शनिवार, 24 जनवरी 2015

अच्छे दिनों की राह देखती पथराई आंखें

डॉ. महेश परिमल
पेट्रोल के नाम पर सरकार किस तरह से आम जनता को लूट रही है, इसका अंदाजा अब जाकर लगा है। एक बार फिर सरकार ने पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती, तो पेट्रोल हमें और 6 रुपए सस्ता मिलता। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। अभी वह अपना राजकोषीय संतुलन बनाने में लगी है। पेट्रोल के उत्पाद शुल्क में हाल ही में दो रुपए प्रति लीटर की वृिद्ध की गई है। दो महीने में यह तीसरी बार वृद्धि की गई है। इस पर सरकार के अपने तर्क हैं। पर आम जनता यह जानना चाहती है कि सरकार महंगाई कम करने का दावा तो करती है, पर आज भी महंगाई पर काबू नहीं पाया जा सका है। आमतौर पर ठंड में सब्जियों के दाम कम हो जाते हैं, पर इस बार कड़ाके की ठंड पड़ने के बाद भी सब्जियों के दामों में किसी प्रकार की कमी नही आई है। सरकार लगातार ऐसे निर्णय ले रही है, जिससे व्यापारियों को लाभ हो। जिस तेजी से कच्चे तेल की कीमतें गरी हैं, उसके एवज में पेट्रोल सस्ता नहीं हुआ है। जून के बाद क्रूड आयल की कीमतें आधी रह गई हैं, पर उस तेजी से पेट्रोल की कीमतें कम नहीं हुई है।
सरकार की तरफ से कहा गया है कि ढांचागत परियोजनाओं के लिए फंड जुटाने को पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाया जा रहा है। इस राशि का इस्तेमाल चालू वर्ष और अगले वित्त वर्ष के दौरान 15,000 किलोमीटर सड़क बनाने में किया जाएगा,मगर हकीकत यह है कि इस शुल्क वृद्धि से जनता को पेट्रोल-डीजल की कीमत में राहत नहीं मिल पाई है। अगर नवंबर, 2014 के बाद से देखे तो गैर ब्रांडेड पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क दर 1.20 से बढ़कर 6.95 रुपए और डीजल पर 1.46 से बढ़कर 5.96 रुपए प्रति लीटर हो गई है। यानी पेट्रोल पर शुल्क 5.75 रुपए और डीजल पर 4.50 रुपए प्रति लीटर बढ़ाया जा चुका है। अगर उक्त शुल्क वृद्धि नहीं की जाती तो पेट्रोल और डीजल की कीमत इतनी ही कम हुई होती। दो माह के भीतर पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन बार वृद्धि से साफ है कि राजकोषीय घाटा काबू में रखना सरकार के लिए कितना चुनौतीपूर्ण हो गया है। ताजा आंकड़े बताते हैं कि पहले नौ माह में ही इस घाटे की राशि पूरे वित्त वर्ष के लगभग बराबर पहुंच चुकी है।
नया साल शुरू हो चुका है, अनुभवी कहते हैं कि केवल वर्ष बदलता है, पर हालात वही रहते हैं। हमें हमेशा नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। 2015 में भी आर्थिक तेजी, रोजगार के अवसर और आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी। न जाने कितनी ऐसी समस्याएं हैं, जिनके समाधान न होने पर लोग अब थक चुके हैं। आवश्यक जिंसों के दाम लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। बिचौलियों की चांदी हो गई है। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी के बाद भी सरकार तेल कंपनियों के मुनाफ के बारे में ही सोच रही है। ऐसा जब पिछली सरकार करती थी, तो भाजपा के पास तेल की कीमत कम करने की कई योजनाएँ थी, पर अब जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतें लगातार कम हो रही हैं, तो भी सरकार कीमतें कम कर लोगों को राहत नहीं देना चाहती।
