रविवार, 26 फ़रवरी 2023

यत्र-तत्र सर्वत्र औषधि

 


यत्र-तत्र-सर्वत्र औषध

डॉ. महेश परिमल

यत्र-तत्र-सर्वत्र औषध, संस्कृत का यह शीर्षक आजकल खूब प्रचलित है।  हमारे देश में भले ही डॉक्टरों की कमी हो, पर डॉक्टरों जैसी समझाइश देने वालों की कमी नहीं है। एक मर्ज के अनेक जानकार मिल जाएंगे। उनके द्वारा शर्तिया इलाज भी बताया जाएगा। आप ट्रेन में यात्रा कर रहे हों, तो कई ऐसे लोग मिल जाएंगे, जो आपस में स्वास्थ्य पर चर्चा करते हुए मिल जाएंगे। इस दौरान वे एक से एक दवाओं के नुस्खे बताते हैं। हर बीमारी का इलाज उनके पास है। कई बार तो रामबाण के रूप में भी वे दवाओं के नुस्खे पूरी शिद्दत के साथ बताते हैं। जब उन पर यह सवाल दागा जाता है कि क्या आपने इसका इस्तेमाल किया है, तो वे बगलें झांकते मिल जाएंगे। रास्ते चलते बीमारियों का इलाज बताना यानी आज की वाट्स एप यूनिवर्सिटी में पढ़ने जाना। लेकिन इससे हटकर भी एक दुनिया ऐसी भी है, जहां केवल दवाएं ही दवाएं हैं।

दवाएं केवल बोतलों या गोलियों में ही होती हैं। ऐसा नहीं है। अब समय आ गया है कि हमें इस धारणा से पूरी तरह से मुक्त हो जाना चाहिए। हमारे आसपास ही बहुत-सी दवाएं हैं, जिससे हम पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं। ये ऐसी दवाएं हैं, जो हैं तो काम की, पर हमें उन पर शायद विश्वास नहीं है। इसकी गवाही हमारे बुजुर्ग ही दे पाएंगे।आज जिन दवाओं का जिक्र हो रहा है, उसमें एक पैसे का भी निवेश नहीं है। यह दवाएं हमारे जीवन से जुड़ी हैं। हमारे आसपास ही बिखरी पड़ी हैं। हम ही हैं, जो इसे अनदेखा कर रहे हैं। आप ही बताएं, क्या व्यायाम दवा नहीं है? यह ऐसी दवा है, जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं होता। ठीक इसी तरह सुबह की सैर भी एक दवा है, उपवास करना भी दवा है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता ही नहीं है, सपरिवार एक साथ भोजन करना भी एक दवा है। वैसे देखा जाए, तो छोटे होते परिवार में यह अब संभव नहीं रहा। फिर भी लोग हैं कि इस तरह का कोई अवसर आए, तो वे इसे छोड़ते नहीं।

गहरी नींद लेना एक दवा है, तो खिलखिलाकर हंसना भी एक दवा है। दोस्तों के साथ किसी पिकनिक में जाना एक दवा है, तो सदैव हंसमुख रहना भी एक दवा ही तो है। आपसे ही पूछता हूं कि सकारात्मक विचारों से लैस रहना क्या किसी दवा से कम है? मूक प्राणियों के प्रति दया करना भी तो एक दवा ही है। दया और करुणा भी तो एक दवा ही है। किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना भी एक दवा है। कोई मुसीबत में घिरा हो, उसके सिर पर हाथ फेर देना भी एक दवा ही है। अपने मातहत किसी कर्मचारी को ये कहना कि मैं हूं ना, चिंता मत करो। उस कर्मचारी के लिए किसी रामबाण से कम नहीं। नियमित ध्यान करना एक दवा है, तो कई मामलों में चुप रहना भी एक दवा ही है। कई बार एकांतवास में चले जाना भी एक दवा है।

