इस बार पहाड़ फिर जी भरकर रोया है। पहाड़ को रोना
क्यों पड़ा? यह समझने को कोई तैयार ही नहीँ है। बस लोग पहाड़ द्वारा की गई तबाही के आंकड़ों
में ही उलझे हैं। संसद में प्रधानमंत्री के आँसू सभी को दिखे, पर पहाड़ के आँसू किसी
की नज़र में नहीं आए। बरसों से रो रहे हैं पहाड़। पर कोई हाथ उसकी आंखों तक नहीं पहुँचा।
पहाड़ के सिर पर प्यार भरा हाथ फेरने वाले लोग अब गुम होने लगे हें। आखिर रोने की भी
एक सीमा होती है। इस रुलाई के पीछे बहुत बड़ा दु:ख है। इस बार यह दु:ख नाराजगी के रूप
में बाहर आया है। पहाड़ों को अब गुस्सा आने लगा है। पहाड़ को हमने सदैव पूजा है। पहाड़ ने हमें हमेशा कुछ न कुछ
अच्छा दिया ही है। अगस्त्य ऋषि के सामने पहाड़ भी झुक जाते थे। इसी ऋषि का एक आश्रम
उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में है। हमारे देश में पहाड़ों की विशेष पूजा-अर्चना
होती है। पहाड़ को कोई नाराज नहीं करना चाहता। पहाड़ सदैव मुस्कराते रहें, इसके लिए मानव
कई तरह के जतन करता रहता है। पहाड़ संस्कृति को बचाने में सहायक होते हैं। हमारे पुराणों
में पहाड़ सदैव ही पूजनीय रहे हैं। पहाड़ यदि विशाल होना जानते हैं, तो वे झुकना भी जानते
हैं। इस पूरे लेख का आनंद लीजिए, ऑडियो की सहायता से...
बुधवार, 21 अप्रैल 2021
आलेख - पहाड़ के आँसू - डाॅ. महेश परिमल

सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें