए फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। फेसबुक और ट्वीटर पर ‘बायकाट ‘पी.के.’ नाम से अभियान भी चलाया जा रहा है। फिर भी लाखों लोग इस फिल्म को देख रहे हैं। फिल्म को काफी सराहना भी मिल रही है। फिल्म का विरोध करने वाले से अधिक इसको पसंद करने वाले हैं। जो कुछ नहीं कह रहे हैं। समझ में नहीं आता है कि फिल्म में जो ढकोसले दिखाए गए हैं, उस पर कोई संगठन किसी तरह की कोई टिप्पणी नहीं कर रहा है। कुछ लोग आमिर खान को इसलिए दोषी बता रहे हैं, क्योंकि एक कलाकार होने के नाते उन्होंने इस्लाम की हंसी नहीं उड़ाई है।
‘पी.के.’ में केवल हिंदू धर्म की ही हंसी उड़ाई गई है, ऐसा नहीं है, बल्कि मिशनरियों द्वारा धन के लालच में लोगों के धर्म परिवर्तन करने की बात को भी जोर-शोर से उठाया गया है। परंतु जब मुस्लिमों के मस्जिद में जाने की बात होती है, तो आमिर खान को उसके दरवाजे से ही भगा दिया जाता है। इसी तरह जब रेल्वे स्टेशन पर बम धमाका होता है, तो इसका भी खुलासा नहीं किया गया है कि बम धमाके लिए कौन जिम्मेदार है? धमाका करने वाले किस धर्म को मानते हैं, या फिर किस धर्म के लोग इस धमाके में मारे गए। इसके बाद भी इस फिल्म को इतने अधिक लोग क्यों देख रहे हैं कि वह कमाई का रिकॉर्ड स्थापित करने लगे? इसका सीधा-सा यही कारण है कि फिल्म में दुनिया के लगभग सभी धर्मों में चलने वाले ढकोसलों का पर्दाफाश किया गया है। यह हम सब कदम-कदम पर देख-समझ रहे हैं। पर विरोध नहीं कर पा रह हैं। हम इसका भी विरोध नहीं कर पा रहे हैं कि धार्मिक स्थलों में होने वाले शोर क्यों होता है? धार्मिकता के नाम पर बाबाआंें को इतनी अधिक जमीन कैसे मिल जाती है कि वे अपना गोरखधंधा चला लेते हैं। आसाराम, सतपाल बाबा का असली चेहरा हम सबने देख लिया है, उसके बाद भी इन्हें सर-आंखों पर बिठाने वाले आज भी हमारे बीच हैं। आखिर इन बाबाओं को शह कहां से मिलती है? कौन हैं इनके संरक्षक? बिना मजबूत संरक्षण के ये इतने बड़े पैमाने पर गोरखधंधा नहीं कर सकते? यह काम तो जनता का है, जनता ही ऐसे बाबाओं की पोेल खोल सकती है। लेकिन जनता को जगाने वाली फिल्म का विरोध हो रहा है।
सबसे बड़ी बात यह है कि क्या हिंदू धर्म की बुनियाद इतनी अधिक कमजोर है कि एक फिल्म से ही कमजोर होने लगी है। हजारों वर्षों से हिंदू धर्म अनवरत चला आ रहा है। इससे बड़ी-बड़ी ताकतों ने इसे नेस्तनाबूद करने की कोशिश की, पर आज तक इसका बाल भी बांका नहीं हुआ। तो फिर क्या एक फिल्म मात्र से हिंदू धर्म संकट में आ जाएगा? इतना तो कमजोर कतई नहीं है हिंदू धर्म। यदि हमें यह कहीं कमजोर नजर भी आता है, तो उसे मजबूत करने की कोशिश की जानी चाहिए, न कि उन शक्तियों का विरोध किया जाना चाहिए, जो धर्म को कथित रूप से कमजोर बनाने का काम कर रहीं हैं। किसी फिल्म का विरोध करने के बजाए हमें यह सोचना होगा कि फिल्म वाले ने वह विषय आखिर कहां से उठाया है। समाज से ही ना? तो फिर समाज में यह विकृति आई कहां से? हमें समाज की विकृति पर ध्यान देना चाहिए।