इस सारी दवाओं के बाद भी कुछ दवाएं शेष रह ही जाती हैं। अंत में एक दवा का जिक्र जरूरी है। ऐसा कोई दोस्त जिसके पास जाकर हमें अपने जीवन की सारी बातों को बेखौफ होकर बता सकें, जिसके पास हम अपनी पीड़ाओं को शब्द दे सकें, जिसके कांधे पर सिर रखकर खूब रो सकें, जिसके साथ पेट पकड़-पकड़कर हंस सकें, ऐसा दोस्त दवा नहीं, बल्कि पूरी दवा की दुकान है। क्या आपके पास ऐसी दवाओं की दुकान है। नहीं है, तो हमें तलाशनी होंगी, दवाओं की ऐसी दुकानें। ये दुकानें हमारे आसपास ही हैं, बस एक छोटा-सा नजरिया ही तो चाहिए, इन दुकानों में पहुंचने का। एक कोशिश...केवल एक कोशिश करें.... आप देखेंगे कि कुछ ही समय बाद आपके आसपास दवाओं की ऐसी बेशुमार दुकानें हो जाएंगी। ऐसी दुकानों को अपने बीच पाकर क्या आप धन्य नहीं हो जाएंगे?

डॉ. महेश परिमल









कहां से आई छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति?

प्रिंसीपल की मौत से उठते सवाल

डॉ. महेश परिमल

इंदौर में बीएम फार्मेसी कॉलेज की 55 वर्षीय प्रिंसीपल विमुक्ता शर्मा आखिर जिंदगी से अपनी जंग हार गई। शनिवार की सुबह उन्होंने आखिरी सांस ली। लगातार 5 दिनों तक उन्होंने मौत का डटकर मुकाबला किया। वह 80 प्रतिशत जल चुकी थीं। उनकी मौत ने समाज के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया है, जिसका जवाब मिलना बहुत ही मुश्किल है। कॉलेज प्रबंधन से नाराज छात्र आशुतोष श्रीवास्तव ने उन पर पेट्रोल डालकर आग लगा दी थी। यह छात्र काफी समय से असामाजिक गतिविधियों में लिप्त था। उसकी शिकायत प्रिंसीपल ने पुलिस से पिछले साल की थी। पर हमेशा की तरह पुलिस ने छात्र पर कोई कार्रवाई नहीं की।

छात्र द्वारा अपने प्रिंसीपल, टीचर या अपने ही दोस्तों पर किए गए हमले की यह पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी फरवरी 2018 में हरियाणा के यमुनानगर में 12 वीं के छात्र ने अपनी प्रिंसीपल को चार गोलियां दाग दी। प्रिंसीपल रितु छाबड़ा की वहीं मौत गई। वजह यही थी कि प्रिंसीपल ने छात्र को स्कूल में मोबाइल लाने से मना किया था। दिल्ली की रेयान स्कूल का मामला हमारे सामने है, जिसमें एक छात्र ने अपने से छोटे बच्चे को चाकू से मार डाला। अब वह भले ही बाल अपराधी है, पर उसकी आदतें किसी पेशेवर मुजरिम से कम नहीं। अक्टूबर 2012 में चेन्नई में नवमीं कक्षा के एक बच्चे ने अपनी शिक्षिका की चाकू मारकर हत्या कर दी। भारतीय समाज के लिए यह चौंकाने वाली खबर है।

दिल्ली, हरियाणा, गुजरात, चेन्नई समेत देश के कई हिस्सों में स्कूलों के अंदर कुछ छात्रों द्वारा किसी छात्र या शिक्षक की हत्या किए जाने की घटनाओं ने ये संकेत दिए हैं कि स्कूली छात्रों में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के इस देश में हिंसा को बढ़ावा देकर जैसा माहौल बनाया जा रहा है, उसकी छाप बच्चों के कोमल मन पर पड़ना स्वाभाविक है और यह गंभीर चिंता का विषय है। मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाविदों की मानें तो स्कूली छात्रों के मन में भरी कुंठा, असहिष्णुता (बर्दाश्त करने की क्षमता न होना) के कारण स्कूली बच्चे इस तरह की घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे समाज के लिए घातक बनती जा रही है।

