उम्र पचपन में याद आता है बचपन
कैसे थाली के बैंगन थे, बिन पेंदे के लोटे थे
नाच ना जाने आँगन टेढ़ा मानकर
यहाँ-वहाँ भटकते हम भी सिक्के खोटे थे
खरबूजे को देख जैसे खरबूजा रंग बदलता है,
हम भी खरबूजे और गिरगिट से रंग बदलते थे
बाबूजी के आगे तो दाल गल नहीं पाती थी,
पर माँ को नाकों चने चबवाते थे।
मस्ती की पाठशाला में
तिल का ताड़, राई का पहाड़ बनाया करते थे
कैसे थाली के बैंगन थे, बिन पेंदे के लोटे थे
नाच ना जाने आँगन टेढ़ा मानकर
यहाँ-वहाँ भटकते हम भी सिक्के खोटे थे
खरबूजे को देख जैसे खरबूजा रंग बदलता है,
हम भी खरबूजे और गिरगिट से रंग बदलते थे
बाबूजी के आगे तो दाल गल नहीं पाती थी,
पर माँ को नाकों चने चबवाते थे।
मस्ती की पाठशाला में
तिल का ताड़, राई का पहाड़ बनाया करते थे
इस कविता का आनंद लीजिए ऑडियो की सहायता से...
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