शिवलिंग पर चढ़ाया जाना वाला दूध यदि गटर पर जा रहा है, तो हमें इस परंपरा पर सोचना चाहिए। उस दूध को किस तरह से गरीब बच्चों तक पहुंचाया जाए, हमें इस पर विचार करना चाहिए। मजार पर हजारों चादरें चढ़ाई जाती हैं, तो आखिर उन चादरों का इस्तेमाल क्या होता है, क्या उससे ठंड में ठिठुरते बच्चों के लिए रजाइयां नहीं बनाई जा सकती? चर्च में मोमबत्ती जलाने की अपेक्षा किसी गरीब के घर पर जलाई जानी चाहिए, ताकि उनकी झोपड़ी रोशन हो। धर्म में परंपरा के नाम पर ढकोसलों पर हमारे तथाकथित साधू-संतों काे विचार करना चाहिए। यह सच है कि आमिर की फिल्म में यदि कोई संदेश न होता, तो दर्शक टाॅकीज तक जाते ही नहीं। कुछ तो ऐसा है कि सभी धर्मों के लोग फिल्म देखने जा रहे हैं और उसे सराह भी रहे हैं। आमिर तो एक उद्देश्य लेकर सामने आए हैं, पर समाज का कोढ़ बनते तथाकथित बाबाओं के खिलाफ क्यों कोई सामने नहीं आता? किस तरह से इन्होंने लूटा है, भक्तों को। किस तरह से उनकी भावनाओं से खेला गया है? आखिर भक्तों का क्या कुसूर? वे तो अपनी पीड़ाओं से मुक्ति पाने के लिए बाबाओं की शरण में पहुंचे थे। बाबाओं की सल्तनत को हिलाने की ताकत आखिर किसमें है? आखिर जनता को ही यह बीड़ा उठाना होगा। तभी समाज में एक स्वस्थ परंपरा कायम होगी।
‘पी.के.’ का विरोध करने वाली संस्थाओं काे लगता है कि इसमें केवल हिंदू देवी-देवताओं पर हमला किया गया है, तो वे पाकिस्तान के शोएब मंसूर की फिल्म ‘खुदा के लिए’ अवश्य देखनी चाहिए। यह फिल्म 2007 में बनी थी। यह फिल्म ओएमजी और ‘पी.के.’ से कहीं अधिक आक्रामक है। इसमें पूरी तरह से साफगोई है। इसमें कहीं भी कामेडी नहीं है। डायरेक्टर ने अपनी बात पूरी शिद्दत के साथ की है। फिल्म का संदेश यही है कि इस्लाम मुसलमान की दाढ़ी में नहीं है। किसी भी धर्म पर अपनी राय रखने के पहले हमें उस धर्म का अध्ययन भी कर लेना चाहिए। बिना जाने-समझे हमें अपने विचार रखने का अधिकार नहीं है। फिल्मों का विरोध हमेशा से होता रहा है। पर विरोध सकारात्मक होना चाहिए। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर फिल्म वाले को हमारी झूठी परंपरा एवं आडम्बर पर कटाक्ष करने की हिम्मत कैसे हुई? आशय स्पष्ट है िक दोष हमारी परंपरा में ही है। फिल्मों में वही बताया जा रहा है, जो समाज में हो रहा है। साहित्य समाज का दर्पण होता है, पर िसनेमा भी साहित्य का एक अंग है। इसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। अपनी पिछली फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में आमिर ने शिक्षा की वर्तमान स्थिति पर जोरदार कटाक्ष किया, उससे आखिर क्या हुआ? शिक्षा की कितनी दुकानें बंद हुई? कितने विद्यार्थियों को आत्महत्या से रोका गया? देश की कितनी प्रतिभाओं को पलायन से रोकने के प्रयास हुए? अगर हम ऐसे सुलगते सवालों का जवाब नहीं ढूंढ पाए, तो हमें कोई हक नहीं है कि किसी की बिंदास अभिव्यक्ति के खिलाफ सड़क पर उतर जाएं।
डॉ. महेश परिमल
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