माेदी सरकार ने वादा किया था कि अच्छे दिन आने वाले हैं। छह महीने बाद भी जब अच्छे दिन नहीं आए, तो यह सोचना पड़ रहा है कि क्या अच्छे दिन आएंगे? अब तो सबकी नजर सरकार के पहले बजट की ओर है। जिससे पता चलेगा कि अच्छे दिन आएंगे या नहीं? यह बजट दस साल बाद नए हाथों से आएगा। वेतनभोगी चाहते हैं कि उन्हें टैक्स में राहत मिले। गरीब अधिक से अधिक सुविधाएं बिना टैक्स के चाहते हैं। अमीरों की चाहत है कि बार-बार उनकी जेब पर कैंची न चलाई जाए। 2015 पर 2014 ने अपेक्षाओं का बहुत सारा बोझ लाद दिया है। मोदी सरकार ने वैश्विक संबंधों पर जितना जोर दिया है, उतना जोर यदि देश की समस्याओं पर नहीं दिया। देश का नेटवर्किंग मजबूत बनाने की जवाबदारी सरकार की है, परंतु मोदी सरकार का नेटवर्क शपथ के बाद ही ढीला दिखाई देने लगा है। लगता है यह पूरा वर्ष आर्थिक नीतियों के सुधार में ही चला जाएगा। कार्पाेरेट क्षेत्र भी इस वर्ष अपने मुनाफे के गणित में लग गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निश्चित रूप से बिजनेस-फ्रेंडली हैं, पर अभी तक उन्होंने ऐसा कोई ठोस निर्णय नहीं लिया है, जिसे बिजनेस-फ्रेंडली कहा जाए। महंगाई कम करने के लिए इस देश में अभी तक किसी नेता ने जन्म ही नहीं लिया है, ऐसा कहा जा सकता है। जिस तरह से पिछली सरकार महंगाई पर लगाम नहीं कस पाई, ठीक उसी रास्ते पर नई सरकार भी जा रही है। महंगाई बढ़ती ही जा रही है। सरकार उत्पादन से बिक्री तक का ट्रेक ढूंढने में विफल रही है। यह पूरा ट्रेक महंगाई बढ़ाने के काम में आ रहा है। 20 रुपए की वस्तु आज बाजार में 60 रुपए की हो गई है। आखिर क्या वजह है कि ऐसा हो रहा है? सरकार इसका कारण भी नहीं खोज पा रही है।
सरकार नए उद्योगों को लाने के लिए प्रयासरत है। विदेशी पूंजी निवेश के लिए वह लाल जाजम बिछा रही है। नए उद्योगों को जमीन देनी होगी, इसके लिए कानून लाना होगा, यदि किसानों की जमीन ली जाती है, तो उसका उचित मुआवजा भी देना होगा। उद्याेग शुरू होंगे, तो रोजगार मिलेगा। राेजगार करने वालों का शोषण न हो, इसके लिए सख्त कानून बनाने के अलावा ईमानदार अधिकारियों का पूरा नया अमला भी तैयार करना होगा। यह प्रक्रिया काफी लंबी है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री के सामने यह एक बड़ी चुनौती है। इसके अलावा कई ऐसी चुनौतियां भी हैं, जो बैठे-ठाले मिल गई हैं। जैसे धर्मांतरण, घर वापसी जैसे कार्यक्रम अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय आरएसएस के संगठन नहीं कर पाए, वे पेंडिंग काम मोदी सरकार के माध्यम से सहयोगी संगठन करवाना चाहते हैं। भू-अधिग्रहण अध्यादेश लाकर सरकार ने यह बता दिया कि उसकी दिलचस्पी उद्योगों में कितनी अधिक है।
सरकार के सामने अभी सस्ते मकान, संरक्षण, सुरक्षा और उत्पादन, औद्योगिक कारिडोर, ग्रामीण संरचना के लिए जमीन संपादन आदि सुलगती समस्याएं बन गई हैं। निजी प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन संपादन पहले करना होगा, जमीन संपादन के लिए मुआवजा अब दोगुना किया गया है, वह निश्चित रूप से सराहनीय है, परंतु किसान इसकी क्या प्रतिक्रिया देते हैं, यह देखना बाकी है। इस तरह से देखा जाए, तो केवल सरकार के सामने ही नहीं, एक आम आदमी के सामने भी समस्याओं के अंबार हैं। पर इस सबसे अलग होकर इंसान खुशी के पलों को भी आखिर बटोर ही लेता है। साल कोई भी हो, उसके आगमन पर उसे खुशी ही होती है। हमेशा नए की खुशी मनाने वाला यह इंसान आखिर कब भीतर से खुशी मनाएगा?
  डॉ. महेश परिमल

  

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