कुछ बरस पहले ही दिल्ली के ज्योति नगर इलाके के एक सरकारी स्कूल में कुछ छात्रों ने 10वीं के छात्र की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। दिल्ली से सटे गुरुग्राम के एक बड़े निजी स्कूल में हुई बहुचर्चित प्रद्युम्न हत्याकांड समाज को झकझोर कर रख देने वाली घटना है। उधर, गुजरात के वड़ोदरा में एक छात्र की चाकू से 31 बार वार कर हत्या कर दी गई थी। दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई के सेंट मैरी एग्लो इंडियन स्कूल में 12वीं कक्षा के एक छात्र ने प्रधानाचार्य की हत्या कर दी। देशभर में इस तरह की कई घटनाएं हैं, जो स्कूली छात्रों में पनप रही हिंसा की प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं। ये घटनाएं समाज के लिए खतरे की घंटी हैं।

देश में उच्च वर्ग का जो चेहरा बदला है, यह उसी का प्रतिरूप है। हम लगातार देख, पढ़ और सुन रहे हैं कि आजकल बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कुछ लोग जमाने को दोष देकर चुप हो जाते हैं, कुछ इसे संस्कारों का दोष मानते हैं, कुछ लोग इसके लिए पालकों को दोषी ठहराते हैं। समाजशास्त्री कुछ और ही सोचते हैं। वैज्ञानिक इसे जींस या हार्मोन में बदलाव की बात करते हैं। पर सबसे आवश्यक और गंभीर बात पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा रहा है। कहाँ से आई बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति? क्यों होते हैं वे आक्रामक? आखिर क्या बात है कि वे अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाते? कहीं कुछ तो है, जो हमें दिखाई देते हुए भी नहीं दिख रहा है। आखिर क्या है ऐसा, कौन है दुश्मन, जो सामने होकर भी हमें दिखाई नहीं दे रहा है और हम उसका प्रहार झेल रहे हैं। आइए एक प्रयास तो करें कि आखिर कौन है हमारे बच्चों का दुश्मन..

डॉ. नवीन बताते हैं कि समाज में सफलता का पैमाना आईएएस, आईपीएस और बड़ा व्यापारी मान लिया गया है, लेकिन अच्छा मनुष्य बनने की भावना में कमी आई है। समाज में आम और विशेष की खाई बढ़ी है। समाज में सफलता की परिभाषा हो गई है 'शक्तिशाली', जो शक्तिशाली है वह अपना प्रभुत्व कायम कर लेगा। समाज आपको तभी मानेगा जब आप आईपीएस, बड़े व्यापारी या राजनेता होंगे। यह बहुत ही खतरनाक चलन बन गया है। देश में कोई व्यक्ति अपने बेटे को किसान नहीं बनाना चाहता, इसी तरह से मौलिक चीजों को नजरअंदाज किया जा रहा है।

इस संबंध में डॉ. कुमार का मानना है कि अगर किसी बच्चे ने सफलता पा ली तो ठीक है, लेकिन अगर वह सफल नहीं हुआ तो परिवार से लेकर समाज तक में उसे कोसा जाता है। ऐसे में उसमें कुंठा बढ़ेगी ही। बचपन आनंद काल होता है, जहां उसके गुणों और आत्मविश्वास का निर्माण होता है, लेकिन स्कूलों में 70 से 80 फीसदी बच्चों को पता ही नहीं होता कि उसे आगे करना क्या है। दरअसल, वर्तमान में समाज भी आत्मकेंद्रित होने की ओर बढ़ रहा है। बच्चे  इस देश का भविष्य हैं और अगर बच्चे हिसात्मक हो जाते हैं तो हमारा भविष्य अधर में लटक जाएगा। इसके लिए सभी समाजसेवियों, शिक्षाविदों और चिंतकों को आगे आना चाहिए, ताकि स्कूली बच्चों में नैतिक मूल्यों के विकास को बढ़ाया जाए, न कि हिंसक प्रवृत्ति को।

डॉ. महेश परिमल


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