शुक्रवार, 17 मार्च 2017
कविता - ईंधन - गुलजार
कविता का अंश...
छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी
हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे
आँख लगाकर - कान बनाकर
नाक सजाकर -
पगड़ी वाला, टोपी वाला
मेरा उपला -
तेरा उपला -
अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से
उपले थापा करते थे
हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर
गोबर के उपलों पे खेला करता था
रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था
हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे
किस उपले की बारी आयी
किसका उपला राख हुआ
वो पंडित था -
इक मुन्ना था -
इक दशरथ था -
बरसों बाद - मैं
श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ
आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में
इक दोस्त का उपला और गया !
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कविता,
दिव्य दृष्टि

कुछ कविताएँ - गुलज़ार
कविता का अंश...
मुझे खर्ची में पूरा एक दिन, हर रोज़ मिलता है
मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है,
झपट लेता है, अंटी से
कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की
आहट भी नहीं होती,
खरे दिन को भी खोटा समझ के भूल जाता हूँ मैं
गिरेबान से पकड़ कर मांगने वाले भी मिलते हैं
"तेरी गुजरी हुई पुश्तों का कर्जा है, तुझे किश्तें चुकानी है "
ज़बरदस्ती कोई गिरवी रख लेता है, ये कह कर
अभी 2-4 लम्हे खर्च करने के लिए रख ले,
बकाया उम्र के खाते में लिख देते हैं,
जब होगा, हिसाब होगा
बड़ी हसरत है पूरा एक दिन इक बार मैं
अपने लिए रख लूं,
तुम्हारे साथ पूरा एक दिन
बस खर्च
करने की तमन्ना है !!
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कविता,
दिव्य दृष्टि

सोमवार, 13 मार्च 2017
बाल कविता - बैगन जी की होली - कृष्ण कुमार यादव
कविता का अंश...
टेढ़े-मेढ़े बैगन जी
होली पर ससुराल चले
बीच सड़क पर लुढ़क-लुढ़क
कैसी ढुलमुल चाल चले
पत्नी भिण्डी मैके में
बनी-ठनी तैयार मिलीं
हाथ पकड़ कर वह उनका
ड्राइंगरूम में साथ चलीं
मारे खुशी, ससुर कद्दू
देख बल्लियों उछल पड़े
लौकी सास रंग भीगी
बैगन जी भी फिसल पड़े
इतने में उनकी साली
मिर्ची जी भी टपक पड़ीं
रंग भरी पिचकारी ले
जीजाजी पर झपट पड़ीं
बैगन जी गीले-गीले
हुए बैगनी से पीले।
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता

कविता - अबकी शाखों पर बसंत तुम ! - जयकृष्ण राय तुषार
कविता का अंश...
अबकी शाखों पर
बसंत तुम !
फूल नहीं रोटियाँ खिलाना।
युगों-युगों से
प्यासे होठों को
अपना मकरंद पिलाना।
धूसर मिट्टी की
महिमा पर
कालजयी कविताएँ लिखना,
राजभवन
जाने से पहले
होरी के आँगन में दिखना,
सूखी टहनी
पीले पत्तों पर मत
अपना रोब जमाना।
जंगल-खेतों और
पठारों को
मोहक हरियाली देना,
बच्चों को अनकही कहानी
फूल-तितलियों वाली देना
चिनगारी लू
लपटों वाला मौसम
अपने साथ न लाना।
सुनो दिहाड़ी
मजदूरन को
फूलों के गुलदस्ते देना
बंद गली
फिर राह न रोके
खुली सड़क चौरस्ते देना,
साँझ ढले
स्लम की देहरी पर
उम्मीदों के दिए जलाना।
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दिव्य दृष्टि

कविता - आम कुतरते हुए सुए से - जयकृष्ण राय तुषार
कविता का अंश...
आम कुतरते हुए सुए से
मैना कहे मुण्डेर की ।
अबकी होली में ले आना
भुजिया बीकानेर की ।
गोकुल, वृन्दावन की हो
या होली हो बरसाने की,
परदेसी की वही पुरानी
आदत है तरसाने की,
उसकी आँखों को भाती है
कठपुतली आमेर की ।
इस होली में हरे पेड़ की
शाख न कोई टूटे,
मिलें गले से गले, पकड़कर
हाथ न कोई छूटे,
हर घर-आँगन महके ख़ुशबू
गुड़हल और कनेर की ।
चौपालों पर ढोल-मजीरे
सुर गूँजे करताल के,
रूमालों से छूट न पाएँ
रंग गुलाबी गाल के,
फगुआ गाएँ या फिर बाँचेंगे
कविता शमशेर की ।
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